Monday, May 22, 2017

भारतीय एकता मिशन भीम आर्मी।

नई दिल्ली. सहारनपुर में दलितों और राजपूतों के बीच हुए विवाद के बाद एक संगठन इन दिनों काफी चर्चा में है। इस संगठन का नाम है भीम आर्मी, जिसका पूरा नाम है भारतीय एकता मिशन भीम आर्मी। दलितों का यह संगठन मायवाती के बहुजन समाज पार्टी से काफी अलग है। यह संगठन दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों पर सीधा जवाब देता है और अपने हक की लड़ाई भी लड़ता है। फेसबुक पर इस संगठन को पसंद करने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। खास बात यह है कि इस संगठन में दलित युवकों के साथ-साथ पंजाब और हरियाणा के सिख भी शामिल हैं। इस संगठन ने रविवार को दिल्ली में जंतर-मंतर पर प्रोटेस्ट किया। जिसमें संगठन से जुड़े हजारों लोग शामिल हुए। इस प्रदर्शन में शामिल लोगों में युवाओं की तादाद ज्यादा थी। आज हम आपको इस संगठन और इसके संस्थापक चंद्रशेखर आजाद के बारे में बताएंगे। 
क्या था मामला?
-बता दें कि 5 मई को महाराणा प्रताप शोभा यात्रा निकाली जा रही थी।
-इस दौरान सहारनपुर के शब्बीरपु गांव में दो वर्गों की बीच संघर्ष हो गया।
-जिसमें एक सवर्ण व्यक्ति की मृत्य हो गई।
-दलितों का आरोप है कि लगभग दो दर्जन दलितों के घर जला दिए गए।
-संघर्ष तब से दलित बनाम सवर्ण हो गया है।
-जिसके बाद ये धीरे-धीरे पड़ोस के जिले जैसे शामली और मेरठ में भी फैल गया और वहां भी बवाल हुआ।
न्याय की मांग कर रहा है संगठन
-जंतर-मंतर पर प्रोटोस्ट करने पहुंचे भीम आर्मी के लोग न्याय की मांग कर रहे हैं।
-संगठन के लोगों का कहना है कि प्रदेश सरकार उनकी सुन नहीं रही है।
-यही नहीं संगठन के 27 लोगों को फर्जी मुकदमों में जेल भेज दिया गया है।
-प्रदर्शन कर रहे लोग जिन्हें छोड़ने की मांग कर रहे हैं। 
कौन हैं चंद्रशेखर आजाद ?
-भीम आर्मी का सहारनपुर में काफी प्रभाव है। 
-इस संगठन के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद यहीं के छुटमलपुर गांव के रहने वाले हैं, जो पेशे से अधिवक्ता हैं।
चंद्रशेखर उस वक्त चर्चा में आए जब उन्होंने अपने गांव के बाहर बोर्ड लगाते हुए लिखावाय 'द ग्रेट चमार गांव।'
-करीब छह साल पहले जब चंद्रशेख के पिता अस्पताल में भर्ती थे तो चंद्रशेखर ने अस्पताल में लोगों से दलित समाज के दमन की बातों को सुना।
-उस वक्त वह अमेरिका जाकर उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते थे।
-लेकिन दलितों के दमन की बात सुनकर चंद्रशेखर ने अमेरिका जाने का विचार त्याग दिया।
-और 2011 में गांव के कुछ युवकों के साथ मिलकर भारत एकता मिशन भीम आर्मी का गठन किया। 
'रावण' के नाम से भी जाने जाते हैं चंद्रशेखर
-भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर को रावण के नाम से भी जाना जाता है।
-चंद्रशेखर कहते हैं कि रावण को लोग नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।
-लेकिन अगर ठीक ढंग से देखा जाए तो रावण ने अपनी बहन सुपर्णखा का बदला लिया था।
-चंद्रशेखर बताते हैं कि सुपर्णखा का बदला लेने के लिए रावण ने सीता का हरण किया।
-लेकिन सीता को रावण ने सम्मानजनक तरीके से अशोक वाटिका में रखा। 
समाज की सेवा करना है मुख्य उद्देश्य
-30 साल के चंद्रशेखर संगठन के लिए वकालत भी करते हैं।
-जिस वक्त भीम आर्मी का गठन किया गया था।
-उस समय इसका उद्देश्य समाज की सेवा करना और गरीब कन्याओं के लिए धन जुटाकर विवाद संपन्न कराना था।
-लेकिन कुछ दिनों पहले रामनगर में हुए बवाल ने इस संगठन को चर्चा में ला दिया।
-जिसके कारण संगठन की काफी बदनामी भी हुई।
'राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ वोट हैं दलित'
-चंद्रशेखर कहते हैं कि दलितों की परवाह कोई नहीं करता है।
-राजनीतिक दल हमें सिर्फ वोट समझते हैं।
-वह कहते हैं कि हमारे लोगों पर हर दिन अत्याचार किया जाता है।
-और पुलिस भी हम लोगों की नहीं सुनती है।
-उन्होंने उदाहरण दिया कि उना (पिछले साल गुजरात में दलितों के हमलों पर गठबंधन पर हमला) या (हैदराबाद छात्र) रोहिथ वेमुला की आत्महत्या आदि ऐसे मामले हैं।
-जहां पर दलितों की कोई सुनवाई नहीं हुई। चंद्रशेखर के अनुसार, भीम सेना एक मंच है जहां हम अपने युवा दलित समाज हित में कार्य करने के निर्देश देते हैं और उन्हें जागरूक करते हैं।

Wednesday, April 12, 2017

गाय

उन्माद और हिंसा पूर्णता में किसी चीज़ को देखने से रोक देगी. गाय दिखेगी, गांव नहीं दिखेगा. विकास सुनाई पड़ेगा लेकिन हर कोई परेशान रहेगा.

Cow Reuters
(फोटो: रॉयटर्स)
वे गाय को बचा रहे हैं और गांव को ख़त्म कर रहे हैं. गांव बचेगा तो गाय ख़ुद ही बच जाएगी. वैसे यह कहना भी ख़तरनाक हो गया है. फ़िलहाल कुछ भी कहना ख़तरनाक हो गया है. सुनने के लिए दो लोगों के नाम बचे हैं और इसी के उन्माद में जाने कितने लोग फंसे हैं. फंसे हैं कि उन्हें लगता है यही है जो उन्हें उबार देगा. उन्हें उनके दुख और डर से निकाल लेगा. वे भीतर से डरे हुए लोग हैं जो उन्मादी हो गए हैं. हत्या और उन्माद के लिए उन्हें वहीं से ताक़त मिल रही है. जबकि एक को दूसरे से शोहरत मिल रही है.
जहां कोई नाम बहुत बड़ा बना दिया जाता है. उसकी मान्यता बढ़ा दी जाती है और एक समूह भक्त बन जाता है. धर्म, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी कहीं भी इसे देखा जा सकता है. वे एक अदृश्य ताक़त के बल पर फलते-फूलते हैं और तलवार की तरह समाज के चेहरे पर झूलते हैं. वे, जो गाय की रट लगाए हुए हैं. वे जो कोई भी मांस न खाने की हठ लगाए हुए हैं. वे गाय प्रेमी नहीं हैं. अगर होते तो गाय और गांव के संबध को समझते कि वह गांव ख़त्म हो रहा है जहां गाय रह पाती थी.
गांव वहां बच रहा है जहां गाय की जगह दो गऊ जैसे बूढ़े ही बच पा रहे हैं. इसी विकास की प्रक्रिया ने गाय पालने वाले लोगों को गांव से बाहर कर दिया है. खेती बाड़ी तबाह कर उन्हें शहर में भर दिया है. शहरों और शहरों के बीच अथाह भरे हुए इलाकों के बीच जो रिक्त स्थान है, वही गांव है. इन रिक्त स्थानों को गाय से नही भरा जा सकता. गाय से कोई भी रिक्त स्थान नहीं भरा जा सकता.
फ़िलहाल जहां-जहां गाय लिखा जा रहा है, जहां-जहां गाय बोला जा रहा है, वहां वहां नफ़रत घोला जा रहा है. दो समुदायों के बीच जो बना हुआ, बचा हुआ रिश्ता था उसका धागा खोला जा रहा है. गाय के बहाने वे उससे अपनी नफ़रत जता रहे हैं. सुअर (बराह) जो उनके मिथक में ईश्वर था उसके खाए जाने, मारे जाने पर सवाल तक नहीं उठा रहे हैं. सवाल नहीं उठना चाहिए. न गाय पर न सुअर पर.
खानपान के अलग-अलग भौगोलिक, सांस्कृतिक कारण हैं. वैसे उन्हें किसी की संस्कृति का सम्मान नहीं है. उन्हें किसी से प्यार नहीं है. न मुल्क से, न गाय से, न गांव से, न गोरू से. क्योंकि गांव और गाय वाले मुल्क का बचना एक अलग तरह से बसना है. पूरी तरह से एक अलग अर्थव्यवस्था को रचना है. जिसे उजाड़ा गया और उजाड़ा जा रहा है.
गाय से प्यार बगैर चरागाहों के नहीं हो सकता. गाय से प्यार बिना बैलों और हरवाहों के नहीं हो सकता. शहर चरागाह नहीं बना सकते. वहां हम हल बैल नहीं चला सकते. वहां तो हम ख़ुद ही हर रोज़ कातिक के बैल बने हुए हैं. शहर जितने बड़े हैं हम उतना ज़्यादा मिट्टी में सने हैं. इन घनी बस्तियों की बहुतायत आबादी ज़मीन से ऊपर सीढ़ियों वाले छतों की है. जानवरों ने अभी अपने को इस मुताबिक नहीं बनाया. सीढ़ियों पर चढ़ने और छतों पर रहने के लायक ख़ुद को नहीं ढाला. हम हैं कि यह सब नहीं सोचते. अपनी ज़िंदगी और अपनी आंख से न देखकर गाय और गोबर में अड़े हुए हैं.
वन बीएचके में कोई कैसे गाय बसाएगा. बस वह अपनी दौड़ती-फिरती ज़िंदगी में जब भी गाय का नाम सुनेगा भावुक हो जाएगा. उसके लिए वन बीएचके की भी ज़रूरत नहीं. ट्रेन की सीट पर भी बैठकर गाय को लेकर भावुक हुआ जा सकता है. गाय को पालने और बचाने की बात वहीं पर ठहरी हुई है और हर रोज़ ट्रेन हमें शहर की तरफ लिए जा रही है. शहर की भीड़ हर रोज़ और बढ़ रही है. आसपास के गांव को अपने भीतर बटोर रही है. इंसान का ही रहना यहां मुहाल है. यह तो गाय को बचाने और बसाने का सवाल है.
सारे रोज़गार, सारे संस्थान शहर में हैं. सारी मुफ़लिसी, सारी तंगी घर में है. एक को तो छोड़ देना पड़ेगा. या इस विकास के रास्ते को ही मोड़ देना पड़ेगा. शहर टूटेंगे गांव तभी बस पाएगा. गाय तभी बस पाएगी. जब गाय सिर्फ़ धरम के लिए नहीं होगी. जब गोमूत्र सिर्फ़ पीने के लिए नहीं होगा. जब गोबर सिर्फ़ हवन के लिए नहीं होगा. वह खेतों में खाद के लिए होगा, उपजाऊं अनाज के लिए होगा. हमारे जीवन की पूरी प्रक्रिया का हिस्सा होगा. होंगे सारे जानवर. गाय जैसा होगा उनका भी होना.
पर ऐसा नहीं होगा इस सरकार से. इससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा और उससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा. क्योंकि इस मुल्क़ के विकास के लिए उनके पास वही खाका है, जिससे बना न्यूयार्क है, जिससे बना ढाका है. मुल्क़ हमारे अलग हैं पर उनका विकास, हमारा विकास एक है. गाय के मामले में वे हमसे ज़्यादा नेक हैं. हम बड़ी आबादी वाले देश को बगैर गांव के नहीं जीना था. हमारे कपड़े अलग थे हमें अपने तरीक़े से सीना था. हम न्यूयार्क नहीं हो सकते, हम जापान नहीं हो सकते.
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फोटो: रायटर्स
कई मुल्कों की लाशों पर चमकता हुआ शहर दुनिया में बहुत कम बन सकता है. अमेरिका बनना कई मुल्कों के इतिहास, भूगोल को निगल जाना है. अमरीका बनना कई मुल्कों का पड़ोसी मुल्कों से युद्ध कराते रहना है. अमेरिका होना दुनिया में सबसे ज़्यादा हथियार तैयार करना है. हथियार तैयार करना भविष्य में तबाही और भय की उम्मीद को ज़िंदा रखना है.
दुनिया में हम सबको असुरक्षित रखने का ही नाम है सबसे विकसित देश का नाम. हम उसी का पीछा करते हुए कुछ दशक पीछे हैं. शायद हम हमेशा पीछा करने वाले देश ही रहेंगे. हम आगे तभी जा सकते हैं जब वह पीछे जाए. इस एक लाइन वाली दुनिया की व्यवस्था में ऐसे ही सबको खड़े होना है. आगे जाने के लिए कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि अपने से आगे वाले को पीछे छोड़ा जाए, इसके लिए उसकी बांह मरोड़ा जाए.
हमे भारत बनाना था. जहां सबको बसना था. जहां इतिहास में सबके हिस्से थे. जहां जातियों के ज़ुल्म के भी किस्से थे. हमे उसे ख़त्म करना था. हमने वह नहीं किया. हमने वह नहीं सोचा. दुनिया के उन मुल्कों के उधारी विकास को हमने अपनी मिल्कियत बना ली. अब जो है वह भयावह है. उनके विकास का ही मॉडल शहर है कि हमे भी उसे ज़हर की तरह पीना पड़ रहा है. मौत के पहले हर रोज की मौत को जीना पड़ रहा है. युवा उम्र के लोग अफ़वाह की तरह फैल गए हैं, इन शहरों में. निराधार, हर रोज़ बदल दिए जाने वाली ख़बर की तरह.
पहले उन्हें नौकरी न पाने के ख़तरे हैं, नौकरी पाने के बाद इसके छिन जाने के ख़तरे हैं. इन ख़तरों से जो बचा हुआ मोहलत का वक़्त होता है उसमे वे ख़ुद भी ख़तरनाक हो जाते हैं. कहीं उन पर ख़तरा है तो कहीं वे उससे उबरने के लिए ख़ुद ख़तरा बन रहे हैं. उन्माद यहीं से पैदा होता है. व्यवस्था उन्हें ख़तरे में डालती है और उससे उबरने के लिए उन्हें ख़तरनाक बनाती है. तब गाय ही सबसे बड़ा सवाल बना दिया जाता है. गांव वहां से फिर भी हट जाता है.
जिन्हें इतनी असुरक्षाओं के बीच ज़िंदा रहना और बचे रहना है उन्हें नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती. नैतिकता उस ढांचे से पनपती है जहां आप जीवन जी रहे होते हैं. अर्थतंत्र पर टिकी इस दुनिया में आर्थिक तंगी के बीच आप किसी को ईमानदार नहीं बना सकते. ईमानदार बनाने की धारणा बना सकते हैं.
इस आधार पर एक राजनैतिक पार्टी बना सकते हैं. सदी के सबसे बड़े झूठ को सच बना सकते हैं. और भी बहुत कुछ बना सकते हैं पर ईमानदार इंसान नहीं बना सकते. क्योंकि इंसान अपने समाज की ज़रूरतों और ढांचों से अपने मूल्य बनाता है. न कि उसके मूल्य के आधार पर ढांचा बन पाता है.
बहते हुए नाले का पानी अगर साफ हो तो सारी चीज़ें अपने मूल रंग में दिख सकती हैं. एक-एक चीज़ को निकालकर उसे धुलकर उसका रंग दिखाना सिर्फ बहकावा है. ऐसे बहकावे में ही उन्माद भी है, हिंसा भी है और वह सबकुछ है जो पूर्णता में किसी चीज़ को देखने से रोक देगा. गाय दिखेगी, गांव नहीं दिखेगा. विकास सुनाई पड़ेगा और हर कोई परेशान रहेगा.
(लेखक जेएनयू में फेलो हैं.)

Tuesday, April 11, 2017

साहित्‍य समाज का दर्पण होता है

साहित्‍य समाज का दर्पण होता है जिस समाज का साहित्‍य जितना विकसित होगा वह समाज उतना ही उन्नत, जाग्रत होगा। विश्र्व इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पडे है प्राचीन काल से तथा कथित उच्‍च वर्गों का साहित्‍य पर एकाधिकार होने से इर्षा वंश दलित शोषित जातियों का कोई इतिहास नहीं रचा गया। रैगर जाति भी इस विडम्‍बना से वंचित नहीं रही बीसवीं सदी के सामाजिक शैक्षणिक, राजनैतिक आन्‍दोलनों के प्रभाव से तथाकथित दलित जाति के अंग रैगर समाज में भी नवजागरण का प्रवेश हुआ। शिक्षित रैगर बंधुओं के दिल में रैगर इतिहास के प्रति जिज्ञासा उत्‍पन्‍न होना स्‍वाभाविक था। समाज के प्रबुद्ध विद्वानों के क्षरा रैगर प्राचीन इतिहास की खोज का महत्‍वपूर्ण कार्य प्रारंभ कर दिया गया। अनेकों प्रयासों अनुसंधानों के पश्‍चात् भी हमारे विद्वानगण किसी प्रामाणिक इतिहास तक नहीं पहुंच पाये फिर भी हमारे समाज में प्रचलित रिति-रिवाजों, मान्‍यताओं, जागाओं, गंगागोरों की पोथियों, किवदतियों ने रैगर जाति का प्रथम पुरूष सूर्यवंशी महाराजा सागर का होना प्रमाणित किया, कई विद्वानों ने रैगर जाति का उभ्‍दव रघुवंशीयों से कुछ क्षत्रियों की शाखा रांघडा क्षत्रियों से कुछ अग्रवाल समाज से होना स्‍वीकार करते है। रैगर समाज का प्राचीन स्‍वर्णिम इतिहास कुछ भी रहा हो इस विषय पर गम्‍भीरता पूर्वक खोज परमावश्‍यक है। समाज के प्रबुद्ध लेखकगण स्‍व. श्री पूज्‍य स्‍वामी आत्‍माराम लक्ष्‍य, डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद गाडेगावलिया, श्री चिरंजीलाल बकोलिया, श्री जीवनराम गुसाईवाल, श्री चन्‍दनमल नवल, श्री रूपलाल जलुथंरिया आदि द्वारा रैगर समाज के शोधपूर्ण इतिहास की रचना की गई जो उच्‍च कोटी के रैगर इतिहास होकर अत्‍यंत ज्ञानवर्धक एवं समाजोंपयोगी सिद्ध हुए है। सब धन्‍यवाद के पात्र है। रैगर समुदाय से आग्रह करते है कि सभी संगठित हो बैरभाव त्‍याग कर समाज हित के कार्यों में तन-मन-धन से लगते हुए इस माज को उन्‍नति के शिखर पर ले जाने का प्रयास करे अपनी संतानों को सामाजिक ज्ञान से परिपूर्ण कर रूडियों, बुराईयों से बचाते हुए समाज को उन्‍नत करने के प्रति अपने कर्त्तव्‍य का निर्वाहन कर जाति के ऋण से उरीण होने का प्रयास करें।

Sunday, April 9, 2017

एंकर, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर, टेक्निकल स्टाफ को अपनी भावनाओं पर काबू रख कर काम करना पड़ता है

तीखे नैन-नक्श, गोरा-चिट्टा रंग, दुल्हन सा मेकअप, बेहतरीन कपड़े कुल मिलाकर टीवी पर खबर पढ़ने वाली कोई भी लड़की बेहद खूबसूरत होती है. वो जितनी खूबसूरत होती है उससे कहीं ज्यादा आकर्षक टीवी पर दिखती है. वो पढ़ी-लिखी होती है. उस खूबसूरत चेहरे का दिमाग भी तेज होता है. वो अपनी बुद्दिमानी से प्रभावित करती है. अपनी तर्क शक्ति से घाघ नेताओं की बोलती बंद करती है.
आजकल महिलाएं टीवी न्यूज की दुनिया में पुरूषों से बाजी मार रही हैं. पुरुष भी जैसे होते हैं, उससे कहीं आकर्षक बनाकर उन्हें टीवी पर पेश किया जाता है. आकर्षक और खूबसूरत दिखने वाले महिला पुरुष एंकर किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से ज्यादा पढ़ते-लिखते हैं, मेहनत करते हैं. पल-पल बदलती दुनिया के प्रत्येक घटनाक्रम से खुद को जोड़े रखते हैं. ये सब करना एंकर्स की व्यवासायिक बाध्यता होती है. लेकिन इससे भी कहीं ज्यादा जिस मोर्चे पर एंकर्स को जूझना पड़ता है वो है उनकी निजी जिन्दगी.
घर में बच्चा बीमार हो, बूढ़े माता-पिता में से किसी को डॉक्टर को दिखाना हो, पति या पत्नी से भयंकर झगड़ा हुआ हो, कोई आर्थिक तंगी हो, खुद की सेहत को लेकर कोई परेशानी, कुछ भी हो, अगर एंकरिंग करनी है तो दिमाग को चुस्त-दुरुस्त करना ही होगा. तमाम समस्याओं को भूल जाना होगा. पढ़-लिखकर एंकरिंग के लिए सज-संवर कर बैठ जाना होगा. और अपनी परेशानियों की शिकन भी मेकअप के पीछे छिपा लेनी होगी. जरा सोचिए ये काम कितना मुश्किल है. लेकिन आपको करना ही है. नहीं किया या जरा सी गलती की तो नौकरी जाने से कम में बात नहीं बनती. बॉस नर्मदिल हुआ तो नौकरी नहीं लेगा लेकिन एंकरिंग तो जरूर छीन लेगा.
ये सब इसलिए कहना पड़ा क्योंकि एक खबर ने झकझोर कर रख दिया. रायपुर में एक टीवी न्यूज एंकर सुरप्रीत कौर ने ब्रेकिंग न्यूज में अपने पति की मौत की खबर पढ़ी. एंकर सुरप्रीत कौर छत्तीसगढ़ के न्यूज चैनल आईबीसी-24 में काम करती हैं. शनिवार सुबह वह रोजाना की तरह ऑफिस आईं और न्यूज पढ़ने लगी. इसी दौरान महासमु्ंद जिले के पिथौरा में हुए एक सड़क हादसे की खबर आई तो सुरप्रीत ने एक ब्रेकिंग न्यूज पढ़ी. ये खबर उनके पति की मौत की खबर थी. महासमुंद के एनएच-353 पर लहरौद पड़ाव गांव के पास पांच लोग डस्टर कार से रायपुर लौट रहे थे. कार हादसे का शिकार हो गई और तीन लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया. दो की स्थिति गंभीर है.
हालांकि जब सुरप्रीत अपने रिपोर्टर से लाइव बात कर रही थीं तब उन्हें पति के एक्सीडेंट का नहीं पता था लेकिन डस्टर कार और पांच लोगों का कार में होना उन्हें आशंकित कर गया. न्यूज पढ़ने के बाद उन्होंने घर फोन करके कंफर्म किया और फूट-फूटकर रोने लगीं.
देखिए वीडियो-
अब आप अंदाजा लगाइए क्या गुजरी होगी इस एंकर पर. ऐसे कई किस्से न्यूज इंडस्ट्री में हुए हैं. एंकर्स की जिन्दगी जितनी आसान लगती है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल और कठिन होती है. हम एंकर्स के माता-पिता भी जानते हैं कि एंकरिंग करते समय हमें फोन ना किया जाए और वो लोग कभी करते भी नहीं हैं. गलती से मिल भी जाए तो तुरंत काट देते हैं. लेकिन सोचिए एक के बाद एक दस फोन अगर घर से आ जाएं और ऑन एयर होने पर एंकर वो फोन उठा भी नहीं पाए तो कलेजा बैठ जाता है. फिर अगर ब्रेक में मौका मिले और ये पता चले कि पिताजी काफी सीरियस हैं और मां को दरकार है एक एंबुलेंस की जो पिता को फौरन अस्पताल पहुंचाना चाहती हैं, लेकिन उसके लिए भी एंकर को इंतजार करना पड़ता है और तभी ब्रेक खत्म हो जाता है, और एंकर तुरंत न्यूज पढ़ने लगता है. उसका चेहरा पिता की गंभीर स्थिति जानते हुए भी सामान्य हो जाता है, वो चर्चा में आए गेस्ट से बात करने लगता है. खैर ब्रेक खत्म होने पर दूसरे एंकर को फोन किया जाता है उसके आने तक अपने भावों को छुपाकर सामान्य दिखते हुए खबर पढ़ती रहनी पढ़ती है. ये हुआ था मेरे अजीज आजतक के एंकर संजीव चौहान के साथ.
आजतक में हमारे बॉस सुप्रिय प्रसाद कई बार पुरानी यादों का जिक्र करते हुए उपहार कांड की खबर बताते हैं कि कैसे उपहार अग्नि कांड की खबर पढ़ते समय एसपी सिंह रो पड़े थे. उपहार कांड की रिपोर्टिंग करते समय अलका सक्सेना भी रोई थीं. संजय पुगलिया एसपी की डेथ की खबर पढ़ते समय खुद पर काबू नहीं कर पाए थे. उनकी आंखों में आंसू आ गए थे. दीपक चौरसिया लातूर में भूकंप की रिपोर्टिंग करते-करते इतने विचलित हुए कि बस उनके आंसू नहीं निकले लेकिन दीपक चौरसिया की रिपोर्टिंग देखने वाले तक गमगीन हो गए थे. दीपक बमुश्किल अपने आंसू रोक पाए थे.
एंकर्स के अपने आप पर काबू नहीं कर पाने की कुछ घटनाएं दूरदर्शन और आकाशवाणी में भी हुईं हैं. इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पढ़ते समय जेवी रमण का गला रूंध गया था. इसी खबर को जब अंग्रेजी में तेजेश्वर पढ़ रहे थे तो उनका भी यही हाल हुआ था. इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सलमा सुल्तान से भी नहीं पढ़ी जा रही थी. आकाशवाणी पर इंदिरा गांधी की खबर पढ़ते हुए अशोक वाजपेयी की आवाज भर्रा गई थी. पाकिस्तान के एक एंकर स्कूल पर आतंकवादी हमले की रिपोर्टिंग करते समय एक पाकिस्तानी एंकर फूट-फूट कर रोई थी. सिर्फ एंकर्स ही नहीं न्यूज रूम में काम करने वाले हर शख्स की स्थिति कभी-कभी ऐसी होती है.
एक घटना हमारे चैनल में भी हुई थी. माधवराव सिंधिया के हैलिकॉप्टर क्रैश की जब खबर आई तो आजतक के स्टाफ ने इसे पहले एक नेता की खबर के रूप में लिया लेकिन कुछ ही देर में जब पता चला कि उसी हैलिकॉप्टर में हमारे दो साथी पॉलिटिकल रिपोर्टर रंजन झा और कैमरामैन गोपाल सिंह बिष्ट की भी मृत्यु हो गई है तो पूरा आजतक गमगीन था, स्टाफ की आंखों में आंसू थे लेकिन टीवी पर खबर चल रही थी. बहुत सारे लोग रो रहे थे लेकिन साथ ही काम करना उनकी मजबूरी भी थी. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि टीवी न्यूज चैनल में काम करने वाले हर इंसान के जीवन में कभी ना कभी ऐसा कोई ना कोई पल जरूर आया होगा.
अपने ही पति की मौत की खबर पढ़ना दिल दहला देती है. पत्रकारिता में विषम परिस्थितियों में काम करना पड़ता है. एंकर, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर, टेक्निकल स्टाफ को अपनी भावनाओं पर काबू रख कर काम करना पड़ता है. लेकिन आज आईबीसी की एंकर के साथ जो हुआ उसने पूरी टीवी न्यूज इंडस्ट्री को झकझोर कर रख दिया है.

Friday, March 10, 2017

वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति(अल्टरनेटिव मेडिसिन सिस्टम)

नई दिल्ली, 4 अगस्त (आईएएनएस)। नई और वैज्ञानिक उपचार विधियों के इस युग में पारंपरिक और वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियां भी तीव्र गति से लोकप्रिय हो रही हैं। आज इस तथ्य को स्वीकार किया जा रहा है कि स्वास्थ्य का अर्थ 'मात्र रोग से मुक्ति' नहीं है बल्कि इसमें शरीर से भी अधिक महत्वपूर्ण अन्य पहलू शामिल है। वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियां में विशेष रोग के इलाज की बजाय प्रकृति का ही एक अंग समझकर मरीज का उपचार किया जाता है। इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग शामिल होते जा रहे हैं।
वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ-साथ जन-चेतना अभियान के अंतर्गत यह तथ्य प्रमाणित किया जा रहा है कि पारंपरिक चिकित्सा-पद्धति की तुलना में वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियां अधिक कारगर, किफायती, कम दुष्प्रभाव वाली तथा कम नुकसान पहुंचानेवाली है। वस्तुत: विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के अनुसार 65 से 80 प्रतिशत तक विश्व की आबादी स्वास्थ्य देखभाल के रूप में वैकल्पिक उपचार पर भरोसा करती है। वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति को परिभाषित करना कठिन है; क्योंकि अलग-अलग लोग अलग-अलग दृष्टिकोण से वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का अर्थ ग्रहण करते हैं। सामान्यत: इस चिकित्सा-पद्धति में स्वास्थ्य की देखभाल के सभी रूप एवं तकनीकें शामिल हैं, जो पारंपरिक एलोपैथिक व्यवसायी (प्रैक्टिशनर) इस्तेमाल नहीं करता। इसमें आयुर्वेद, होम्योपैथी, एक्युपंक्च र, रेकी, नैचुरोपैथी आदि जैसी चिकित्सा-प्रणालियां भी शामिल हैं। वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों की सूची अंतहीन है तथा इस क्षेत्र में अनेक करियर मौजूद है। सर्वाधिक रोचक पहलू यह है कि सामान्य एम.बी.बी.एस. कोर्स से भिन्न इस अध्ययन पर अधिक समय दिए बिना व्यक्ति इस क्षेत्र में आ सकता है; जबकि एम.बी.बी.एस. में व्यक्ति को पांच वर्ष तक पढ़ना पड़ता है तथा इसके बाद विशेषज्ञता प्राप्त करनी पड़ती है। आम धारणा के विपरीत, चिकित्सा जगत् अब विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए ही सुरक्षित नहीं है। रेकी और एक्युपंक्च र जैसी वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों को किसी भी पृष्ठभूमि का व्यक्ति अपना सकता है। रेकी प्राचीन तिब्बती/भारतीय उपचार विधि है। जापानी भिक्षु डाक्टर मिकाओ युजु ने इसकी पुन: खोज की थी। यहां 'रे' (ब्रह्मांड) तथा 'की' (जीवन, शक्ति, ऊर्जा ) का संयुक्त रूप 'रेकी' है। रेकी या किसी भी वैकल्पिक चिकित्सा का अध्ययन करना कोई कठिन कार्य नहीं है। कोई भी व्यक्ति रेकी या चुंबक-चिकित्सा अथवा एक्युप्रेशर के सिद्धांतों का इस्तेमाल करना सीख सकता है। आपके पास मानव शरीर के मूलभूत पक्षों की जानकारी होनी चाहिए।
रेकी चिकित्सक मानव शरीर के विभिन्न ऊर्जा केंद्रों (सात प्राण ऊर्जा) को सक्रिय करता है। इसके साथ ही उपचार प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। इन ऊर्जा केंद्रों में असंतुलन आ जाने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यहां अध्ययन के चार स्तर हैं - प्रक्रिया का प्रारंभ, दिव्य दृष्टि/टेलीपथी, मनोचिकित्सीय सर्जरी तथा मास्टर। यहां चिकित्सक की हथेलियों से शक्ति प्रवाहित होती है तथा दूर से ही उपचार किया जाता है। यद्यपि इस पाठ्यक्रम को सिखाने के लिए कोई सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थान नहीं है, लेकिन कुछ प्राइवेट संस्थाएं उभरकर सामने आ रही हैं, जो विभिन्न स्तर पास कर लेने के बाद प्रमाण-पत्र देती है। एक्युपंक्च र अन्य वैकल्पिक चिकित्सा है। एक्युपंक्च र के पारंपरिक चीनी सिद्धांत में शरीर की प्रतिकूल शक्तियों - 'यिन' और 'यंग' के बीच संतुलन के बारे में बताया गया है। रोग का उपचार करने के लिए मानव शरीर के कुछ चैनलों के निश्चित बिंदुओं को उद्दीप्त किया जाता है। आजकल इन्हें इलेक्ट्रिकल-मैकेनिकल हाइपर प्वॉइंट कहा जाता है। हर रोग के लिए एक्युपंक्च र की उपयोगिता ज्ञात नहीं है। हां, यह साठ प्रतिशत सफलता दर के साथ पुराने दर्द से ग्रस्त मामलों में इस्तेमाल की जाती है। बेहतर है कि इसके साथ-साथ नियमित चिकित्सा का पाठ्यक्रम भी किया जाए।
नैचुरोपैथी में विकारों के उपचार में विभिन्न प्राकृतिक दुष्प्रभाव-रहित इलाज किए जाते हैं। इसके अंतर्गत, हाइड्रोपैथी, इन्फ्रारैड, मड, मालिश, चुंबक-चिकित्सा पद्धति आदि इस्तेमाल की जाती हैं। हैल्थ रिसॉर्ट, क्लबों, अस्पतालों तथा योग-केंद्रों में इस क्षेत्र से संबंधित रोजगार की काफी संभावनाएं हैं। रेकी और अन्य वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों के लिए चिकित्सक द्वारा कम-ज्यादा, सभी तरह से फीस ली जाती है। यह फीस घंटे के हिसाब से सत्र या पूरी चिकित्सा-पद्धति की अवधि के हिसाब से वसूल की जाती है। फीस अनुभव, ज्ञान और चिकित्सक के स्थल पर निर्भर करती है। अधिकांश रेकी मास्टर्स तथा अन्य वैकल्पिक चिकित्सा-व्यवसायी कक्षाएं भी लेते हैं। जब व्यक्ति की इस क्षेत्र में धाक जम जाती है तब आय की कोई सीमा नहीं रहती। यद्यपि शुरू-शुरू में वैकल्पिक चिकित्सा की ओर बहुत कम लोग आते थे, तथापि एलोपैथिक और अन्य आधुनिक चिकित्सा संबंधी रूपों के बारे में बढ़ते संभ्रम के कारण पूर्वी और पश्चिमी देशों के लोग वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों की ओर अधिकाधिक संख्या में लौट रहे हैं। भारतीय वैकल्पिक चिकित्सा बोर्ड द्वारा चालित अंतर्राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय अकादमी है। भारत व विदेशों में प्राकृतिक एवं पूरक चिकित्सा और स्वास्थ्य संवर्धन के क्षेत्र में यह अग्रणी संस्था है। डिग्री कोर्स- प्रत्येक पाठ्यक्रम दो वर्ष की अवधि का है तथा न्यूनतम योग्यता इंटरमीडिएट या बारहवीं कक्षा या समतुल्य है। पाठ्यक्रम इस प्रकार है - प्राकृतिक चिकित्सा और योग, रेकी उपचार, एक्युप्रेशर और चुंबक चिकित्सा, औषधि-हर्बलिज्म, वैद्युत-होम्योपैथी, जैव-कीमिक (रसायन), हाइप्नो-थेरैपी, मेडिकल ज्योतिष विद्या, एरोमा (सुगंध) चिकित्सा, रेडियोस्थिशिया और रेडियोनेक्सि, बैच-फ्लॉवर। स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम : ओआईयूएएम तीन स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलाता है –
1.वैकल्पिक चिकित्सा में डॉक्टर,
2. वैकल्पिक चिकित्सा, दर्शनशास्त्र में डॉक्टर,
3. वैकल्पिक चिकित्सा विज्ञान में डॉक्टर। अधिक जानकारी के लिए यहां संपर्क किया जा सकता है –

इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ आल्टरनेटिव मेडिसिन, 80, चौरंगी रोड, कोलकाता-700020

Thursday, March 9, 2017

रानी पद्मिनी

रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया |
तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे | सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि " मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | " रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी | सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |
अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया | रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया | आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |
रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा | रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे | सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया | 
इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली | आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया | जौहर के लिए गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया | महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -
बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ||

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे | 
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |

चितौड़ यात्रा के दौरान पद्मिनी के महल को देखकर स्व.तनसिंह जी ने अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त किया -
यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था | अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |
कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी |

Wednesday, March 8, 2017

अब कविता लिखने के नाम से कोई जेल नहीं जाता।

अब कविता लिखने के नाम से कोई जेल नहीं जाता। किसी की कविता सुनकर राजनीति में बदलाव नहीं आता और हम देख रहे हैं कि कविता के विषयों में हमारे देश के बहुत ज़रूरी मुद्दे अब भी गायब ही हैं। कविता करना पेटभर खाने के बाद की डकार की मानिंद हो गया है। हमारे सामने की ये बेरोजगारी, पूंजीवाद, जातिवाद, आतंकवाद, भुखमरी, साम्प्रदायिकता जैसी बड़ी मुश्किलें अब कविता के इस वर्तमान परिदृश्य को सीधे-सीधे चिढ़ा रही है।आदमी अपने स्वार्थ के खातिर लगातार टूट रहा है। हमने देश की गुलामी और फिर इस आज़ादी के अंदाज़े खो दी हैं। जाने कब तक ये आदमी गिरेगा। इस दौर में हमारे कहने और करने में लगातार फरक आता जा रहा है। भौतिकता की अंधी दौड़ में हम बस भागे जा रहे है। एकदम बिना उद्देश्य के। ये विचार समग्र रूप से निकल आये तब जब शहीद दिवस की पूर्व संध्या पर चित्तौड़गढ़ की मधुवन कोलोनी में एक काव्य गोष्ठी संपन्न हुयी। आयोजन में मुख्य अतिथि टीकमगढ़ के रचनाकार लाल सहाय, विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद डॉ. ए.एल. जैन और महेंद्र पोद्दार थे। अध्यक्षता साहित्यकार डॉ. सत्यनारायण व्यास ने की. नन्दकिशोर निर्झर की मेवाड़ी में की गयी सरस्वती वंदना और कुछ मुक्तकों से गोष्ठी का आगाज़ हुआ। इससे पहले मेजबान डॉ.ए.बी.सिंह ने सभी कवियों और अतिथियों का स्वागत किया।