Wednesday, April 12, 2017

गाय

उन्माद और हिंसा पूर्णता में किसी चीज़ को देखने से रोक देगी. गाय दिखेगी, गांव नहीं दिखेगा. विकास सुनाई पड़ेगा लेकिन हर कोई परेशान रहेगा.

Cow Reuters
(फोटो: रॉयटर्स)
वे गाय को बचा रहे हैं और गांव को ख़त्म कर रहे हैं. गांव बचेगा तो गाय ख़ुद ही बच जाएगी. वैसे यह कहना भी ख़तरनाक हो गया है. फ़िलहाल कुछ भी कहना ख़तरनाक हो गया है. सुनने के लिए दो लोगों के नाम बचे हैं और इसी के उन्माद में जाने कितने लोग फंसे हैं. फंसे हैं कि उन्हें लगता है यही है जो उन्हें उबार देगा. उन्हें उनके दुख और डर से निकाल लेगा. वे भीतर से डरे हुए लोग हैं जो उन्मादी हो गए हैं. हत्या और उन्माद के लिए उन्हें वहीं से ताक़त मिल रही है. जबकि एक को दूसरे से शोहरत मिल रही है.
जहां कोई नाम बहुत बड़ा बना दिया जाता है. उसकी मान्यता बढ़ा दी जाती है और एक समूह भक्त बन जाता है. धर्म, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी कहीं भी इसे देखा जा सकता है. वे एक अदृश्य ताक़त के बल पर फलते-फूलते हैं और तलवार की तरह समाज के चेहरे पर झूलते हैं. वे, जो गाय की रट लगाए हुए हैं. वे जो कोई भी मांस न खाने की हठ लगाए हुए हैं. वे गाय प्रेमी नहीं हैं. अगर होते तो गाय और गांव के संबध को समझते कि वह गांव ख़त्म हो रहा है जहां गाय रह पाती थी.
गांव वहां बच रहा है जहां गाय की जगह दो गऊ जैसे बूढ़े ही बच पा रहे हैं. इसी विकास की प्रक्रिया ने गाय पालने वाले लोगों को गांव से बाहर कर दिया है. खेती बाड़ी तबाह कर उन्हें शहर में भर दिया है. शहरों और शहरों के बीच अथाह भरे हुए इलाकों के बीच जो रिक्त स्थान है, वही गांव है. इन रिक्त स्थानों को गाय से नही भरा जा सकता. गाय से कोई भी रिक्त स्थान नहीं भरा जा सकता.
फ़िलहाल जहां-जहां गाय लिखा जा रहा है, जहां-जहां गाय बोला जा रहा है, वहां वहां नफ़रत घोला जा रहा है. दो समुदायों के बीच जो बना हुआ, बचा हुआ रिश्ता था उसका धागा खोला जा रहा है. गाय के बहाने वे उससे अपनी नफ़रत जता रहे हैं. सुअर (बराह) जो उनके मिथक में ईश्वर था उसके खाए जाने, मारे जाने पर सवाल तक नहीं उठा रहे हैं. सवाल नहीं उठना चाहिए. न गाय पर न सुअर पर.
खानपान के अलग-अलग भौगोलिक, सांस्कृतिक कारण हैं. वैसे उन्हें किसी की संस्कृति का सम्मान नहीं है. उन्हें किसी से प्यार नहीं है. न मुल्क से, न गाय से, न गांव से, न गोरू से. क्योंकि गांव और गाय वाले मुल्क का बचना एक अलग तरह से बसना है. पूरी तरह से एक अलग अर्थव्यवस्था को रचना है. जिसे उजाड़ा गया और उजाड़ा जा रहा है.
गाय से प्यार बगैर चरागाहों के नहीं हो सकता. गाय से प्यार बिना बैलों और हरवाहों के नहीं हो सकता. शहर चरागाह नहीं बना सकते. वहां हम हल बैल नहीं चला सकते. वहां तो हम ख़ुद ही हर रोज़ कातिक के बैल बने हुए हैं. शहर जितने बड़े हैं हम उतना ज़्यादा मिट्टी में सने हैं. इन घनी बस्तियों की बहुतायत आबादी ज़मीन से ऊपर सीढ़ियों वाले छतों की है. जानवरों ने अभी अपने को इस मुताबिक नहीं बनाया. सीढ़ियों पर चढ़ने और छतों पर रहने के लायक ख़ुद को नहीं ढाला. हम हैं कि यह सब नहीं सोचते. अपनी ज़िंदगी और अपनी आंख से न देखकर गाय और गोबर में अड़े हुए हैं.
वन बीएचके में कोई कैसे गाय बसाएगा. बस वह अपनी दौड़ती-फिरती ज़िंदगी में जब भी गाय का नाम सुनेगा भावुक हो जाएगा. उसके लिए वन बीएचके की भी ज़रूरत नहीं. ट्रेन की सीट पर भी बैठकर गाय को लेकर भावुक हुआ जा सकता है. गाय को पालने और बचाने की बात वहीं पर ठहरी हुई है और हर रोज़ ट्रेन हमें शहर की तरफ लिए जा रही है. शहर की भीड़ हर रोज़ और बढ़ रही है. आसपास के गांव को अपने भीतर बटोर रही है. इंसान का ही रहना यहां मुहाल है. यह तो गाय को बचाने और बसाने का सवाल है.
सारे रोज़गार, सारे संस्थान शहर में हैं. सारी मुफ़लिसी, सारी तंगी घर में है. एक को तो छोड़ देना पड़ेगा. या इस विकास के रास्ते को ही मोड़ देना पड़ेगा. शहर टूटेंगे गांव तभी बस पाएगा. गाय तभी बस पाएगी. जब गाय सिर्फ़ धरम के लिए नहीं होगी. जब गोमूत्र सिर्फ़ पीने के लिए नहीं होगा. जब गोबर सिर्फ़ हवन के लिए नहीं होगा. वह खेतों में खाद के लिए होगा, उपजाऊं अनाज के लिए होगा. हमारे जीवन की पूरी प्रक्रिया का हिस्सा होगा. होंगे सारे जानवर. गाय जैसा होगा उनका भी होना.
पर ऐसा नहीं होगा इस सरकार से. इससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा और उससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा. क्योंकि इस मुल्क़ के विकास के लिए उनके पास वही खाका है, जिससे बना न्यूयार्क है, जिससे बना ढाका है. मुल्क़ हमारे अलग हैं पर उनका विकास, हमारा विकास एक है. गाय के मामले में वे हमसे ज़्यादा नेक हैं. हम बड़ी आबादी वाले देश को बगैर गांव के नहीं जीना था. हमारे कपड़े अलग थे हमें अपने तरीक़े से सीना था. हम न्यूयार्क नहीं हो सकते, हम जापान नहीं हो सकते.
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फोटो: रायटर्स
कई मुल्कों की लाशों पर चमकता हुआ शहर दुनिया में बहुत कम बन सकता है. अमेरिका बनना कई मुल्कों के इतिहास, भूगोल को निगल जाना है. अमरीका बनना कई मुल्कों का पड़ोसी मुल्कों से युद्ध कराते रहना है. अमेरिका होना दुनिया में सबसे ज़्यादा हथियार तैयार करना है. हथियार तैयार करना भविष्य में तबाही और भय की उम्मीद को ज़िंदा रखना है.
दुनिया में हम सबको असुरक्षित रखने का ही नाम है सबसे विकसित देश का नाम. हम उसी का पीछा करते हुए कुछ दशक पीछे हैं. शायद हम हमेशा पीछा करने वाले देश ही रहेंगे. हम आगे तभी जा सकते हैं जब वह पीछे जाए. इस एक लाइन वाली दुनिया की व्यवस्था में ऐसे ही सबको खड़े होना है. आगे जाने के लिए कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि अपने से आगे वाले को पीछे छोड़ा जाए, इसके लिए उसकी बांह मरोड़ा जाए.
हमे भारत बनाना था. जहां सबको बसना था. जहां इतिहास में सबके हिस्से थे. जहां जातियों के ज़ुल्म के भी किस्से थे. हमे उसे ख़त्म करना था. हमने वह नहीं किया. हमने वह नहीं सोचा. दुनिया के उन मुल्कों के उधारी विकास को हमने अपनी मिल्कियत बना ली. अब जो है वह भयावह है. उनके विकास का ही मॉडल शहर है कि हमे भी उसे ज़हर की तरह पीना पड़ रहा है. मौत के पहले हर रोज की मौत को जीना पड़ रहा है. युवा उम्र के लोग अफ़वाह की तरह फैल गए हैं, इन शहरों में. निराधार, हर रोज़ बदल दिए जाने वाली ख़बर की तरह.
पहले उन्हें नौकरी न पाने के ख़तरे हैं, नौकरी पाने के बाद इसके छिन जाने के ख़तरे हैं. इन ख़तरों से जो बचा हुआ मोहलत का वक़्त होता है उसमे वे ख़ुद भी ख़तरनाक हो जाते हैं. कहीं उन पर ख़तरा है तो कहीं वे उससे उबरने के लिए ख़ुद ख़तरा बन रहे हैं. उन्माद यहीं से पैदा होता है. व्यवस्था उन्हें ख़तरे में डालती है और उससे उबरने के लिए उन्हें ख़तरनाक बनाती है. तब गाय ही सबसे बड़ा सवाल बना दिया जाता है. गांव वहां से फिर भी हट जाता है.
जिन्हें इतनी असुरक्षाओं के बीच ज़िंदा रहना और बचे रहना है उन्हें नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती. नैतिकता उस ढांचे से पनपती है जहां आप जीवन जी रहे होते हैं. अर्थतंत्र पर टिकी इस दुनिया में आर्थिक तंगी के बीच आप किसी को ईमानदार नहीं बना सकते. ईमानदार बनाने की धारणा बना सकते हैं.
इस आधार पर एक राजनैतिक पार्टी बना सकते हैं. सदी के सबसे बड़े झूठ को सच बना सकते हैं. और भी बहुत कुछ बना सकते हैं पर ईमानदार इंसान नहीं बना सकते. क्योंकि इंसान अपने समाज की ज़रूरतों और ढांचों से अपने मूल्य बनाता है. न कि उसके मूल्य के आधार पर ढांचा बन पाता है.
बहते हुए नाले का पानी अगर साफ हो तो सारी चीज़ें अपने मूल रंग में दिख सकती हैं. एक-एक चीज़ को निकालकर उसे धुलकर उसका रंग दिखाना सिर्फ बहकावा है. ऐसे बहकावे में ही उन्माद भी है, हिंसा भी है और वह सबकुछ है जो पूर्णता में किसी चीज़ को देखने से रोक देगा. गाय दिखेगी, गांव नहीं दिखेगा. विकास सुनाई पड़ेगा और हर कोई परेशान रहेगा.
(लेखक जेएनयू में फेलो हैं.)

Tuesday, April 11, 2017

साहित्‍य समाज का दर्पण होता है

साहित्‍य समाज का दर्पण होता है जिस समाज का साहित्‍य जितना विकसित होगा वह समाज उतना ही उन्नत, जाग्रत होगा। विश्र्व इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पडे है प्राचीन काल से तथा कथित उच्‍च वर्गों का साहित्‍य पर एकाधिकार होने से इर्षा वंश दलित शोषित जातियों का कोई इतिहास नहीं रचा गया। रैगर जाति भी इस विडम्‍बना से वंचित नहीं रही बीसवीं सदी के सामाजिक शैक्षणिक, राजनैतिक आन्‍दोलनों के प्रभाव से तथाकथित दलित जाति के अंग रैगर समाज में भी नवजागरण का प्रवेश हुआ। शिक्षित रैगर बंधुओं के दिल में रैगर इतिहास के प्रति जिज्ञासा उत्‍पन्‍न होना स्‍वाभाविक था। समाज के प्रबुद्ध विद्वानों के क्षरा रैगर प्राचीन इतिहास की खोज का महत्‍वपूर्ण कार्य प्रारंभ कर दिया गया। अनेकों प्रयासों अनुसंधानों के पश्‍चात् भी हमारे विद्वानगण किसी प्रामाणिक इतिहास तक नहीं पहुंच पाये फिर भी हमारे समाज में प्रचलित रिति-रिवाजों, मान्‍यताओं, जागाओं, गंगागोरों की पोथियों, किवदतियों ने रैगर जाति का प्रथम पुरूष सूर्यवंशी महाराजा सागर का होना प्रमाणित किया, कई विद्वानों ने रैगर जाति का उभ्‍दव रघुवंशीयों से कुछ क्षत्रियों की शाखा रांघडा क्षत्रियों से कुछ अग्रवाल समाज से होना स्‍वीकार करते है। रैगर समाज का प्राचीन स्‍वर्णिम इतिहास कुछ भी रहा हो इस विषय पर गम्‍भीरता पूर्वक खोज परमावश्‍यक है। समाज के प्रबुद्ध लेखकगण स्‍व. श्री पूज्‍य स्‍वामी आत्‍माराम लक्ष्‍य, डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद गाडेगावलिया, श्री चिरंजीलाल बकोलिया, श्री जीवनराम गुसाईवाल, श्री चन्‍दनमल नवल, श्री रूपलाल जलुथंरिया आदि द्वारा रैगर समाज के शोधपूर्ण इतिहास की रचना की गई जो उच्‍च कोटी के रैगर इतिहास होकर अत्‍यंत ज्ञानवर्धक एवं समाजोंपयोगी सिद्ध हुए है। सब धन्‍यवाद के पात्र है। रैगर समुदाय से आग्रह करते है कि सभी संगठित हो बैरभाव त्‍याग कर समाज हित के कार्यों में तन-मन-धन से लगते हुए इस माज को उन्‍नति के शिखर पर ले जाने का प्रयास करे अपनी संतानों को सामाजिक ज्ञान से परिपूर्ण कर रूडियों, बुराईयों से बचाते हुए समाज को उन्‍नत करने के प्रति अपने कर्त्तव्‍य का निर्वाहन कर जाति के ऋण से उरीण होने का प्रयास करें।

Sunday, April 9, 2017

एंकर, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर, टेक्निकल स्टाफ को अपनी भावनाओं पर काबू रख कर काम करना पड़ता है

तीखे नैन-नक्श, गोरा-चिट्टा रंग, दुल्हन सा मेकअप, बेहतरीन कपड़े कुल मिलाकर टीवी पर खबर पढ़ने वाली कोई भी लड़की बेहद खूबसूरत होती है. वो जितनी खूबसूरत होती है उससे कहीं ज्यादा आकर्षक टीवी पर दिखती है. वो पढ़ी-लिखी होती है. उस खूबसूरत चेहरे का दिमाग भी तेज होता है. वो अपनी बुद्दिमानी से प्रभावित करती है. अपनी तर्क शक्ति से घाघ नेताओं की बोलती बंद करती है.
आजकल महिलाएं टीवी न्यूज की दुनिया में पुरूषों से बाजी मार रही हैं. पुरुष भी जैसे होते हैं, उससे कहीं आकर्षक बनाकर उन्हें टीवी पर पेश किया जाता है. आकर्षक और खूबसूरत दिखने वाले महिला पुरुष एंकर किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से ज्यादा पढ़ते-लिखते हैं, मेहनत करते हैं. पल-पल बदलती दुनिया के प्रत्येक घटनाक्रम से खुद को जोड़े रखते हैं. ये सब करना एंकर्स की व्यवासायिक बाध्यता होती है. लेकिन इससे भी कहीं ज्यादा जिस मोर्चे पर एंकर्स को जूझना पड़ता है वो है उनकी निजी जिन्दगी.
घर में बच्चा बीमार हो, बूढ़े माता-पिता में से किसी को डॉक्टर को दिखाना हो, पति या पत्नी से भयंकर झगड़ा हुआ हो, कोई आर्थिक तंगी हो, खुद की सेहत को लेकर कोई परेशानी, कुछ भी हो, अगर एंकरिंग करनी है तो दिमाग को चुस्त-दुरुस्त करना ही होगा. तमाम समस्याओं को भूल जाना होगा. पढ़-लिखकर एंकरिंग के लिए सज-संवर कर बैठ जाना होगा. और अपनी परेशानियों की शिकन भी मेकअप के पीछे छिपा लेनी होगी. जरा सोचिए ये काम कितना मुश्किल है. लेकिन आपको करना ही है. नहीं किया या जरा सी गलती की तो नौकरी जाने से कम में बात नहीं बनती. बॉस नर्मदिल हुआ तो नौकरी नहीं लेगा लेकिन एंकरिंग तो जरूर छीन लेगा.
ये सब इसलिए कहना पड़ा क्योंकि एक खबर ने झकझोर कर रख दिया. रायपुर में एक टीवी न्यूज एंकर सुरप्रीत कौर ने ब्रेकिंग न्यूज में अपने पति की मौत की खबर पढ़ी. एंकर सुरप्रीत कौर छत्तीसगढ़ के न्यूज चैनल आईबीसी-24 में काम करती हैं. शनिवार सुबह वह रोजाना की तरह ऑफिस आईं और न्यूज पढ़ने लगी. इसी दौरान महासमु्ंद जिले के पिथौरा में हुए एक सड़क हादसे की खबर आई तो सुरप्रीत ने एक ब्रेकिंग न्यूज पढ़ी. ये खबर उनके पति की मौत की खबर थी. महासमुंद के एनएच-353 पर लहरौद पड़ाव गांव के पास पांच लोग डस्टर कार से रायपुर लौट रहे थे. कार हादसे का शिकार हो गई और तीन लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया. दो की स्थिति गंभीर है.
हालांकि जब सुरप्रीत अपने रिपोर्टर से लाइव बात कर रही थीं तब उन्हें पति के एक्सीडेंट का नहीं पता था लेकिन डस्टर कार और पांच लोगों का कार में होना उन्हें आशंकित कर गया. न्यूज पढ़ने के बाद उन्होंने घर फोन करके कंफर्म किया और फूट-फूटकर रोने लगीं.
देखिए वीडियो-
अब आप अंदाजा लगाइए क्या गुजरी होगी इस एंकर पर. ऐसे कई किस्से न्यूज इंडस्ट्री में हुए हैं. एंकर्स की जिन्दगी जितनी आसान लगती है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल और कठिन होती है. हम एंकर्स के माता-पिता भी जानते हैं कि एंकरिंग करते समय हमें फोन ना किया जाए और वो लोग कभी करते भी नहीं हैं. गलती से मिल भी जाए तो तुरंत काट देते हैं. लेकिन सोचिए एक के बाद एक दस फोन अगर घर से आ जाएं और ऑन एयर होने पर एंकर वो फोन उठा भी नहीं पाए तो कलेजा बैठ जाता है. फिर अगर ब्रेक में मौका मिले और ये पता चले कि पिताजी काफी सीरियस हैं और मां को दरकार है एक एंबुलेंस की जो पिता को फौरन अस्पताल पहुंचाना चाहती हैं, लेकिन उसके लिए भी एंकर को इंतजार करना पड़ता है और तभी ब्रेक खत्म हो जाता है, और एंकर तुरंत न्यूज पढ़ने लगता है. उसका चेहरा पिता की गंभीर स्थिति जानते हुए भी सामान्य हो जाता है, वो चर्चा में आए गेस्ट से बात करने लगता है. खैर ब्रेक खत्म होने पर दूसरे एंकर को फोन किया जाता है उसके आने तक अपने भावों को छुपाकर सामान्य दिखते हुए खबर पढ़ती रहनी पढ़ती है. ये हुआ था मेरे अजीज आजतक के एंकर संजीव चौहान के साथ.
आजतक में हमारे बॉस सुप्रिय प्रसाद कई बार पुरानी यादों का जिक्र करते हुए उपहार कांड की खबर बताते हैं कि कैसे उपहार अग्नि कांड की खबर पढ़ते समय एसपी सिंह रो पड़े थे. उपहार कांड की रिपोर्टिंग करते समय अलका सक्सेना भी रोई थीं. संजय पुगलिया एसपी की डेथ की खबर पढ़ते समय खुद पर काबू नहीं कर पाए थे. उनकी आंखों में आंसू आ गए थे. दीपक चौरसिया लातूर में भूकंप की रिपोर्टिंग करते-करते इतने विचलित हुए कि बस उनके आंसू नहीं निकले लेकिन दीपक चौरसिया की रिपोर्टिंग देखने वाले तक गमगीन हो गए थे. दीपक बमुश्किल अपने आंसू रोक पाए थे.
एंकर्स के अपने आप पर काबू नहीं कर पाने की कुछ घटनाएं दूरदर्शन और आकाशवाणी में भी हुईं हैं. इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पढ़ते समय जेवी रमण का गला रूंध गया था. इसी खबर को जब अंग्रेजी में तेजेश्वर पढ़ रहे थे तो उनका भी यही हाल हुआ था. इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सलमा सुल्तान से भी नहीं पढ़ी जा रही थी. आकाशवाणी पर इंदिरा गांधी की खबर पढ़ते हुए अशोक वाजपेयी की आवाज भर्रा गई थी. पाकिस्तान के एक एंकर स्कूल पर आतंकवादी हमले की रिपोर्टिंग करते समय एक पाकिस्तानी एंकर फूट-फूट कर रोई थी. सिर्फ एंकर्स ही नहीं न्यूज रूम में काम करने वाले हर शख्स की स्थिति कभी-कभी ऐसी होती है.
एक घटना हमारे चैनल में भी हुई थी. माधवराव सिंधिया के हैलिकॉप्टर क्रैश की जब खबर आई तो आजतक के स्टाफ ने इसे पहले एक नेता की खबर के रूप में लिया लेकिन कुछ ही देर में जब पता चला कि उसी हैलिकॉप्टर में हमारे दो साथी पॉलिटिकल रिपोर्टर रंजन झा और कैमरामैन गोपाल सिंह बिष्ट की भी मृत्यु हो गई है तो पूरा आजतक गमगीन था, स्टाफ की आंखों में आंसू थे लेकिन टीवी पर खबर चल रही थी. बहुत सारे लोग रो रहे थे लेकिन साथ ही काम करना उनकी मजबूरी भी थी. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि टीवी न्यूज चैनल में काम करने वाले हर इंसान के जीवन में कभी ना कभी ऐसा कोई ना कोई पल जरूर आया होगा.
अपने ही पति की मौत की खबर पढ़ना दिल दहला देती है. पत्रकारिता में विषम परिस्थितियों में काम करना पड़ता है. एंकर, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर, टेक्निकल स्टाफ को अपनी भावनाओं पर काबू रख कर काम करना पड़ता है. लेकिन आज आईबीसी की एंकर के साथ जो हुआ उसने पूरी टीवी न्यूज इंडस्ट्री को झकझोर कर रख दिया है.