Friday, March 10, 2017

वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति(अल्टरनेटिव मेडिसिन सिस्टम)

नई दिल्ली, 4 अगस्त (आईएएनएस)। नई और वैज्ञानिक उपचार विधियों के इस युग में पारंपरिक और वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियां भी तीव्र गति से लोकप्रिय हो रही हैं। आज इस तथ्य को स्वीकार किया जा रहा है कि स्वास्थ्य का अर्थ 'मात्र रोग से मुक्ति' नहीं है बल्कि इसमें शरीर से भी अधिक महत्वपूर्ण अन्य पहलू शामिल है। वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियां में विशेष रोग के इलाज की बजाय प्रकृति का ही एक अंग समझकर मरीज का उपचार किया जाता है। इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग शामिल होते जा रहे हैं।
वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ-साथ जन-चेतना अभियान के अंतर्गत यह तथ्य प्रमाणित किया जा रहा है कि पारंपरिक चिकित्सा-पद्धति की तुलना में वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियां अधिक कारगर, किफायती, कम दुष्प्रभाव वाली तथा कम नुकसान पहुंचानेवाली है। वस्तुत: विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के अनुसार 65 से 80 प्रतिशत तक विश्व की आबादी स्वास्थ्य देखभाल के रूप में वैकल्पिक उपचार पर भरोसा करती है। वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति को परिभाषित करना कठिन है; क्योंकि अलग-अलग लोग अलग-अलग दृष्टिकोण से वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का अर्थ ग्रहण करते हैं। सामान्यत: इस चिकित्सा-पद्धति में स्वास्थ्य की देखभाल के सभी रूप एवं तकनीकें शामिल हैं, जो पारंपरिक एलोपैथिक व्यवसायी (प्रैक्टिशनर) इस्तेमाल नहीं करता। इसमें आयुर्वेद, होम्योपैथी, एक्युपंक्च र, रेकी, नैचुरोपैथी आदि जैसी चिकित्सा-प्रणालियां भी शामिल हैं। वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों की सूची अंतहीन है तथा इस क्षेत्र में अनेक करियर मौजूद है। सर्वाधिक रोचक पहलू यह है कि सामान्य एम.बी.बी.एस. कोर्स से भिन्न इस अध्ययन पर अधिक समय दिए बिना व्यक्ति इस क्षेत्र में आ सकता है; जबकि एम.बी.बी.एस. में व्यक्ति को पांच वर्ष तक पढ़ना पड़ता है तथा इसके बाद विशेषज्ञता प्राप्त करनी पड़ती है। आम धारणा के विपरीत, चिकित्सा जगत् अब विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए ही सुरक्षित नहीं है। रेकी और एक्युपंक्च र जैसी वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों को किसी भी पृष्ठभूमि का व्यक्ति अपना सकता है। रेकी प्राचीन तिब्बती/भारतीय उपचार विधि है। जापानी भिक्षु डाक्टर मिकाओ युजु ने इसकी पुन: खोज की थी। यहां 'रे' (ब्रह्मांड) तथा 'की' (जीवन, शक्ति, ऊर्जा ) का संयुक्त रूप 'रेकी' है। रेकी या किसी भी वैकल्पिक चिकित्सा का अध्ययन करना कोई कठिन कार्य नहीं है। कोई भी व्यक्ति रेकी या चुंबक-चिकित्सा अथवा एक्युप्रेशर के सिद्धांतों का इस्तेमाल करना सीख सकता है। आपके पास मानव शरीर के मूलभूत पक्षों की जानकारी होनी चाहिए।
रेकी चिकित्सक मानव शरीर के विभिन्न ऊर्जा केंद्रों (सात प्राण ऊर्जा) को सक्रिय करता है। इसके साथ ही उपचार प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। इन ऊर्जा केंद्रों में असंतुलन आ जाने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यहां अध्ययन के चार स्तर हैं - प्रक्रिया का प्रारंभ, दिव्य दृष्टि/टेलीपथी, मनोचिकित्सीय सर्जरी तथा मास्टर। यहां चिकित्सक की हथेलियों से शक्ति प्रवाहित होती है तथा दूर से ही उपचार किया जाता है। यद्यपि इस पाठ्यक्रम को सिखाने के लिए कोई सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थान नहीं है, लेकिन कुछ प्राइवेट संस्थाएं उभरकर सामने आ रही हैं, जो विभिन्न स्तर पास कर लेने के बाद प्रमाण-पत्र देती है। एक्युपंक्च र अन्य वैकल्पिक चिकित्सा है। एक्युपंक्च र के पारंपरिक चीनी सिद्धांत में शरीर की प्रतिकूल शक्तियों - 'यिन' और 'यंग' के बीच संतुलन के बारे में बताया गया है। रोग का उपचार करने के लिए मानव शरीर के कुछ चैनलों के निश्चित बिंदुओं को उद्दीप्त किया जाता है। आजकल इन्हें इलेक्ट्रिकल-मैकेनिकल हाइपर प्वॉइंट कहा जाता है। हर रोग के लिए एक्युपंक्च र की उपयोगिता ज्ञात नहीं है। हां, यह साठ प्रतिशत सफलता दर के साथ पुराने दर्द से ग्रस्त मामलों में इस्तेमाल की जाती है। बेहतर है कि इसके साथ-साथ नियमित चिकित्सा का पाठ्यक्रम भी किया जाए।
नैचुरोपैथी में विकारों के उपचार में विभिन्न प्राकृतिक दुष्प्रभाव-रहित इलाज किए जाते हैं। इसके अंतर्गत, हाइड्रोपैथी, इन्फ्रारैड, मड, मालिश, चुंबक-चिकित्सा पद्धति आदि इस्तेमाल की जाती हैं। हैल्थ रिसॉर्ट, क्लबों, अस्पतालों तथा योग-केंद्रों में इस क्षेत्र से संबंधित रोजगार की काफी संभावनाएं हैं। रेकी और अन्य वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों के लिए चिकित्सक द्वारा कम-ज्यादा, सभी तरह से फीस ली जाती है। यह फीस घंटे के हिसाब से सत्र या पूरी चिकित्सा-पद्धति की अवधि के हिसाब से वसूल की जाती है। फीस अनुभव, ज्ञान और चिकित्सक के स्थल पर निर्भर करती है। अधिकांश रेकी मास्टर्स तथा अन्य वैकल्पिक चिकित्सा-व्यवसायी कक्षाएं भी लेते हैं। जब व्यक्ति की इस क्षेत्र में धाक जम जाती है तब आय की कोई सीमा नहीं रहती। यद्यपि शुरू-शुरू में वैकल्पिक चिकित्सा की ओर बहुत कम लोग आते थे, तथापि एलोपैथिक और अन्य आधुनिक चिकित्सा संबंधी रूपों के बारे में बढ़ते संभ्रम के कारण पूर्वी और पश्चिमी देशों के लोग वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों की ओर अधिकाधिक संख्या में लौट रहे हैं। भारतीय वैकल्पिक चिकित्सा बोर्ड द्वारा चालित अंतर्राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय अकादमी है। भारत व विदेशों में प्राकृतिक एवं पूरक चिकित्सा और स्वास्थ्य संवर्धन के क्षेत्र में यह अग्रणी संस्था है। डिग्री कोर्स- प्रत्येक पाठ्यक्रम दो वर्ष की अवधि का है तथा न्यूनतम योग्यता इंटरमीडिएट या बारहवीं कक्षा या समतुल्य है। पाठ्यक्रम इस प्रकार है - प्राकृतिक चिकित्सा और योग, रेकी उपचार, एक्युप्रेशर और चुंबक चिकित्सा, औषधि-हर्बलिज्म, वैद्युत-होम्योपैथी, जैव-कीमिक (रसायन), हाइप्नो-थेरैपी, मेडिकल ज्योतिष विद्या, एरोमा (सुगंध) चिकित्सा, रेडियोस्थिशिया और रेडियोनेक्सि, बैच-फ्लॉवर। स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम : ओआईयूएएम तीन स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलाता है –
1.वैकल्पिक चिकित्सा में डॉक्टर,
2. वैकल्पिक चिकित्सा, दर्शनशास्त्र में डॉक्टर,
3. वैकल्पिक चिकित्सा विज्ञान में डॉक्टर। अधिक जानकारी के लिए यहां संपर्क किया जा सकता है –

इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ आल्टरनेटिव मेडिसिन, 80, चौरंगी रोड, कोलकाता-700020

Thursday, March 9, 2017

रानी पद्मिनी

रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चितौड़ की राजगद्दी पर बैठा | रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी | उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी | उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी | उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया |
तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे | सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि " मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है | " रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी | सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अल्लाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है |
अल्लाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया |

चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिती की तरह किया | रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया | आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया | सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |
रत्नसिंह को कैद करने के बाद अल्लाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा | रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे | रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया |
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया |इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अल्लाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे | अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे | सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया | 
इस हार से अल्लाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली | आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया | जौहर के लिए गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया | महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -
बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ||

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे | 
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |

चितौड़ यात्रा के दौरान पद्मिनी के महल को देखकर स्व.तनसिंह जी ने अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त किया -
यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था | अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |
कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी |

Wednesday, March 8, 2017

अब कविता लिखने के नाम से कोई जेल नहीं जाता।

अब कविता लिखने के नाम से कोई जेल नहीं जाता। किसी की कविता सुनकर राजनीति में बदलाव नहीं आता और हम देख रहे हैं कि कविता के विषयों में हमारे देश के बहुत ज़रूरी मुद्दे अब भी गायब ही हैं। कविता करना पेटभर खाने के बाद की डकार की मानिंद हो गया है। हमारे सामने की ये बेरोजगारी, पूंजीवाद, जातिवाद, आतंकवाद, भुखमरी, साम्प्रदायिकता जैसी बड़ी मुश्किलें अब कविता के इस वर्तमान परिदृश्य को सीधे-सीधे चिढ़ा रही है।आदमी अपने स्वार्थ के खातिर लगातार टूट रहा है। हमने देश की गुलामी और फिर इस आज़ादी के अंदाज़े खो दी हैं। जाने कब तक ये आदमी गिरेगा। इस दौर में हमारे कहने और करने में लगातार फरक आता जा रहा है। भौतिकता की अंधी दौड़ में हम बस भागे जा रहे है। एकदम बिना उद्देश्य के। ये विचार समग्र रूप से निकल आये तब जब शहीद दिवस की पूर्व संध्या पर चित्तौड़गढ़ की मधुवन कोलोनी में एक काव्य गोष्ठी संपन्न हुयी। आयोजन में मुख्य अतिथि टीकमगढ़ के रचनाकार लाल सहाय, विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद डॉ. ए.एल. जैन और महेंद्र पोद्दार थे। अध्यक्षता साहित्यकार डॉ. सत्यनारायण व्यास ने की. नन्दकिशोर निर्झर की मेवाड़ी में की गयी सरस्वती वंदना और कुछ मुक्तकों से गोष्ठी का आगाज़ हुआ। इससे पहले मेजबान डॉ.ए.बी.सिंह ने सभी कवियों और अतिथियों का स्वागत किया।  

दलित साहित्य

दलित साहित्य दलित प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति है। जब ‘दलित’ शब्द साहित्य से जुड़ता है तो एक ऐसी साहित्यिक धारा की ओर संकेत करता है जो मानवीय सरोकार और सम्वेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यक्ति बनता है। यह एक ऐसा साहित्य है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा और शोषण के विरूद्ध साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है। साहित्यकार कोई विशिष्ट व्यक्ति नहीं होता, वह अपने अस्तित्व के लिए पग-पग पर समाज के ऊपर निर्भर करता है। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व ही नहीं होता, दलित साहित्य की मूल भावना यही है। इसलिए यह सामाजिक प्रतिबद्धता का साहित्य है। दलित चिंतको की यह प्रतिबद्धता मानवतावाद और समाजिकता के प्रति न्याय है। 

वास्तव में ‘दलित’ शब्द का अर्थ जाति-बोधक नहीं बल्कि समूह की अभिव्यंजना देता है। सामान्य अर्थो में दलित वह है जो भारतीय समाज व्यवस्था में अस्पृश्य माना गया, बेगार करते, कम मूल्य पर श्रम करते श्रमिक, बंधुआ मजदूर, जिसका आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक शोषण हुआ है वह दलित की परिधि में आता है। दलित चेतना का सरोकार इस प्रश्न के साथ जुड़ा है कि‘मैं कौन हूँ।’ ‘मेरी पहचान क्या है?’  दलित साहित्य केवल दलितों के अधिकार एवं मूल्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक संदर्भों के साथ जुड़कर समूचे समाज की अस्मिता और मूल्यों की पहचान बनता है। दलित साहित्य मुक्ति आन्दोलन का एक हिस्सा है। शब्द की आग से ऊर्जा ग्रहण कर दलित रचनाकारों ने अपने आंदोलन को गहरे सरोकारों से जोड़ा है। इसीलिए दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु मानव है। सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार बाबूराम बागूल का मानना है कि-मनुष्य की मुक्ति को स्वीकार करने वाला, मनुष्य को महान बनाने वाला, वंश, वर्ण और जाति श्रेष्ठत्व का प्रबल विरोध करने वाला दलित साहित्य ही हो सकता है। दलित साहित्य का मूल स्वर ‘विद्रोह चेतना’ का यह वह क्रांतिकारी उभार था, जिसमें दलित-विमर्श की शुरूआत होती है। डॅा. गंगाधर पानतावणे दलित साहित्य को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं‘दलित साहित्य समाज का दर्पण है, जो हमने देखा, अनुभव किया, भोगा, जाना, समझा उसका अंकन उत्कटता पूर्वक किया। दलित्व का निर्मूलन हमारे साहित्य का हथियार है। इसीलिए सर्वव्यापी क्रांति का आह्वान करता है।’  रमणिका गुप्ता का मानना है कि-‘दलित साहित्य कहीं भी और किसी भी रूप में भी मनुष्य पर अत्याचार व शोषण का विरोध करता है। यह साहित्य समाज को मनुष्य के हित में बदलने का पक्षधर साहित्य है। एक नये मानवीय समाज के निर्माण का पक्षधर है, जिसमें रंग, वर्ण, जाति, लिंग या सामाजिक सत्ता के आधार पर मनुष्यों के बीच भेद-भाव न हो। साहित्य, शोषण पर आधारित व्यवस्था का विरोधी है और सच्ची मानव समता पर आधारित व्यवस्था के निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध है।’ 

वर्तमान हिन्दी का दलित लेखक अपनी रचना के माध्यम से निरंतर नये मानदण्ड निर्मित कर रहे हैं। यह साहित्य समाज के दुःख-दर्द से जूझकर मनुष्य की लड़ाई लड़ता है। इसके उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए मोहनदास नैमिशराय कहते हैं-‘शोषक वर्ग के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए समाज से समता, बंधुता तथा मैत्री की स्थापना करना ही दलित साहित्य का उद्देश्य है।’  हिन्दी में रचित दलित साहित्य इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। साहित्य में सर्वप्रथम मराठी में दलित विमर्श आया। हिन्दी में दलित साहित्य की गूँज सन् 1980 के बाद ही सुनाई देनी शुरू हुई और आज यह लेखन मुख्य धारा में है। इसका अनुमान हंस के संपादक राजेन्द्र यादव की इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘यदि हमारा साहित्य इसके लिए जगह नहीं छोड़ता तो वह शीघ्र ही अप्रसंगिक हो जायेगा।’  यादव जी का यह कथन हिन्दी में दलित चिन्तन की सशक्त अभिव्यक्ति और प्रबल हस्ताक्षेप को रेखांकित करता है। डॅा. वीरेन्द्र सिंह यादव अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य के विविध आयाम’  में दलित चिंतन एवं परम्परा को साहित्य लेखन के संदर्भ में एक विशेष निष्कर्ष निकालते हुए यह कहते हैं कि वर्तमान हिन्दी साहित्य में दलित  विमर्श की तीन धाराएँ परिलक्षित होती है। प्रथम श्रेणी  में वे लेखक आते हैं जिनका जन्म दलित जातियों में हुआ है। जिनके पास स्वानुभूति का विराट संसार है। दूसरी श्रेणी में सवर्ण लेखक आते हैं। जिन्होंने दलितों का चित्रण सौंदर्य की विषय-वस्तु मानकर किया है।  तीसरी श्रेणी उन प्रगतिशील लेखकों की है जो दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त कर उन्हें सर्वहारा की स्थिति में देखते हैं। दलित हित चिंतन का साहित्य कौन-सा है। यह अभी तक विवाद का विषय बना हुआ है। इस साहित्य लेखन में जातिगत विभाजन केन्द्र में है। दलित साहित्य और दलित चिंतन से जुड़े अधिकांश मनीषियों का मानना है कि वास्तविक दलित साहित्य वही है जो दलितों द्वारा लिखा गया है। गुलामी की यातना को जो सहता है वही इसे जानता है और जो भोगता है वही पूरा सच कहता है सचमुच राख ही जानती है, जलने का अनुभव कोई और नहीं। 

हिन्दी दलित साहित्य में स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व प्रेमनंद, निराला, यशपाल प्रमुख कहानीकार हैं। स्वांतत्रयोत्तर कथाकारों में मार्कण्डेय, अमरकांत, राजेन्द्र यादव, नैमिशराय, ओम प्रकाश बाल्मीकि, पुन्नी सिंह, प्रेम कपाड़िया, डॅा. दयानंद बटोही, डॅा. तेज सिंह, बाबूलाल खंडा, रामचंद आदि चर्चित रचनाकार है। महिला कथाकारों में उषा चन्द्रा, रमणिका गुप्ता, रजत रानी ‘मीनू’, मैत्रेयी पुष्पा, सुभद्रा कुमारी आदि प्रमुख हैं। प्रेमचंद साहित्य द्वारा छुआछूत, जात-पात आदि का विरोध करते हैं। उनकी कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ में ब्राह्मणवाद पर प्रहार दर्शाया गया है। ‘सदगति’ में चमारों पर हो रहे शोषण का सजीव अंकन हुआ है। वही ‘पूस की रात’, ‘कफन’ में दलित संवेदना की झलक दिखायी पड़ती है। इसके अतिरिक्त ‘मन्त्र’, ‘दूध का दाम’, ‘मन्दिर’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘लांछन’, ‘सौभाग्य के कोड़े’, ‘शूद्र’, ‘झूठ’, ‘मुक्तिमार्ग’ ऐसी कहानियाँ है जिनसे पता चलता है कि प्रेमचंद दलित आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान देते हैं। वास्तव में प्रेमचंद की रचनाओं में दलित शब्द सीमित न होकर शुद्र, अछूत, धोबी, चमार, भंगी, उपेक्षित वर्ग तक विस्तृत है, जो शोषित है, पद दलित है। इस पर टिप्पणी करते हुए करूणा शंकर उपाध्याय ने कहा है-‘जब हम दलित विमर्श के आलोक में प्रेमचंद के कथा साहित्य पर पुनः दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उसके विस्तृत कैनवास में भारतीय समाज का हरेक अंग उपस्थित है। इसके भीतर प्रविष्ट होते ही धर्म से पीड़ित, समाज द्वारा उपेक्षित, गांव के सीमान्त पर फैंका गया तथा कथित अछूत समाज, रोटी, कपड़ा, मकान के लिए जद्दोजहद  करता हुआ मजदूर वर्ग तथा जीवन की तमाम सुविधाओं से वंचित और युगों से पद दलित अमानवीय स्थितियों में जीने के लिए बाध्य अभिशप्त मनुष्यता अपने समूचे पाप-पुण्य के साथ उपस्थित मिलेगी।’  

इसी क्रम में निराला कृत ‘चतुरी चमार’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘कुल्लीभाट’ आदि प्रसिद्ध दलित कथा रचनाएँ है जिनमें दलित चेतना का सजीव अंकन हुआ है। वही यशपाल कृत ‘परदा’ कहानी भी दलित चेतना से ओत-प्रोत गहरी संवेदना का सृजन करती है। राहुल जी की ‘पुजारी’, ‘प्रभा और सुमेर’ भी दलित संवेदना को वाणी देने वाली कहानियां है। एक साहित्यकार अपनी रचनाओं में यथार्थ को सामने लाने में विश्वास रखता है। वह जात-पात का विरोध, शोषण, अन्याय, अत्याचार आदि का प्रतिरोध और समतामूलक समाज की स्थापना पर बल देता है। सदियों से समाजिक विसंगतियों ने उसे विद्रोही बना दिया है। इसी संदर्भ में रमणिक जी ने ठीक कहा है कि-”दलित कहानी सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाती, बल्कि कुछ सवाल भी पूछती है।“  

दलित रचनाकारों की कहानियों में जहाँ सामाजिक बदलाव का स्वर है वहीं आक्रोश का भाव भी है, जो सदियों से उन्हें सहना पड़ा है। उदय प्रकाश की ‘टेपचू’ कहानी में टेपचू दलित पात्र है जो अन्याय के विरूद्ध खड़ा है। रमणिका गुप्ता की ‘बहू-जुठाई’ में शोषण के खिलाफ संघर्ष की यथार्थ झांकी प्रस्तुत हुई है। मार्कण्डेय की ‘हल्योग’ में चमार का अध्यापक बन जाना एक अनहोनी घटना को दर्शाया है। ओम प्रकाश वाल्मीकि का ‘सलाम’ एक चर्चित कहानी संग्रह है। इस संग्रह की सभी कहानियाँ दलितों के जीवन संघर्ष-व्यथा को प्रस्तुत करती है। राजेन्द्र यादव कृत ‘दो दिवंगत’ में सवर्णों के संकीर्ण दृष्टिकोण का प्रमाण मिलता है। हिन्दी साहित्य के अन्य कहानीकारों में दयानन्द बटोही कृत ‘सुरंग’ और ‘सुबह से पहले’ में दलित विरोधी चेतना, एवं दलित छात्रों से भेदभाव का अंकन हुआ है। प्रेम कापडिया ने ‘हरिजन’ कहानी में देवदासी प्रथा और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा किया है। इसी तरह रामचंद्र की ‘पलायन’, भागीरथ मेघवाल की ‘सूरज की चिता’, सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात’, ‘छूत कर दिया’, श्यौराज सिंह बेचैन की ‘अस्थियों के अक्षर’, ‘शोध प्रबंध’, ‘रावण’, मोती राम की ‘खुरपी’ चर्चित कहानियां है जो दलित चेतना के मुख्य संदर्भों को प्रस्तुत करती है। वास्तव में ‘दलित साहित्यकार जहाँ अपनी कृतियों में समानता, भाईचारे और आजादी का लक्ष्य हासिल करने हेतु जाति, नस्ल या रंग के आधार पर किसी भी विभेद को नकारता है, वही वह धर्म, सत्ता दर्शन अथवा जन्म के आधार पर किसी श्रेष्ठता अथवा निकृष्टता की अवधारणा को भी अस्वीकारता है। वह केवल दलित के लिए नहीं पूरे समाज के इन विभेदों को मिटाना चाहता है।  श्री जय प्रकाश् कद्रम के शब्दों में  ‘बीसवीं सदी के हिन्दी कथा साहित्य का उज्जवल पक्ष यही है कि कुलीनता और अभिजात्य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्य की पीड़ा दर्द को समझने की चेष्टा के साथ अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष को भी प्रतिपाद्य बनाया है।’  

बोस्की मैंगी 
प्रवक्ता हिन्दी विभाग 
हिन्दु कन्या महाविद्यालय, 
धारीवाल (गुरदासपुर)  
ई-मेल:boskybosky2@gmail.com

महिला कहानीकार में अमृता प्रीतम, मन्नू भण्डारी, महाश्वेता देवी, उमा चंद्रा, कुसुम वियोगी, मैत्रेयी पुष्पा आदि प्रमुख ने दलित साहित्य लेखन में अपना योगदान दिया। सुभद्रा कुमारी चौहान का दलित प्रेम इन पंक्तियों में दर्शनीय है‘मैं अछूत मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है, किन्तु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है।’  मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य का परिवेश ग्रामीण, पिछड़ा और दलित समाज है। ‘छुटकारा’ कहानी अस्पृश्यता की समस्या पर आधारित है। ‘मन नांहि दस बीस’ में भी जाति-भेद, अस्पृश्यता पर प्रकाश डाला गया है। ‘अछूत स्त्रियाँ मन्दिर में’ लेख में मैत्रेयी पुष्पा लिखती है‘मन हुआ देखे तो सही, जिन मन्दिरों में जाने से हमें रोका जाता है, वहाँ है क्या? वे देवी-देवता कैसे हैं जो हमारे चेहरे-मोहरे देखे बिना ही बहिष्कार पर उतर आए। हम बेजुबान रहे, नहीं कह सके कि यह पक्षपात आदमी ने बनाया है कि भगवान तुमने?’  इस प्रकार लेखिका ने अपनी लेखनी के माध्यम से दलितों पर हो रहे अन्याय का यथार्थ पक्ष समाज के समक्ष प्रस्तुत कर उसे दूर करने के लिए एवं सोचने के लिए बाध्य किया है। इसी क्रम में उषा चंद्रा की कहानी ‘लोकतन्त्र में बकरी’ में संदेश दिया है कि दलितों की समाजिक आर्थिक दशा तभी सुधर सकती है जब उनके बच्चे खूब पढ़े और औरतों को भी समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्त हो। 

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी की दलित कहानियां वर्तमान समस्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं का चित्रण ही नहीं करती बल्कि समाज में फैली कुरीतियों, शोषण, अन्याय से मुक्ति के विद्रोह और संघर्ष कर समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत है। अतः दलित साहित्य को संकीर्णता का साहित्य मानना हमारी भूल होगी। क्योंकि साहित्य का काम समाज की संवेदनाओं को झकझोंर कर उसमें प्रगतिशील चेतना का संचार करना एवं उसे एक दिशा देना है। इस दृष्टिकोण से वर्तमान हिन्दी दलित कथा साहित्य इस काम को पूरी श्रद्धा एवं निष्ठा से अंजाम दे रहा है। 

संदर्भ सूची

  1.         हिन्दी आलोचना का दलित पक्ष (लेख): रूपेश कुमार सिंह 
  2.  . दलित साहित्य की अंतः धारा और उसका सामाजिक यथार्थ (लेख)ःओम प्रकाश वाल्मीकि
  3.  . वही
  4.  . दलित साहित्य की परिभाषा और सीमाएँ (लेख): रमणिका गुप्ता  
  5.  . साहित्य और संस्कृति मंे दलित अस्मिता की पहचान के सवाल: मोहन नैमिशराय, नया पथ,             अंक 24-25, जुलाई-सितम्बर 1977, पृ.104-105.  
  6.  . दलित साहित्य बौद्धिक विमर्श के केन्द्र में हैं (लेख): राजेन्द्र यादव, संपा: पुन्नी सिंह, कमला                    प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ.280.   
  7.  . प्रेमचंद: साहित्य और संवेदना: पी.वी. विजयन (सं.) पृ.88.  
  8.  . दलित-चेतना: साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार: रमणिका गुप्ता, पृ.93.  
  9.  . दलित अस्मिता का विमर्श (लेख): ज्ञानेन्द्र कुमार, पृ.74. शब्द योग सितम्बर 2009. 
  10.  . हिन्दी कहानियों में दलित चेतना (लेख): सुरेन्द्र प्रसाद, युद्धरत आम आदमी, अंक 90, जनवरी-             मार्च 2008. 
  11.  . सुभद्रा कुमारी का दलित प्रेम: प्रभात दुबे, पृ.114, अक्षरा, जनवरी-फरवरी 2011.
  12.  . खुली खिड़कियाँ: अछूत स्त्रियाँ मन्दिर में ; मैत्रेयी पुष्पा, पृ.32. 

आज हमारा समाज धर्म और जातियों में इस प्रकार बंट गया है

आज हमारा समाज धर्म और जातियों में इस प्रकार बंट गया है कि हम एक-दूसरे से ही खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं लेकिन हमें यह समझना होगा कि यदि परस्पर भरोसा कायम नहीं रहा तो केवल तकनीक और वैज्ञानिक प्रगति के सहारे ही हम सुखी नहीं रह सकते। उन्होंने कहा कि हजारों वर्षों के अन्याय और शोषण के बाद अब दलित और आदिवासी स्वर उठने लगे हैं तो हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते बल्कि हमें उन स्वरों की संवेदना को समझना चाहिए। जब तक समाज के तमाम तबकों की भागीदारी तय नहीं होगी, समाज और देश की एक बेहतर और संपूर्ण तस्वीर संभव नहीं है। अटलानी के रचनाकर्म पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नागर ने कहा कि वर्तमान में व्यक्ति तमाम तरह के अंतर्विरोधों से घिरा हुआ है और हमारे आचरणों को परिभाषित करने वाली कोई सरल विभाजक रेखा यहां नहीं है। व्यवस्था की विसंगतियों ने ईमानदार आदमी के जीवन को दूभर बना दिया है और आदर्शवाद के सहारे हमारी बुनियादी दिक्कतें हल नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज भारतीय भाषाओं के साथ षडयंत्रा करते हुए यह कहा जा रहा है कि जो भी अच्छा लिखा जा रहा है, वह केवल अंग्रेजी में लिखा जा रहा है। हमें इस साजिश को समझना होगा और इस चुनौती का जवाब अपनी रचनात्मकता और सक्रियता से देना होगा। 

मुख्य वक्ता एवं प्रख्यात साहित्यकार श्योराज सिंह बेचैन ने कहा कि देश के बौद्धिक जगत में कभी आदिवासी और दलित नहीं रहे और जो लोग रहे, उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं किया लेकिन यह देश दलितों और आदिवासियों का भी है। सैकड़ों सालों से हमने आदिवासी-दलितों के संदर्भ में जो क्षति पहुंचाई है, उसकी पूर्ति की इच्छा भी कभी तो हममें जागनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि कोई साहित्यकार अपना भोगा हुआ लिखता है तो निस्संदेह उसकी प्रामाणिकता सर्वाधिक कही जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि देश में कोई भी जाति कमजोर होगी, तो देश कमजोर होगाा। 

पुरस्कार से अभिभूत भगवान अटलानी ने कहा कि आदर्श और यथार्थ के बीच दूरियां नहीं होनी चाहिए। तमाम यथार्थ को भोगते हुए और उससे जूझते हुए हमें एक आदर्श स्थापित करना चाहिए ताकि हम समाज को अच्छा बनाने की दिशा में एक योगदान दे सकें। आदर्शों की ऊंचाइयों पर व्यक्ति पहुंचे, मेरा समग्र साहित्य इसी दिशा में एक समर्पण है। 

पत्र

प्रिय भारतीय पुलिस सेवा (उत्तर प्रदेश),

उम्मीद है मुकुल द्विवेदी की मौत के सन्नाटे का कुछ कुछ हिस्सा आप सभी के आस पास भी पसरा होगा। उनकी यादें रह रहकर आ जा रही होंगी। कोई पुरानी बात याद आ रही होगी, कुछ हाल की बात याद आ रही होगी। ट्रेनिंग के समय अकादमी की चोटी से हैदराबाद देखना याद आ रहा होगा। किसी को मथुरा दर्शन के बाद वहाँ की ख़ातिरदारी याद आती होगी। कुछ आदर्श याद आते होंगे।बहुत सारे समझौते याद आते होंगे।

मैं यह पत्र इसलिए नहीं लिख रहा कि एक आई पी एस अधिकारी मुकुल द्विवेदी की मौत हुई है। मुझे सब इंस्पेक्टर संतोष यादव की मौत का भी उतना ही दुख है। उतना ही दुख ज़ियाउल हक़ की हत्या पर हुआ था।उतना ही दुख तब हुआ था जब मध्य प्रदेश में आई पी एस नरेंद्र कुमार को खनन माफ़िया ने कुचल दिया था। दरअसल कहने के लिए कुछ ख़ास है नहीं लेकिन आपकी चुप्पी के कारण लिखना पड़ रहा है। ग़ैरत और ज़मीर की चुप्पी मुझे परेशान करती है। इसी वजह से लिख रहा हूँ कि आप लोगों को अपने मातहतों की मौत पर चुप होते तो देखा है मगर यक़ीन नहीं हो रहा है कि आप अपने वरिष्ठ, समकक्ष या कनिष्ठ की मौत पर भी चुप रह जायेंगे।

मैं बस महसूस करना चाहता हूँ कि आप लोग इस वक्त क्या सोच रहे हैं। क्या वही सोच रहे हैं जो मैं सोच रहा हूँ ? क्या कुछ ऐसा सोच रहे हैं जिससे आपके सोचने से कुछ हो या ऐसा सोच रहे हैं कि क्या किया जा सकता है। जो चल रहा है चलता रहेगा। मैं यह इसलिए पूछ रहा हूँ कि आपके साथी मुकुल द्विवेदी का मुस्कुराता चेहरा मुझे परेशान कर रहा है। मैं उन्हें बिलकुल नहीं जानता था। कभी मिला भी नहीं। लेकिन अपने दोस्तों से उनकी तारीफ सुनकर पूछने का मन कर रहा है कि उनके विभाग के लोग क्या सोचते हैं।

मैंने कभी यूपीएससी की परीक्षा नहीं दी। बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं था इसलिए किसी प्रकार का भ्रम भी नहीं था। जब पढ़ना समझ में आया तब तक मैं जीवन में रटने की आदत से तंग आ गया था। जीएस की उस मोटी किताब को रटने का धीरज नहीं बचा था। इसका मतलब ये नहीं कि लोक जीवन में लोकसेवक की भूमिका को कभी कम समझा हो। आपका काम बहुत अहम है और आज भी लाखों लोग उस मुक़ाम पर पहुँचने का ख़्वाब देखते हैं। दरअसल ख़्वाबों का तआल्लुक़ अवसरों की उपलब्धता से होता है। हमारे देश की जवानियाँ,जिस पर मुझे कभी नाज़ नहीं रहा,नंबर लाने और मुलाज़मत के सपने देखने में ही खप जाती हैं। बाकी हिस्सा वो इस ख़्वाब को देखने की क़ीमत वसूलने में खपा देती हैं।जिसे हम दहेज़ से लेकर रिश्वत और राजनीतिक निष्ठा क्या क्या नहीं कहते हैं।

मैं इस वक्त आप लोगों के बीच अपवादस्वरूप अफ़सरों की बात नहीं कर रहा हूं। उस विभाग की बात कर रहा हूँ जो हर राज्य में वर्षों से भरभरा कर गिरता जा रहा है। जो खंडहर हो चुका है। मैं उन खंडहरों में वर्दी और कानून से लैस खूबसूरत नौजवान और वर्दी पहनते ही वृद्ध हो चुके अफ़सरों की बात कर रहा हूँ जिनकी ज़िले में पोस्टिंग होते ही स्वागत में अख़बारों के पन्नों पर गुलाब के फूल बिखेर दिये जाते हैं। जिनके आईपीएस बनने पर हम लोग उनके गाँव घरों तक कैमरा लेकर जाते हैं। शायद आम लोगों के लिए कुछ कर देने का ख़वाब कहीं बचा रह गया है जो आपकी सफलता को लोगों की सफलता बना देता होगा।इसलिए हम हर साल आपके आदर्शों को रिकार्ड करते हैं। हर साल आपको अपने उन आदर्शों को मारते हुए भी देखते हैं।

क्या आप भारतीय पुलिस सेवा नाम के खंडहर को देख पा रहे हैं? क्या आपकी वर्दी कभी खंडहर की दीवारों से चिपकी सफ़ेद पपड़ियों से टकराती है? रंग जाती है? आपके बीच बेहतर,निष्पक्ष और तत्पर पुलिस बनने के ख़्वाब मर गए हैं। इसलिए आपको एस एस पी के उदास दफ्तरों की दीवारों का रंग नहीं दिखता। मुझे आपके ख़्वाबों को मारने वाले का नाम पता है मगर मैं मरने और मारे जाने वालों से पूछना चाहता हूँ। आपके कई साथियों को दिल्ली से लेकर तमाम राज्यों में कमिश्नर बनने के बाद राज्यपाल से लेकर सांसद और आयोगों के सदस्य बनने की चाह में गिरते देखा हूँ। मुझे कोई पहाड़ा न पढ़ाये कि राजनीतिक व्यवस्थाएँ आपको ये इनाम आपके हुनर और अनुभव के बदले देती हैं।

आप सब इस व्यवस्था के अनुसार हो गए हैं जो दरअसल किसी के अनुसार नहीं है। आप सबने हर जगह समर्पण किया है और अब हालत ये हो गई कि आप अपने ग़म का भी इज़हार नहीं कर सकते। गर्मी है इसलिए पता भी नहीं चलता होगा कि वर्दी पसीने से भीगी या दोस्त के ग़म के आँसू से। मुझे कतर्व्य निष्ठा और परायणता का पाठ मत पढ़ाइये। इस निष्ठा का पेड़ा बनाकर आपके बीच के दो चार अफसर खा रहे हैं और बाकी लोग खाने के मौके की तलाश कर रहे हैं।

मामूली घटनाओं से लेकर आतंकवाद के नाम पर झूठे आरोपों में फँसाये गए नौजवानों के किस्से बताते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा के खंडहर अब ढहने लगे हैं। दंगों से लेकर बलवों में या तो आप चुप रहे, जाँच अधूरी की और किसी को भी फँसा दिया। आपने देखा होगा कि गुजरात में कितने आई पी एस जेल गए। एक तो जेल से बाहर आकर नृत्य कर रहा था। वो दृश्य बता रहा था कि भारतीय पुलिस सेवा का इक़बाल ध्वस्त हो चुका है। भारतीय पुलिस सेवा की वो तस्वीर फ्रेम कराकर अपने अपने राज्यों के आफिसर्स मेस में लगा दीजिये। पतन में भी आनंद होता है। उस तस्वीर को देख आपको कभी कभी आनंद भी आएगा।

रिबेरो साहब के बारे में पढ़ा था तब से उन्हीं के बारे में और उनका ही लिखा पढ़ रहा हूँ। बाकी भी लिखने वाले आए लेकिन वो आपके नाम पर लिखते लिखते उसकी क़ीमत वसूलने लगे। पुलिस सुधार के नाम पर कुछ लोगों ने दुकान चला रखी है। इस इंतज़ार में कि कब कोई पद मिलेगा। मैं नाम लूं क्या ? एक राज्य में बीच चुनावों में आपके बीच के लोगों की जातिगत और धार्मिक निष्ठाओं की कहानी सुन कर सन्न रह गया था। बताऊँ क्या? क्या आपको पता नहीं? अभी ही देखिये कुछ रिटायर लोग मुकुल की मौत के बहाने पुलिस सुधार का सवाल उठाते उठाते सेटिंग में लग गए हैं। ख़ुद जैसे नौकरी में थे तो बहुत सुधार कर गए ।

आपकी सीमायें समझता हूँ। यह भी जानता हूँ कि आपके बीच कुछ शानदार लोग हैं। कुछ के बीच आदर्शवाद अब भी बचा है। बस ये पत्र उन्हीं जैसों के लिए लिख रहा हूँ और उन जैसों के लिए भी जो पढ़ कर रूटीन हो जायेंगे। इन बचे खुचे आदर्श और सामान से एक नई इमारत बना लीजिये और फिर से एक लोक विभाग बनिये जिसकी पहचान बस इतनी हो कि कोई पेशेवर और निषप्क्ष होने पर सवाल न उठा सके। अपनी खोई हुई ज़मीन को हासिल कीजिये।अकेले बोलने में डर लगता है तो एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बोलिये।

इसके लिए जरूरी है कि आप पहले मथुरा के ज़िलाधिकारी और एस एस पी से यारी दोस्ती में ही पूछ लीजिये कि आखिर वहाँ ये नौबत क्यों आई। किसके कहने पर हम ऐसे सनकी लोगों को दो से दो हज़ार होने दिये। वे हथियार जमा करते रहे और हम क्यों चुप रहे। क्या मुकुल व्यवस्था और राजनीति के किसी ख़तरनाक मंसूबों के कारण मारा गया? क्या कल हममें से भी कोई मारा जा सकता है? मुकुल क्यों मारा गया? कुछ जवाब उनके होंठों पर देखिये और कुछ उनकी आँखों में ढूंढिये। क्या ये मौत आप सबकी नाकामी का परिणाम है? मथुरा के ज़िलाधिकारी, एस एस पी जब भी मिले, जहाँ भी मिले, आफ़िसर मेस से लेकर हज़रतगंज के आइसक्रीम पार्लर तक, पूछिये। ख़ुद से भी पूछते रहिए।

पता कीजिये कि इस घटना के तार कहाँ तक जाते हैं। नज़र दौड़ाइये कि ऐसी कितनी संभावित घटनाओं के तार यहाँ वहाँ बिखरे हैं। राजनीतिक क़ब्ज़ों से परेशान किसी ग़रीब की ज़मीन वापस दिलाइये। संतोष यादव और मुकुल द्विवेदी के घर जाइये। उनके परिवारों का सामना कीजिये और कहिये कि दरअसल साहब से लेकर अर्दली तक हम अतीत, वर्तमान और भावी सरकारों के समझौतों पर पर्दा डालने के खेल में इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि हम सभी को मरा हुआ मान लिया जाना चाहिए। हम सबको जीते जी मुआवज़ा मिल जाना चाहिए।

नहीं कहने की लाचारी से निकलिये साहब लोग। रिटायर लोग के भरोसे मत रहिए। बोलने की जगह बनाइये। आपकी नौकरी हमारी तरह नहीं है कि दो मिनट में चलता कर दिये गए। हममें से कई फिर भी बहुत कुछ सबके लिए बोल देते हैं। आप सरकारों के इशारों पर हमारे ख़िलाफ़ एफ आई आर करते हैं फिर भी हम बोल देते हैं। राना अय्यूब की गुजरात फाइल्स मँगाई की नहीं। आप कम से कम भारतीय पुलिस सेवा के भारतीय होने का फ़र्ज तो अदा करें। आप हर जगह सरकारों के इशारों पर काम कर रहे हैं। कभी कभी अपने ज़मीर का इशारा भी देख लीजिये।

तबादला और पदोन्नति के बदले इतनी बड़ी क़ीमत मत चुकाइये। हम सही में कुछ राज्यों के राज्यपालों का नाम नहीं जानते हैं। कुछ आयोगों के सदस्यों का नाम नहीं जानते हैं। इन पदों के लिए चुप मत रहिए। सेवा में रहते हुए लड़िये।बोलिये। इन समझौतों के ख़िलाफ़ बोलिये। अपने महकमे की साख के लिए बोलिये कि मथुरा में क्या हुआ, क्यों हुआ।बात कीजिये कि आपके बीच लोग किस किस आधार पर बंट गए हैं।डायरी ही लिखिये कि आपके बीच का कोई ईमानदारी से लड़ रहा था तो आप सब चुप थे । आपने अकेला छोड़ दिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा हो या पुलिस सेवा सबकी यही कहानी है।

वरना एक दिन किसी पार्क में जब आप रूलर लेकर वॉक कर रहे होंगे और कहीं मुकुल द्विवेदी टकरा गए तो आप उनका सामना कैसे करेंगे ? यार हमने तुम्हारी मौत के बाद भी जैसा चल रहा था वैसा ही चलने दिया। क्या ये जवाब देंगे? क्या यार हमने इसी दिन के लिए पुलिस बनने का सपना देखा था कि हम सब अपने अपने जुगाड़ में लग जायेंगे। मैं मारा जाऊँगा और तुम जीते जीते जी मर जाओगे। कहीं मुकुल ने ये कह दिया तो !

आप सभी की ख़ैरियत चाहने वाला मगर इसके बदले राज्यपाल या सांसद बनने की चाह न रखने वाला रवीश कुमार इस पत्र का लेखक हैं। डाकिया गंगाजल लाने गया है इसलिए मैं इसे अपने ब्लाग कस्बा पर पोस्ट कर रहा हूँ । आमीन !
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1. Cute: इस शब्द का प्रयोग मासूमियत को बताने के लिए किया जाता है. एक छोटे से बच्चे से लेकर बड़े तक के लिए इस शब्द का उपयोग होता है.
2. Adorable: इसका उपयोग किसी को आकर्षक बताने के लिए किया जाता है. वहीं, पूजनीय के लिए भी इस शब्द का उपयोग हो सकता है.
3. Attractive: किसी के लुक्स को अच्छा बताने के लिए सबसे ज्यादा उपयोग इस शब्द का होता है. 
4. Beautiful: किसी को सुंदर कहने के लिए यह शब्द क्लासिक है. इस शब्द का प्रयोग अंदरूनी और बाहरी,  सुंदरता के लिए होता है.
5. Pretty: यह शब्द प्यारे लुक्स के लिए प्रयोग में आता है. एेसी अपीयरेंस जो खूबसूरत से ज्यादा नाजुक हो. इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर लड़कियों के लिए और कभी-कभी बच्चों के लिए भी. खूबसूरत रंग व डिजाइन वाली ड्रेस को भी Pretty कहा जा सकता है.
6. Gorgeous: जब किसी के लुक्स को देखकर आपकी आंखें खुली रह जाएं, तब उसे क‍हिए Gorgeousइस शब्द का उपयोग खासतौर पर पावरफुल फिजिकल एट्रेक्शन के लिए किया जाता है और यह Beautiful से ज्यादा स्ट्रॉन्ग विशेषण होता है.
7. Exquisite: इसका प्रयोग नजाकत भरी खूबसूरती बताने के लिए होता है. अगर आपके फ्रेंड सर्कल में कोई खासतौर पर अपने कपड़ों या हेयरस्टाइल को लेकर संजीदा रहता है तो आप उसकी तारीफ इस शब्द के साथ कर सकते हैं. 
8. Stunning: यह शब्द होश उड़ा देने वाली खूबसूरती के इस्तेमाल होता है.
9. Radiant: इसका उपयोग उनके लिए किया जाता है जिनके चेहरे पर काफी चमक होती है. चमकदार व खुशमिजाज चेहरे की सुंदरता बताने के लिए यह सबसे अच्छा शब्द है. हालांकि प्रेग्नेंट लेडीज की खुशी बताने के लिए भी इस शब्द का इस्तेमाल होता है. 
10. Divine: यह शब्द ईश्वरीय सुंदरता को बताने के लिए किया जाता है. अगर आप किसी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो इसका मतलब होता है कि उसमें कुछ दिव्य या अलौकिक है. प्रकृति की शांत खूबसूरती बयां करने में इसे शब्द का प्रयोग करें. 

Tuesday, March 7, 2017

सफ़र की अभिव्यक्ति

मैं 40 साल का भारतीय पुरुष हूं जो दिल्ली में एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मा और पला-बढ़ा। अपने अतीत पर विचार करते हुए, मैं खुद को एक खुश रहने वाले बच्चे के रूप में पाता हूं। बचपन के मेरे ज्यादातर फोटोग्राफ में मैं मुस्करा रहा हूं जो एक तरफ मेरी प्रसन्नता और दूसरी ओर मेरे शर्मीले होने की झलक देता हैं। मैं पढ़ने में अच्छा था, खेलकूद में अच्छा था और जीवन का पूरा आनंद लेता था। जब 15-16 वर्ष की आयु में मैंने तरुण अवस्था में कदम रखा, तो मेरे साथ घर में और स्कूल में समस्या दिखनी शुरू हुई।
घर में, मेरे हीरो, मेरे पिता, जिन्होंने खुद को शिक्षा, अक्ल और मेहनत से एक मुकाम तक पहुंचाया था, आगे चलकर परेशान हो गए और इससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित हो गया। दुर्भाग्य से, वह अपनी व्यग्रताओं और तनावों के बारे में अपनी पत्नी और बच्चों के सामने बात करते रहते थे। मेरे सबसे बड़े भाई कॉलेज की पढ़ाई करने चले गए और मुझे व मेरे दूसरे भाई को पिता की लगातार डांट-फटकार का सामना करने के लिए छोड़ गए। कुल मिलाकर, परिवार ठीक से नहीं चल रहा था और घरेलू जीवन नर्क बन गया था। मुझे याद है कि मैं और मेरा दूसरा भाई हमारी पारिवारिक समस्याओं पर बात करते रहते और कभी मां तो कभी पिता को दोष देते, और उसके साथ ही, ग्लानि और शर्म की भावना भी हमारे मन में आ जाती कि हम ‘उतने अच्छे’ नहीं थे और उनको खुश नहीं रख पाते थे।
पिता से लगातार आलोचना और बेवजह क्रोध का हमारे मन पर सीधा असर पड़ा। मुझे याद है कि मुझे अपने निरर्थक हो जाने तथा परिवार पर एक बोझ बन जाने की अहसास होता था। मेरे पिता का यह सपना था कि पढ़ने-लिखने में सबसे तेज बच्चा होने के नाते मैं आईआईटी में पहुंचकर उनका सपना पूरा करूंगा। मैंने उनकी इच्छा का ध्यान रखते हुए कक्षा 9 से ही आईआईटी के लिए तैयारी की किताबें खरीदकर मेहनत शुरू कर दी। लेकिन कक्षा 11 और 12 के दौरान मैं किसी धुंध में खोया रहा। जवान होते समय हार्मोनों में होने वाले बड़े बदलावों के लिए मैं तैयार नहीं था। मेरी कमजोर सोच, घर के खराब माहौल के कारण संकट में थी, और समाज में हर तरफ से आईआईटी में सफलता का मुझे पर बढ़ता दबाव असहनीय हो गया था। ऐसा लगने लगा था जैसे कि यदि मैं आईआईटी में पहुंचने से वंचित रह गया, तो मेरा पूरा जीवन ही विफल हो जाएगा। विफलता का भय और ढेर सारा दबाव मुझे किशोरावस्था में असमंजस से परेशान किए हुए था और मैं कहीं भाग जाना चाहता था।
मैंने अमेरिका जाने की तैयारी कर ली। कॉलेजों में आवेदन करने में मैंने अपनी सारी शक्ति लगा दी और मेरे माता-पिता मेरी योजनाओं से लगभग अनजान थे और वे अपनी खुद की समस्याओं में ही बुरी तरह उलझे हुए थे। आईआईटी प्रवेश परीक्षा का परिणाम आने पर, उत्तीर्ण छात्रों में मेरा नम्बर खोजने के लिए मेरे पिता ने पूरा अखबार खंगाल डाला। उस समय उनकी निराशा को देखकर मुझे बहुत शर्मिन्दगी और ग्लानि महसूस हुई। दूसरी ओर, मुझे अमेरिका में छात्रवृत्ति के साथ एक अच्छा कॉलेज मिल गया और मैंने वहां चले जाने की तैयारी कर ली।
अमेरिका में भारतीय सपने का पीछा करते हुए 10 साल का वक्त निकल गया। कॉलेज में मैंने अच्छा प्रदर्शन किया और एक बेहतरीन सलाहकार संस्था में अच्छी नौकरी हासिल कर ली। लेकिन सारी सफलता के बावजूद मुझे वह संतुष्टि नहीं मिली जिसकी हर कोई आशा करता है (कॉलेज में सबसे अव्वल होना, टॉप कंपनी में नौकरी हासिल करना, आदि)। मुझे लगता था कि कोई झूठ है जो जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा। मुझे लगता था कि मैं ‘उतना अच्छा’ नहीं हूं और इसलिए मैं सेल्‍फ- हेल्‍प वाली किताबें घंटों पढ़ता और विश्लेषण करता रहता था, ‘आत्मविश्वासी, स्मार्ट और शांत’ बनने का जादुई फार्मूला खोजने की कोशिश करता हुआ। मेरे जीवन में कुछ अच्छे दिन रहे थे जब मैं खुद को शांत और आत्मविश्वासी पाता था, फिर बुरा दौर आया जब मैं घंटों यही सोचा करता कि मैं अपने पुराने अच्छे दिनों को फिर से कैसे वापस लाऊं। अतीत में झांकते हुए, मैं समझ सकता हूं कि मैं अपनी कमजोर सोच के कारण व्यग्रता और अवसाद से गुजर रहा था। टॉप सलाहकार कंपनी में काम करने से स्थितियां और बिगड़ गईं क्योंकि मेरे आस-पास हर कोई बेहद स्मार्ट, परिश्रमी और प्रतिस्पर्धी था, जिससे मेरे मन में अपने झूठ को लेकर भावना और भी प्रबल हो गई।
2002 में, एक बेकार रिश्ते के झंझटभरे ढंग से टूट जाने पर स्थितियां और खराब हो गईं। मेरे सिर में दर्द रहने लगा और काम पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होने लगी। भय, तथा ‘झूठ पकड़ लिए जाने’ के अहसास, काम से निकाल दिए जाने का डर, और विफलता की शर्म के साथ भारत लौटने का माहौल बनने का डर मेरा पीछा करने लगे। मैं ढंग से काम नहीं कर पाता था, मैं ढंग से सो नहीं पाता था और न ही मैं ढंग से खा पाता था। जीवन में पहली बार मेरे मन में आत्महत्या के विचार आने शुरू हुए।
सौभाग्य से, मेरे नियोक्ता ने उसी समय एक कर्मचारी सहायता कार्यक्रम शुरू किया था, और मैंने भी उसमें भाग लेने का निश्चय किया। एक काउंसलर से मेरी मुलाकात हुई जिसने बताया कि मुझे व्यग्रता और अवसाद ने घेर रखा है। मैंने अवसाद निवारक दवाओं और थेरेपी का सहारा लिया। अवसाद निवारक दवाओं ने जादुई ढंग से कार्य किया। कुछ ही दिनों में, मैं ढंग से खा-पी न सकने वाले, या ढंग से न सो सकने या सोच सकने वाले आदमी से एक शांत और स्थिर मन वाले आदमी में बदल गया और मेरे मन में यह विचार बैठने लगा कि मैं जीवन की चुनौतियों से पार पा सकता हूं। दुर्भाग्य से, थेरेपी का कोई टिकाऊ असर नहीं पड़ा। लगभग एक साल के बाद, मैंने दवाएं कम करनी शुरू कर दीं, लेकिन व्यग्रता विकार फिर से सिर उठाने लगा इसलिए मैं फिर से दवाओं पर आश्रित हो गया।
काम के लिए आत्मविश्वास जुटाने के कुछ वर्षों के बाद मैं अपने नए विश्वास और डेवलपमेंट क्षेत्र में काम करने के अपने खुद के सपने को आगे बढ़ाने की इच्छा के साथ भारत लौट आया। शुरुआत में दवाओं के बारे में मैंने एक स्थानीय डॉक्‍टर से बात की। मैं अपनी दवाओं से लगभग संतुष्ट था और सही जीवन जी रहा था। कुछ साल यही स्थितियां बनी रहीं, उसके बाद घर वालों द्वारा तय करके मेरा विवाह कर दिया गया। जब मैंने अपनी मंगेतर को मेरे रोग तथा दवाएं लेने के बारे में बताया, तो मैंने नहीं सोचा था कि इससे शादी के बाद समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। लेकिन ऐसा हुआ। शादी के बाद जल्दी ही मेरी पत्नी ने जोर डालना शुरू किया कि मैं किसी स्थानीय डॉक्‍टर को दिखाऊं। उसने जोर दिया कि मुझे दवाओं की ज़रूरत नहीं है। मेरा अपना अनुमान यह है कि वह दवाओं को मेरी कमजोर आत्मशक्ति के लिए ही पूरी तरह जिम्मेदार मानती थी। मैंने ऐसा किया और उसके द्वारा चुने मनोचिकित्सक की सहायता से धीरे-धीरे दवाएं कम करनी शुरू कर दीं। कुछ महीनों के बाद व्यग्रता, मनोदशा के विकार, भूख न लगना और नींद का अभाव आदि समस्याएं फिर से हावी हो गईं। फिर कुछ महीनों तक इनसे जूझने के बाद हम फिर से मनोचिकित्सक के पास गए लेकिन उसने मेरे लक्षणों पर गौर नहीं किया। जब मेरी पत्नी ने जोर दिया कि उसने मुझमें कोई परिवर्तन नहीं देखे (मेरे साथ ही समस्या नहीं थी) तो मैं बुरी तरह टूट गया और इसके बाद कई सप्ताह परेशान रहा। दुर्भाग्य से, उसी समय मेरी कंपनी ने अपना कामकाज बंद कर दिया और मेरी पत्नी के गर्भवती होने के कारण उसमें शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो गईं। मेरे भय और व्यग्रता और भी बढ़ गए। उस समय मुझे जो पीड़ा, असमंजस और अकेलापन महसूस होता था उसे बताना कठिन है। मैं गंभीरता से आत्महत्या के बारे में सोचने लगा था क्योंकि वही मुझे एक रास्ता दिखता था। मैं आत्महत्या करने के बेहद करीब पहुंच गया था, लेकिन तभी चमत्कार की तरह मेरे एक दोस्त ने एकदम सही समय पर मुझे सहारा दिया और मेरी उम्मीदों को फिर से जगाने में मदद की।
मैंने तय किया कि अपनी पत्नी पर निर्भर रहने के बजाय और हर काम में उसकी मंजूरी लेने के बजाय मुझे मामले को अपने हाथ में लेना होगा। मैं काउंसिलिंग के लिए अन्ना चांडी के पास और फिर उनके बताने पर इलाज के लिए डॉ. श्याम भट्‌ट के पास गया। यह मेरे जीवन का निर्णायक मोड़ था। काउंसिलिंग और उपचार कठिन था – इसमें समय लगता है और उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ता है। मैं अपने ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि मुझे सही पेशेवर लोग मिले जिन पर भरोसा करके मैं ठीक हुआ और प्रगति की। जीवन के इस समय में, जो उपचार मैंने पाया और जो उपाय मैंने सीखे उनसे मैं खुद को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से अधिक मजबूत पाता हूं। मुझे लगता है कि मैं जीवन की अनेक चुनौतियों का सामना कर सकता हूं और मैंने बिना किसी ग्लानि या शर्म के खुद से प्यार करना और अपनी परवाह करना सीख लिया है।
इसे पढ़ने वाले तथा मदद खोजने वाले हर किसी से मैं यही कहूंगा कि वह किसी मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक से संपर्क करे। कुछ प्रैक्टिशनरों से मिलें और फिर उससे स्थायी संबंध बनाएं जिस पर आप भरोसा कर सकते हों। क्योंकि सुरक्षित तथा भरोसेमंद माहौल में ही रोग और समस्याओं से पीछा छुड़ाना संभव हो पाता है। आमीन।

Thursday, March 2, 2017

Velaram M.Patel: चित्तौड़गढ़ का सफर

Velaram M.Patel: चित्तौड़गढ़ का सफर: चित्तौड़गढ़ शहर राजस्थान चित्तौड़गढ़ – ऐतिहासिक चमत्कार जो आपको याद रहेगा चित्तौड़गढ़ शहर राजस्थान में स्थित है जो लगभग 700 एकड़ के क्षेत्र म...