मैं 40 साल का भारतीय पुरुष हूं जो दिल्ली में एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मा और पला-बढ़ा। अपने अतीत पर विचार करते हुए, मैं खुद को एक खुश रहने वाले बच्चे के रूप में पाता हूं। बचपन के मेरे ज्यादातर फोटोग्राफ में मैं मुस्करा रहा हूं जो एक तरफ मेरी प्रसन्नता और दूसरी ओर मेरे शर्मीले होने की झलक देता हैं। मैं पढ़ने में अच्छा था, खेलकूद में अच्छा था और जीवन का पूरा आनंद लेता था। जब 15-16 वर्ष की आयु में मैंने तरुण अवस्था में कदम रखा, तो मेरे साथ घर में और स्कूल में समस्या दिखनी शुरू हुई।
घर में, मेरे हीरो, मेरे पिता, जिन्होंने खुद को शिक्षा, अक्ल और मेहनत से एक मुकाम तक पहुंचाया था, आगे चलकर परेशान हो गए और इससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित हो गया। दुर्भाग्य से, वह अपनी व्यग्रताओं और तनावों के बारे में अपनी पत्नी और बच्चों के सामने बात करते रहते थे। मेरे सबसे बड़े भाई कॉलेज की पढ़ाई करने चले गए और मुझे व मेरे दूसरे भाई को पिता की लगातार डांट-फटकार का सामना करने के लिए छोड़ गए। कुल मिलाकर, परिवार ठीक से नहीं चल रहा था और घरेलू जीवन नर्क बन गया था। मुझे याद है कि मैं और मेरा दूसरा भाई हमारी पारिवारिक समस्याओं पर बात करते रहते और कभी मां तो कभी पिता को दोष देते, और उसके साथ ही, ग्लानि और शर्म की भावना भी हमारे मन में आ जाती कि हम ‘उतने अच्छे’ नहीं थे और उनको खुश नहीं रख पाते थे।
पिता से लगातार आलोचना और बेवजह क्रोध का हमारे मन पर सीधा असर पड़ा। मुझे याद है कि मुझे अपने निरर्थक हो जाने तथा परिवार पर एक बोझ बन जाने की अहसास होता था। मेरे पिता का यह सपना था कि पढ़ने-लिखने में सबसे तेज बच्चा होने के नाते मैं आईआईटी में पहुंचकर उनका सपना पूरा करूंगा। मैंने उनकी इच्छा का ध्यान रखते हुए कक्षा 9 से ही आईआईटी के लिए तैयारी की किताबें खरीदकर मेहनत शुरू कर दी। लेकिन कक्षा 11 और 12 के दौरान मैं किसी धुंध में खोया रहा। जवान होते समय हार्मोनों में होने वाले बड़े बदलावों के लिए मैं तैयार नहीं था। मेरी कमजोर सोच, घर के खराब माहौल के कारण संकट में थी, और समाज में हर तरफ से आईआईटी में सफलता का मुझे पर बढ़ता दबाव असहनीय हो गया था। ऐसा लगने लगा था जैसे कि यदि मैं आईआईटी में पहुंचने से वंचित रह गया, तो मेरा पूरा जीवन ही विफल हो जाएगा। विफलता का भय और ढेर सारा दबाव मुझे किशोरावस्था में असमंजस से परेशान किए हुए था और मैं कहीं भाग जाना चाहता था।
मैंने अमेरिका जाने की तैयारी कर ली। कॉलेजों में आवेदन करने में मैंने अपनी सारी शक्ति लगा दी और मेरे माता-पिता मेरी योजनाओं से लगभग अनजान थे और वे अपनी खुद की समस्याओं में ही बुरी तरह उलझे हुए थे। आईआईटी प्रवेश परीक्षा का परिणाम आने पर, उत्तीर्ण छात्रों में मेरा नम्बर खोजने के लिए मेरे पिता ने पूरा अखबार खंगाल डाला। उस समय उनकी निराशा को देखकर मुझे बहुत शर्मिन्दगी और ग्लानि महसूस हुई। दूसरी ओर, मुझे अमेरिका में छात्रवृत्ति के साथ एक अच्छा कॉलेज मिल गया और मैंने वहां चले जाने की तैयारी कर ली।
अमेरिका में भारतीय सपने का पीछा करते हुए 10 साल का वक्त निकल गया। कॉलेज में मैंने अच्छा प्रदर्शन किया और एक बेहतरीन सलाहकार संस्था में अच्छी नौकरी हासिल कर ली। लेकिन सारी सफलता के बावजूद मुझे वह संतुष्टि नहीं मिली जिसकी हर कोई आशा करता है (कॉलेज में सबसे अव्वल होना, टॉप कंपनी में नौकरी हासिल करना, आदि)। मुझे लगता था कि कोई झूठ है जो जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा। मुझे लगता था कि मैं ‘उतना अच्छा’ नहीं हूं और इसलिए मैं सेल्फ- हेल्प वाली किताबें घंटों पढ़ता और विश्लेषण करता रहता था, ‘आत्मविश्वासी, स्मार्ट और शांत’ बनने का जादुई फार्मूला खोजने की कोशिश करता हुआ। मेरे जीवन में कुछ अच्छे दिन रहे थे जब मैं खुद को शांत और आत्मविश्वासी पाता था, फिर बुरा दौर आया जब मैं घंटों यही सोचा करता कि मैं अपने पुराने अच्छे दिनों को फिर से कैसे वापस लाऊं। अतीत में झांकते हुए, मैं समझ सकता हूं कि मैं अपनी कमजोर सोच के कारण व्यग्रता और अवसाद से गुजर रहा था। टॉप सलाहकार कंपनी में काम करने से स्थितियां और बिगड़ गईं क्योंकि मेरे आस-पास हर कोई बेहद स्मार्ट, परिश्रमी और प्रतिस्पर्धी था, जिससे मेरे मन में अपने झूठ को लेकर भावना और भी प्रबल हो गई।
2002 में, एक बेकार रिश्ते के झंझटभरे ढंग से टूट जाने पर स्थितियां और खराब हो गईं। मेरे सिर में दर्द रहने लगा और काम पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होने लगी। भय, तथा ‘झूठ पकड़ लिए जाने’ के अहसास, काम से निकाल दिए जाने का डर, और विफलता की शर्म के साथ भारत लौटने का माहौल बनने का डर मेरा पीछा करने लगे। मैं ढंग से काम नहीं कर पाता था, मैं ढंग से सो नहीं पाता था और न ही मैं ढंग से खा पाता था। जीवन में पहली बार मेरे मन में आत्महत्या के विचार आने शुरू हुए।
सौभाग्य से, मेरे नियोक्ता ने उसी समय एक कर्मचारी सहायता कार्यक्रम शुरू किया था, और मैंने भी उसमें भाग लेने का निश्चय किया। एक काउंसलर से मेरी मुलाकात हुई जिसने बताया कि मुझे व्यग्रता और अवसाद ने घेर रखा है। मैंने अवसाद निवारक दवाओं और थेरेपी का सहारा लिया। अवसाद निवारक दवाओं ने जादुई ढंग से कार्य किया। कुछ ही दिनों में, मैं ढंग से खा-पी न सकने वाले, या ढंग से न सो सकने या सोच सकने वाले आदमी से एक शांत और स्थिर मन वाले आदमी में बदल गया और मेरे मन में यह विचार बैठने लगा कि मैं जीवन की चुनौतियों से पार पा सकता हूं। दुर्भाग्य से, थेरेपी का कोई टिकाऊ असर नहीं पड़ा। लगभग एक साल के बाद, मैंने दवाएं कम करनी शुरू कर दीं, लेकिन व्यग्रता विकार फिर से सिर उठाने लगा इसलिए मैं फिर से दवाओं पर आश्रित हो गया।
काम के लिए आत्मविश्वास जुटाने के कुछ वर्षों के बाद मैं अपने नए विश्वास और डेवलपमेंट क्षेत्र में काम करने के अपने खुद के सपने को आगे बढ़ाने की इच्छा के साथ भारत लौट आया। शुरुआत में दवाओं के बारे में मैंने एक स्थानीय डॉक्टर से बात की। मैं अपनी दवाओं से लगभग संतुष्ट था और सही जीवन जी रहा था। कुछ साल यही स्थितियां बनी रहीं, उसके बाद घर वालों द्वारा तय करके मेरा विवाह कर दिया गया। जब मैंने अपनी मंगेतर को मेरे रोग तथा दवाएं लेने के बारे में बताया, तो मैंने नहीं सोचा था कि इससे शादी के बाद समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। लेकिन ऐसा हुआ। शादी के बाद जल्दी ही मेरी पत्नी ने जोर डालना शुरू किया कि मैं किसी स्थानीय डॉक्टर को दिखाऊं। उसने जोर दिया कि मुझे दवाओं की ज़रूरत नहीं है। मेरा अपना अनुमान यह है कि वह दवाओं को मेरी कमजोर आत्मशक्ति के लिए ही पूरी तरह जिम्मेदार मानती थी। मैंने ऐसा किया और उसके द्वारा चुने मनोचिकित्सक की सहायता से धीरे-धीरे दवाएं कम करनी शुरू कर दीं। कुछ महीनों के बाद व्यग्रता, मनोदशा के विकार, भूख न लगना और नींद का अभाव आदि समस्याएं फिर से हावी हो गईं। फिर कुछ महीनों तक इनसे जूझने के बाद हम फिर से मनोचिकित्सक के पास गए लेकिन उसने मेरे लक्षणों पर गौर नहीं किया। जब मेरी पत्नी ने जोर दिया कि उसने मुझमें कोई परिवर्तन नहीं देखे (मेरे साथ ही समस्या नहीं थी) तो मैं बुरी तरह टूट गया और इसके बाद कई सप्ताह परेशान रहा। दुर्भाग्य से, उसी समय मेरी कंपनी ने अपना कामकाज बंद कर दिया और मेरी पत्नी के गर्भवती होने के कारण उसमें शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो गईं। मेरे भय और व्यग्रता और भी बढ़ गए। उस समय मुझे जो पीड़ा, असमंजस और अकेलापन महसूस होता था उसे बताना कठिन है। मैं गंभीरता से आत्महत्या के बारे में सोचने लगा था क्योंकि वही मुझे एक रास्ता दिखता था। मैं आत्महत्या करने के बेहद करीब पहुंच गया था, लेकिन तभी चमत्कार की तरह मेरे एक दोस्त ने एकदम सही समय पर मुझे सहारा दिया और मेरी उम्मीदों को फिर से जगाने में मदद की।
मैंने तय किया कि अपनी पत्नी पर निर्भर रहने के बजाय और हर काम में उसकी मंजूरी लेने के बजाय मुझे मामले को अपने हाथ में लेना होगा। मैं काउंसिलिंग के लिए अन्ना चांडी के पास और फिर उनके बताने पर इलाज के लिए डॉ. श्याम भट्ट के पास गया। यह मेरे जीवन का निर्णायक मोड़ था। काउंसिलिंग और उपचार कठिन था – इसमें समय लगता है और उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ता है। मैं अपने ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि मुझे सही पेशेवर लोग मिले जिन पर भरोसा करके मैं ठीक हुआ और प्रगति की। जीवन के इस समय में, जो उपचार मैंने पाया और जो उपाय मैंने सीखे उनसे मैं खुद को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से अधिक मजबूत पाता हूं। मुझे लगता है कि मैं जीवन की अनेक चुनौतियों का सामना कर सकता हूं और मैंने बिना किसी ग्लानि या शर्म के खुद से प्यार करना और अपनी परवाह करना सीख लिया है।
मैंने तय किया कि अपनी पत्नी पर निर्भर रहने के बजाय और हर काम में उसकी मंजूरी लेने के बजाय मुझे मामले को अपने हाथ में लेना होगा। मैं काउंसिलिंग के लिए अन्ना चांडी के पास और फिर उनके बताने पर इलाज के लिए डॉ. श्याम भट्ट के पास गया। यह मेरे जीवन का निर्णायक मोड़ था। काउंसिलिंग और उपचार कठिन था – इसमें समय लगता है और उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ता है। मैं अपने ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि मुझे सही पेशेवर लोग मिले जिन पर भरोसा करके मैं ठीक हुआ और प्रगति की। जीवन के इस समय में, जो उपचार मैंने पाया और जो उपाय मैंने सीखे उनसे मैं खुद को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से अधिक मजबूत पाता हूं। मुझे लगता है कि मैं जीवन की अनेक चुनौतियों का सामना कर सकता हूं और मैंने बिना किसी ग्लानि या शर्म के खुद से प्यार करना और अपनी परवाह करना सीख लिया है।
इसे पढ़ने वाले तथा मदद खोजने वाले हर किसी से मैं यही कहूंगा कि वह किसी मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक से संपर्क करे। कुछ प्रैक्टिशनरों से मिलें और फिर उससे स्थायी संबंध बनाएं जिस पर आप भरोसा कर सकते हों। क्योंकि सुरक्षित तथा भरोसेमंद माहौल में ही रोग और समस्याओं से पीछा छुड़ाना संभव हो पाता है। आमीन।
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