Monday, October 17, 2016

गुलामी से भरी मानसिकता

'ब्रेन-ड्रेन व भारतीय मानसिकता
 2000 हजार सालों तक भारत पर विदेशी राज्य करते रहे. यवन, हूण,कुषाण,शक,खिलजी ,मुग़ल,पुर्तगाली और अंत में अंग्रेजों ने एक के बाद एक भारत पर आक्रमण किया और यहाँ कि संपदा को लूटा और एक लम्बे समय तक 2000  सालों तक भारत को गुलाम रखा.भारत का क्रमिक इतिहास यही कहता है.
आजतक हमें सब बातें कि पर इस सत्य से हमेशा नजर चुराते रहे कि आखिर क्या कारण है कि हम 2000 साल तक गुलाम रहे? वास्तविकता यही है कि यह गुलामी अपने स्वभावगत कमजोरियों के कारण हमने स्वीकार कि और झुझारुपन के अभाव में आज भी स्वतंत्र होते हुए भी इस मानसिकता से छुटकारा नहीं पा सके. 'सत्य' पर सम्भाषण तो हमे अच्छा लगता है पर 'सच का सामना' करने से हम घबराते हैं. वास्तव में हमारी  सामाजिक  और राजनितिक व्यवस्था में ही गुलामी के बीज हैं.
अंग्रेज तो इस देश से चले गए पर अपनी लेपालक संतानें यही छोड़ गए, जो आज भी काया से भारतीय होते हुए भी मन से अंग्रेजों कि गुलाम है और पश्चिम का गुणगान करने में चाटुकारिता कि सारी हदें तोड़ देती है.
मानसिक गुलामी हमारे व्यवहार व कियाकलापों में झलकती है. प्रतिभाओं कि भारत में  कमी नहीं, बल्कि पूरी दुनिया भारतीय प्रतिभा का लोहा मान चुकी है पर अपने घर में इन प्रतिभाओं को यथोचित सम्मान नहीं मिलता और वे पलायन कर जाती हैं. यही कारण है  कि ये प्रतिभाएं दूसरे देशों को लाभान्वित कर रही हैं. जब इन्हें वहां सम्मान मिलता है और दुनिया इन्हें पहचानने लगती है तब हमारी नींद खुलती है, तब हम इस फारेन रिटर्न प्रतिभा को हाथों हाथ लेते हैं.
क्या ये हमारी हजारों सालों कि मानसिक गुलामी का ज्वलंत प्रमाण नहीं? जब तक हमारी प्रतिभा को पश्चिम का ठप्पा नहीं लग जाता हमें उनकी प्रतिभा दिखाई ही नहीं देती. हम आखिर कब तक स्वयं को पश्चिम के चश्में से देखते रहेंगे?
इस मानसिक गुलामी के चलते ही हम अपने महत्त्व को कम करके आंकते हैं.एक पढ़ा लिखा व्यक्ति हमें कम पढ़े लिखे अंग्रेजी बोलने वाले सज्जन के सामने गवांर लगता है. ज्यों ही कोई अंग्रेजी में वार्तालाप करता है हमारी निगाहों में उसके लिए एक विशेष सम्मान झलकने लगता है. और हम उसकी एक कृपा दृष्टि पाने की होड़ में लग जाते हैं   

अब वक्त आ गया है जब हमें अपनी इस सड़ी-गली मानसिकता को अलविदा कहना होगा अन्यथा प्रतिभा संपन्न होते हुए भी हम पिछड़ जायेंगे और हमारी कुशलता जिस पर भारत सरकार करोड़ों रुपिया खर्च करके देश के लिए तैयार करती है उसका लाभ दूसरे देश उठा लेंगे. हमे भारतीय होने का गर्व होना चाहिए न कि शर्म.

मन में गुलामी की हद

कुछ दिन पहले राजस्थान के वरिष्ठ व चर्चित पत्रकार श्रीपाल शक्तावत ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा - “कांग्रेस के प्रति मुसलमानों की निष्ठा और भारतीय जनता पार्टी को लेकर राजपूतों के मन में गुलामी की हद तक के समर्पण को लेकर इन दिनों कई जगह सुनने को मिला है।” और इसके बाद शक्तावत जी ने इस सम्बन्ध को लेकर एक चटपटा किस्सा भी लिखा- 

एक प्रशिक्षु तांत्रिक (अपने गुरु से)- मेरे बस में नहीं आत्माओं को जगाना और उन्हें वश में करके अपने काम निकलवाना। गुरु- क्या हुआ ? इतने जल्दी थक गये अपने मिशन से ?
प्रशिक्षु तांत्रिक - थकना ही था कितने दिन से आपके कहे मुताबिक आत्माओं को जगाने की मुहीम में लगा हूँ, लेकिन बात बन नहीं रही।
गुरु (मुस्कराते हुए) - चल आज से एक मन्त्र याद करले।
प्रशिक्षु तांत्रिक - क्या गुरुदेव ?
गुरु - कब्रिस्तान में जाकर कांग्रेस के नारे लगाना और राजपूतों के श्मशान में जाकर भाजपा के नारे लगाना, आत्माएं ही आत्माएं आयेंगी, जिसे चाहे काम लेना, जिसे चाहे छोड़ देना।
प्रशिक्षु तांत्रिक- जी गुरुदेव ! लेकिन ?
गुरु - लेकिन वेकिन कुछ नहीं। इनसे ज्यादा राजनैतिक दलों का मानसिक गुलाम कोई नहीं मिलेगा। सो नारे लगाते ही निकल आयेंगी हजारों आत्माएं, जो पूरी जिन्दगी इनके नारे लगाते लगाते ही मर गई।

श्रीपाल जी ने सही लिखा मुसलमानों पर तो दूसरा धर्म होने के नाते टिप्पणी करना मैं किसी भी लिहाज से ठीक नहीं समझता पर हाँ चूँकि खुद राजपूत जाति से हूँ इसलिए अपनी जाति की चर्चा करने को अपने आपको स्वतंत्र मानता हूँ।
आज देशभर का नहीं तो कम से कम राजस्थान का राजपूत भारतीय जनता पार्टी से इतना जुड़ गया कि उसे भाजपा के बाद कुछ भी दिखाई नहीं देता, भले भाजपा उसके स्वाभिमान से खेले या उसकी कभी कोई आवाज तक ना सुने। चुनावों में टिकट वितरण के समय जरुर भाजपा कुछ राजपूत उम्मीदवार उतारती है ताकि राजपूत समझते रहे कि अन्य दलों से ज्यादा हमें भाजपा ने टिकट दी है और इसी एक बिंदु को लेकर भाजपा के प्रति राजस्थान के राजपूतों का समर्पण मानसिक गुलामी तक पहुँच गया है। यही नहीं राजपूतों के अग्रणी सामाजिक संगठन भी भाजपा के मानसिक गुलाम बन अपने समाज को इसी धारा में बहाते रहने को कटिबद्द है।

इस मानसिक गुलामी की हद तक समर्पण करने वाले राजपूतों को ध्यान रखना चाहिये कि गुलामों की आवाज की कभी किसी जमाने में कोई कीमत व कद्र नहीं रही। तो आज क्या रहेगी ?

और इस बात को राजस्थान भाजपा सरकार ने चरितार्थ भी कर दिखाया। राजस्थान में तीन विश्व विद्यालय प्रस्तावित थे- अलवर में मत्स्य विश्व विद्यालय, भरतपुर में ब्रज विश्व विद्यालय और शेखावाटी में शेखावाटी विश्व विद्यालयद्य भाजपा सरकार ने आते ही इन तीनों विश्व विद्यालयों के नाम जो स्थानीय क्षेत्रों के नाम पर थे को स्थानीय महापुरुषों के नाम पर करते हुए अलवर में राजा भरतरी विश्व विद्यालय, भरतपुर में राजा सूरजमल विश्व विद्यालय और शेखावाटी में प्. दीनदयाल विश्व विद्यालय रख दिया जबकि शेखावाटी के राजपूत लंबे समय से शेखावाटी विश्व विद्यालय का नामकरण शेखावाटी के संस्थापक राव शेखाजी के नाम पर करने की मांग करते आ रहे थे।

लेकिन भाजपा सरकार को पता था कि राजपूत भाजपा के मानसिक गुलाम है अतः इनकी मांग मानी जाये या ना मानी जाये कोई फर्क नहीं पड़ता। राजपूत पारम्परिक तौर पर कांग्रेस विरोधी है अतः भाजपा को वोट देना उनकी मजबूरी है फिर अब राजपूत भाजपा के मानसिक गुलाम तक बन चुके तो ऐसी परिस्थिति में वे कहीं जाने वाले नहीं सो उनकी मांग ना सुनकर शेखावाटी विश्व विद्यालय का नामकरण दीनदयाल उपाध्याय पर कर दिया गया। जबकि दीनदयाल उपाध्याय का शेखावाटी में कोई योगदान नहीं। पर भाजपा ने अपना संघी एजेंडा शेखावाटी का जनता के माथे थोप दिया। और तो और भाजपा के राजपूत विधायक और सामाजिक संगठन चाहते हुए भी सिर्फ इसलिए आवाज नहीं उठा पाये कि इससे संघ नाराज हो जायेगा और उनकी स्थिति पार्टी में कमजोर हो जायेगी। लानत ऐसे विधायकों व सामाजिक संगठनों पर जो राजनीति तो समाज के नाम पर करते है पर समाज के स्वाभिमान व हित से स्व हित बड़ा समझते है।

इस घटना से साफ जाहिर है कि भाजपा ने राजपूतों को अपना मानसिक गुलाम समझ उनकी आवाज की कोई कीमत नहीं समझी। इसके ठीक विपरीत भाजपा को पता है कि जाट जातिय आधार पर वोट देते है अतः उनके वोट लेने के लिए भाजपा ने पहले उन्हें बिना मांगे राज्य में आरक्षण दिया और ब्रज विश्व विद्यालय का नाम बिना किसी मांग के जाट राजा सूरजमल के नाम पर किया ताकि जाटों को खुश कर वोट लिए जा सके। इस तुष्टिकरण की हद तो तब देखने को मिली जब कांग्रेस के अभी दिवंगत हुए नेता परसराम मदेरणा के नाम से वसुंधरा राजे कालेज खोलने की घोषणा से नहीं चुकी। अपने विपक्षी दल के मदेरणा के नाम कालेज खोलने की घोषणा के पीछे भी राजे की जाट तुष्टिकरण की मंशा साफ देखी जा सकती है।

हालाँकि हमें राजा सूरजमल व परसराम मदेरणा के नाम पर विश्व विद्यालय बनाने की कोई शिकायत नहीं है, बल्कि हम इस घोषणा का तहेदिल से स्वागत करते है पर इनकी तुलना यह समझाने के लिए काफी है कि गुलामों की आवाज की कोई कीमत नहीं होती।

शायद अब भी राजपूत समुदाय इस बात को समझे, राजपूत ही क्यों सभी समुदायों को यह बात समझनी चाहिये और किसी भी राजनैतिक दल के प्रति मानसिक गुलामी की हद तक समर्पण करने से बचना चाहिये।

मानसिक गुलामी को बनाए रखने वाले तंत्र के रूप में अंग्रेजी

मानसिक गुलामी को बनाए रखने वाले तंत्र के रूप में अंग्रेजी
1. एक भाषा के रूप में अंग्रेजी सीखने में अपने-आप में कोई बुराई नहीं है, पर व्यवस्था के रूप में अंग्रेजी देश के 95% लोगों को मुख्यधारा से काटे रखने का ही काम करती है। व्यवस्था के रूप में अंग्रेजी का यह वर्चस्व ही है जिसने लोगों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की तरफ भागने को विवश किया है। लोगों का अंग्रेजी-प्रेम पतंगे और शमां का प्रेम है। शमां के प्रेम में अंधा पतंगा नहीं जानता कि शमां उसे जला देगी। प्रेम में अंधा पतंगा शमां पर लपकता है और जल जाता है। इसी प्रकार लोग भी अंग्रेजी के मोह में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की तरफ भागते हैं और भूल जाते हैं कि अंग्रेजी के वर्चस्व वाली शिक्षा उन्हें कभी आगे बढ़ने नहीं देगी। परिणाम भी अपेक्षित ही निकलता है। देश के ग़रीब वर्ग (90%) के 99.99% लोग बीच रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। जो .01% यदि गलती से कामयाब हो जाते हैं वे शेष 99.9% के आदर्श के रूप में स्थापित हो जाते हैं। इस प्रकार देश की 3% अमीर , एलिट आबादी की सत्ता सुरक्षित रहती है।
2. जी हाँ ! इंग्लिश मीडियम केवल स्कूल ही नहीं होते, इंग्लिश मीडियम अदालतें भी होती हैं। इंग्लिश मीडियम संसद के कानून भी होते हैं, सम्पूर्ण नौकरशाही का ढाँचा इंग्लिश मीडियम ही है। स्कूल तो बेचारे इसलिए इंग्लिश मीडियम खुलते हैं क्योंकि हमारे देश और समान के ये सभी संस्थान इंग्लिश मीडियम हैं। इन सबको पालने-पोसने का काम इंग्लिश मीडियम विश्वविद्यालय, युपीएससी, डीएसएसएसबी, एसएससी आदि करते हैं। यही अल्प तंत्र ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ है। यह ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ही शोषण और गैर-बराबरी के ‘अल्पतांत्रिक-पंगु-पूँजीवादी’ किले को बनाए रखने वाली ‘अंग्रेजीदा साँस्कृतिक दीवार’ को पुख्ता करने का काम करता है। सत्ता को चंद हाथों तक समेटे रख कर, यह सिस्टम उस किले के चारों तरफ़ भ्रष्टाचार की सड़ांध वाली दलदली जमीन निर्मित करता है।
3. इस ‘इंग्लिश मीडियम तंत्र’ को नेस्तनाबूद किए बिना न तो भ्रष्टाचार की गंदगी दूर की जा सकती है और न ही सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी को बनाए रखने वाले किले की दीवार को ही ढहाया जा सकता है। आम जनता की समझ से परे की भाषा का अल्पतंत्र ही आम जनता को भ्रम और असमंजस की स्थिति में रखता है।
4. संवैधानिक संस्था यूपीएससी, डीएएसएसएसबी, राज्‍यों की पीसीएस एवं गैर संवैधानिक संस्था यूजीसी, आईआईटी,आईआईएम (UPSC, DSSSB, State’s PCS, UGC, IIT, IIM) आदि ‘बैरिकेटर एजेंसी’ भर हैं, जो इस सिस्टम को बनाए रखने का काम करती हैं। इनके द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता इसलिए रखी जाती है कि उस अंग्रेजी के सहारे ग्रामीण कस्बाई गैर-अंगेजीदा-एलिट पृष्ठभूमि के अभ्यार्थियों को सत्ता के गलियारे से दूर रखा जा सके और राजसत्ता के स्वरूप को अंग्रेजीदा वर्ग के अनुरूप बनाए रखा जाए। सरकार‘ऑपरेटिंग एजेंसी’ के रूप राजसत्ता के स्वरूप की रक्षा करते हुए, उसे चलाने भर का काम करती है । शायद इसी कारण सत्ता में आते ही राजनेताओं के सुर-ताल बदल जाते है ।
5. वर्तमान में सिविल सेवा चयन हेतू आयोजित की जाने वाली परीक्षा में 2011 से सी-सैट (CSAT) लागू कर प्रारंभिक परीक्षा के स्वरूप में जो परिवर्तन किया गया है वह भी इसी कड़ी का हिस्सा है। ऐसा नही है कि यू.पी.एस.सी. के द्वारा 2011 से पहले ली जाने वाली परीक्षा भेद-भाव से मुक्त थी। यदि हम 2011 से पूर्व के ग्राफ को भी देखें तो पाते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा में बेशक हिन्दी समेत अन्य भाषा माध्यमों से औसतन 45% प्रतिशत अभ्यार्थीं पास होते होते थे, पर साक्षात्कार के बाद का आँकड़ा 10-12 % तक का ही रह जाता था। समस्त भारतीय भाषा माध्यमों से भारतीय सिविल सेवा में चयनित होने वाले उम्मीदवारों की संख्या शायद ही कभी 20 % के आकड़े को पार कर पायी हो। अतः इस परीक्षा के पुराने पैटर्न में भी अंग्रेजीदां वर्ग का ही दबदबा बना हुआ था। यूपीएससी (UPSC) की शेष परीक्षाओं में से अधिकतर अंग्रेजी में ही संपन्न होती हैं। चाहे वह भारतीय आर्थिक सेवा परीक्षा हो या भारतीय वन सेवा परीक्षा, सभी परीक्षाओं में अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा बना हुआ है। (स्रोत्र – यूपीएससी (UPSC) रिपोर्ट)
6. NDAऔर CDS की परीक्षा में बेशक ग्रामीण पृष्टभूमि के उम्मिदवारों की संख्या अधिक हो, पर अंततः चयनित होने वाले अभ्यार्थी, शहरी उच्च मध्यम वर्गी पृष्टभूमि के ही होते है । उसमें से भी अधिकतर वे उम्मीदवार होते है, जिनकी पारिवारिक पृष्टभूमि आर्मी के अफसर की होती है । आर्मी में तो भारत और इंडिया का विभाजन साफ दिखता है । जहाँ नीचले क्रम के सैनिक देहाती परिवेश के होते है, वही लगभग सभी अफसर अंग्रेजीदा पृष्टभूमि के ही होते है । ..और अफसरों की ‘एंट्री’ कहा से होती है ? ? इन सब उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते है कि UPSC अंततः इंग्लिश के वर्चस्व वाले सिस्टम को ही बनाए रखने का काम करती है ।
7. ऊपर दिए गए उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि यूपीएससी (UPSC) अंततः इंग्लिश के वर्चस्व वाले सिस्टम को ही बनाए रखने का काम करती है। इसी प्रकार जब हम आईआईटी, आईआईएम, एआईआईएमएस (IIT, IIM, AIIMS)जैसी संस्थाओं की बात करें तो पहला सवाल यही उठता है कि इन संस्थाओं में अंग्रेजीदां शहरी पृष्ठभूमि के लोग ही क्यों चयनित हो पाते हैं? क्या ग्रामीण या भारतीय भाषाई पृष्ठभूमि के लोगों में कोई भी तकनीकी या वैज्ञानिक योग्यता नहीं होती?? सच्‍चाई तो यह है कि अनुभवजन्य तकनीकी एवं जैविक ज्ञान में ग्रामीण एवं वनवासी लोग ज्यादा दक्ष होते हैं। पर, जब अकादमिक की बात आती है तो किताबी तोते ही बाजी मार जाते हैं।
8. यदि इन संस्थाओं में गलती से भी ग्रामीण या भारतीय भाषाई पृष्ठभूमि का विद्यार्थी पहुँच भी जाए तो उसके पास ‘बैक-बैंचर’ (जो महज खानपूर्ति करने भर के लिए क्लास में बैठते हैं) बनने के आलावा कुछ भी शेष नहीं रहता। अंग्रेजीदां शिक्षक उन्‍हें ऐसे देखते हैं मानों वे जंगली और असभ्‍य हों। दिल्ली स्थित एम्‍स (AIIMS) के विद्यार्थी अनिल मीणा तथा तमिलनाडु स्थित अन्ना विश्वविद्यालय की इंजिनरिंग छात्रा एस. धार्या लक्ष्मी का उदाहरण इसका ज्वलंत उदाहरण है । ये मामले स्पष्ट करता है कि किस प्रकार अंग्रेजीदां व्यवस्था ने ग्रामीण प्रतिभाशाली छात्रों को आत्महत्या करने हेतु विवश किया था । पर यह अकेला मामला नहीं है। अंग्रेजी माध्यम वाली व्यवस्था की वजह से जितनी आत्महत्याएँ उत्तर भारत में हुईं, उससे कम दक्षिण में नहीं हुईं। हमने जब इंटरनेट खंगालने का प्रयास किया तो अंग्रेजी वर्चस्व की वजह से आत्महत्या के मामले सबसे ज्यादा तमिलनाडु से ही मिले । वह राज्य जिनके तथाकथित राज नेताओं को अंग्रेजी का प्रवक्ता माना जाता है।(नोट- कुछ लिंक पत्र के अंत मे दिए हैं)
9. अंग्रेजी के वर्चस्व वाली व्यवस्था में न तो मौलिक ज्ञान संभव है न ही रचनात्मक चिंतन।(‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’, दैट इज़ ‘अंग्रेजी राज’ में स्पष्ट) अतः अंग्रेजीदा वर्ग के वर्चस्व के खिलाफ़ भारतीय जन-भाषाओं के अधिकार की लड़ाई अखिल भारतीय स्तर पर लड़े जाने की जरूरत है। इसमें तमिल, तेलगू , गुजराती,बंगला, संथाली आदि सभी भारतीय भाषा-भाषियों को ‘एक मंच’ / ‘एक प्लेटफार्म’ पर लाने की भी जरूरत है।
10. यूरोपीय यूनियन में जब 24 भाषाओं में काम चल सकता है तो भारत के सरकारी कार्यालयों, बैंकों, निगमों आदि को भारत की 22 भाषाओं में काम करने में क्या समस्या आएगी? यूरोप का छोटे-से-छोटा देश भी अपनी भाषा में शासन एवं शिक्षा तंत्र को चला सकता है तो भारत क्‍यों नहीं। उदाहरण के तौर पर, बैलज़ियम जैसा छोटे से देश की शासन और शिक्षा व्यवस्था अपनी दो भाषाओं में आसानी से चलती है तो भारत का शासनतंत्र और शिक्षा व्यवस्था भारत की समस्त भाषाओं में क्यो नहीं चल सकती? पूर्व सोवियत संघ में 52 भाषाओं को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था । उन सभी भाषाओं में कामकाज भी होता था। आज सोवियत संघ से अलग हुआ प्रत्‍येक देश अपनी भाषा में ही काम-काज और शिक्षा व्यवस्था का संचालन करता है। तो भारत में राजभाषा का दर्जा सभी 22 भाषाओं को क्‍यों नहीं दिया जा सकता?
11. सच्चाई तो यह है कि स्‍वतंत्रता के बाद से ही, भारतीय भाषा-भाषी लोगों को ही आपस मे लड़ाया जा रहा है । कहने के लिए अनुच्छेद 351 में संघ के द्वारा हिन्दी के प्रसार की बात कही है । पर पिछवाड़े के चोर दरवाजे से संविधान के अनुच्छेद 348, 343(2) और 348 का अनुच्छेद 120, 210 पर जो प्रभाव है वह अंततः अंग्रेजी का ही वर्चस्व स्थापित करता है। कहने को संविधान का अनुच्छेद 350 (ख) भाषाई अल्पसंख्यकों की रक्षा की बात करता है पर यहाँ तो अंग्रेजीदा-एलिट वर्ग की भाषा भारत की सभी भाषाओं को लील रही है । संविधान का अनुच्छेद 350(A) राज्य को निर्देश देता है कि राज्य प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था करे । पर जैसा कि ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’, दैट इज़ ‘अंग्रेजी राज’ की केस स्टडी स्पष्ट करती है कि लोग उस माध्यम में बच्चों को पढ़ाना चाहते है, जो राजकाज और उच्चशिक्षा की भाषा होती है । माननीय सुप्रीमकोर्ट ने भी पिछले दिनों English Medium Students Parents … vs State Of Karnataka on8 December, 1993, 1994 AIR1702, 1994 SCC (1) 550 इस बात को और पुख़्ता करता है । संविधान संसद और विधानसभाओं में हमारे जनप्रतिनिधियों को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में बोलने एवं विचार रखने की छुट देता है । पर संविधान का अनुच्छेद 348 ही वास्तव में संसद और विधानसभाओं के काम काज की भाषा को निर्धारित करती है । अनुच्छेद 348 (न्‍यायालयों की भाषा अंग्रेजी रखे जाने संबंधी) ही हमारी अंग्रेजीदां व्यवस्था की वास्‍तविक सच्चाई है । इसी के आधार पर किसी भी विवाद की स्थिति में अंग्रेजी में लिखी गयी बात ही अंतिम सत्य होती है। अनुच्छेद 348 के आधार पर ही तमाम परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों पर लिखा होता है कि किसी भी विवाद की स्थिती में अंग्रेजी में लिखी गयी बात ही सत्य होगी। परिणाम यह निकलता है कि मूल काम अंग्रेजी मे होगा, फि़र उसका अनुवाद भारतीय भाषाओं में होगा। संसद और विधानसभाओं द्वारा कानून भी मूल रूप से अंग्रेजी में में पास होता है । भारतीय भाषाओं में तो अनुवाद भर होता है । यदि भारतीय संसद या विधान सभा मूल कानून को भारतीय भाषाओं में पास करे तो भी उसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए अंग्रेजी वर्जन तैयार करेगा । संविधान के अनुच्छेद 348 की वजह से, माननीय सर्वोच्च न्यायालय की नज़र में, वह अंग्रेजी वर्जन ही अंतिम सत्य है । इस प्रकार भारत की भाषाओं की उपयोगिता इस व्यवस्था में सजावट के फूलों भर की रह जाती है, जिनके काँटों का प्रयोग एक दूसरे को तोड़ने के लिए किया जाता है।
12. हिन्दी को राज भाषा बनाने वाली संविधान की धारा 343(1) एक तरफ तो हिन्दी बैल्ट माने जाने वाले क्षेत्र के लोगों में तत्सम प्रधान तथाकथित हिन्दी के राष्ट्र भाषा होने का भ्रम पैदा करती है और दूसरी तरफ गैर-हिन्दी-भाषी माने जाने वाले क्षेत्रों में हिन्दी-भाषी लोगों के वर्चस्व का भय जगाती है। फलस्वरूप ‘तथाकथित हिन्दी-भाषी’ और‘तथाकथित गैर हिन्दी-भाषी’ एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं। इस प्रकार 343(1) की आड़ में ही अनुच्छेद 343(2),348, और 147 ही नहीं 343 से लेकर 351 के सभी अनुच्छेद अंततः इंग्लिश के वर्चस्व को ही कायम रखते हैं। हम भारत के लोगों के सामने अनुच्छेद 350, 350A, 350B और 351 के माध्‍यम से भारतीय भाषाओं के संरक्षण की वकालत की गयी है, संविधान की ये धाराएं संविधान के सजावटी दांत भर है । अनुच्छेद 351 ने तो अनुवाद की हिन्दी को ही पैदा किया है । हकीकत में अनुच्छेद 348 343(2), 344 अंग्रेजी के वर्चस्व को ही बनाये रखते है । अंग्रेजी का वर्चस्व विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित कर, अवसर को अंग्रेजी-भाषी तबके तक सीमित रख, भारत के लोगों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय से वंचित रखता है।
13. अतः देश के भारतीय भाषा भाषी लोगों की आपसी बंधुता को खत्‍म करने का महान काम अनुच्छेद 343(1) ही करता है।
14. लेटिन अमेरिका, यूरोप-युरेशिया, को जब अंग्रेजी का मोह नहीं है, तो भारत को इस तथाकथित अंतरराष्ट्रीय भाषा (अंग्रेजी) का का मोह इतना क्यों बाँधे हुए है ? आज हमारे देश में अंग्रेजीदां वर्ग द्वारा यह भ्रम भी एक षडयंत्र के तहत फैलाया जाता है कि अंग्रेजी अंतररा‍ष्‍ट्रीय भाषा है, इस कारण इंग्लिश मीडियम जरूरी है। यह मात्र एक भ्रामक तथ्‍य है। अंग्रेजी तो केवल उन्‍हीं मुल्‍कों के लिए तथा‍कथित रूप से अंतरराष्‍ट्रीय भाषा बना कर रखी गई है, जो कभी अंग्रेजों के गुलाम थे, हमारा देश भी इनमें शामिल है और इन गुलाम देशों के अलावा, और किसी-भी देश में अंग्रेजी को एकमात्र अंतरराष्‍ट्रीय भाषा नहीं माना जाता। बाकी देश जैसे- चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि देशों में यह भ्रम नहीं है, वे संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की पांचों भाषाओं को अंतरराष्‍ट्रीय भाषा मानते हैं, केवल अंग्रेजी को नहीं। और इसी आधार पर इन सभी सार्वभौम देशों में उनकी शिक्षा-व्‍यवस्‍था और राजतंत्र उनकी अपनी भाषाओं में चलता है। आज समय आ गया है कि हम इस मानसिक गुलामी संबंधी तथ्य को समझ लें।
15. लोकतंत्र में शासन में जनता की सहभागिता तभी आ सकती है जब शासन व्यवस्था जन-भाषाओं में हो। यूरोप में लोकतंत्र के विकास के साथ वहाँ की जनभाषाएं शासन प्रशासन और शिक्षा का हिस्सा बनीं। भारत में कहने के लिए लोकतंत्र है। पर ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ की वजह से शासन प्रशासन के स्तर पर क्या घोल-मेल होता है यह जनता के समझ के बाहर है। जनता न तो मूलतः अंग्रेजी में लिखे कानून को समझ पाती है और न ही उसके आधार पर चलने वाली प्रशासनिक प्रक्रिया को और न ही उसके कलिष्ट हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में अनुवाद को ही।
16. राज-व्यवस्था और जन-सधारण में अन्तर को बनाये रखने के लिए ही ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ को हमने आज तक संभाल कर रखा हुआ है। यह सिस्टम ही सत्ता को चंद हाथों तक समेटे रख भ्रष्टाचार की संस्कृति को पैदा करता है। 90% आबादी को सत्ता और अधिकारों से दूर रख गैर-बराबरी को कायम रखता है, शोषण को स्थायित्व प्रदान करता है। यह इंग्लिश प्रधान व्यवस्था ही है जो इस देश को भारत और इंडिया में विभाजित करता है। 1947 के सत्ता हस्तांतरण के बाद जो आजादी मिली वह इंडिया के हिस्से में आयी। भारत तो आज भी इंडिया का उपनिवेश है। इंडिया ही उस वक्त शिक्षा शासन-प्रशासन और सत्ता के तमाम केन्द्रों पर काबिज़ था। उसकी सुविधा की भाषा ही अंग्रेजी थी। यहाँ तक कि मूल संविधान भी अंग्रेजी में ही बना था। भारतीय भाषा में तो उसका अनुवाद ही हुआ था। अंग्रेजीदां वर्ग की सुविधा के लिए ही 15 वर्ष तक अंग्रेजी को बनाए रखने का सांवैधानिक मार्ग रचा गया। ये 15 वर्षों की अवधि हमेशा आगे ही बढ़ाई जाती रही और आज भी सब जगह अंग्रेजी का ही राज चल रहा है।
17. सच्चाई तो यह है कि 1947 के बाद भारतीय भाषाओं के प्रसार के लिए कोई ईमानदार और गंभीर प्रयास ही नहीं किया ही नहीं गया । स्वतंत्रता प्राप्ति‍ के बाद भी यूपीएससी (UPSC) द्वारा आयोजित की जाने वाली समस्त परीक्षा अंग्रेजी में ही ली जाती रही है। भारतीय सिविल सेवा (आई.सी.एस.) की परीक्षा के लिए भी भारतीय भाषाओं के दरवाजे 1979 में ही खोले गये। वह भी अंग्रेजी की अनिवार्यता और वर्चस्व के साथ। युपीएससी के द्वारा ली जाने वाली तमाम दूसरी परीक्षाएं अब भी अंग्रेजी में ही ली जा रही है । माननीय सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के जज तो अनिवार्य रूप से अंग्रेजीदां वर्ग से ही होगे । 1947 से पूर्व हम राजनैतिक रूप से गुलाम थे पर मानसिक रूप से आजाद थे। आज स्थिति‍ उसके ठीक उलट है। अंग्रेजीदा वर्ग ने हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाया है । आज भारत(90%लोग) अंग्रेजीदां-एलिट-इंडिया(3%) के गुलाम है ।शेष 7%गुलामी के तंत्र को बनाए रखने में इस्तेमाल किए जाते है ।
18. प्रो. प्रोमेश आचार्य का अध्ययन भी यह कहता है भारतीयों का अंग्रेजी के प्रति मोह आजादी के बाद के वर्षों में बढ़ा है। आज देश का अधिकांश युवा अपने आप को ‘विटामिन-ई’(इंगिलिश) की कमी ‘डेफिशियेंसी’ की वजह से कमजोर मानने लगा है। युवाओं में कमजोरी का यह भ्रम एक षड़यंत्र के जरिए स्‍थापित किया जाता रहा है, जो कि ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ की ही देन है। किसी भी परीक्षा या शिक्षण संस्थान में अंग्रेजी की अनिवार्यता ग्रामिण, वनवासी, कस्बई, गैर-अंग्रेजीदा शहरी लोगों को 20% से 100% तक पीछे धकेलती है । साथ ही मानसिक रूप से हीन भावना से ग्रसित करती है ।( प्रयोग के आधार पर प्रमाणित बात ।)
19. अतः भारत को मानसिक गुलामी की गैर-बराबरी, शोषण और भ्रष्टाचार को बनाए रखने वाली व्यवस्था से मुक्ति के लिए भारत की भाषाओं को एक मंच, एक प्लेटफार्म पर आने की जरूरत है। अंग्रेजीदां वर्ग ने संविधान के कुछ अनुच्‍छेदों की आड़ में भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा कर अंग्रेजी के माध्यम से राज-काज को अंग्रेजीदां वर्ग तक ही समेटे रखने की चाल चली है। अभी तक एक तरफ हिन्दी को राजभाषा बनाने और उसका प्रसार करने की मात्र खानापूर्ति की जाती रही है, दूसरी तरफ़ हिंदी सहित अन्‍य सभी भारतीय भाषा-भाषी वर्गों को अंग्रेजी के मुकाबले दोयम दर्जे पर ला कर खड़ा कर दिया गया है।
20. कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण के कार्टून(साथ संलगन) भी इस बात को स्‍पष्‍ट करते हैं कि अंग्रेजीदां वर्ग ने ही हिन्दुस्तानी भाषियों को आपस में लड़वाया। अंग्रेजी के माध्यम से अंग्रेजी परस्त एलिट तबके ने सत्ता (नौकरशाही, न्याय, ज्ञान, पूँजी) को अपने तक ही सीमित रखा। इसी का परिणाम है कि विश्व ज्ञान क्रम में भारत पिछड़ता रहा है।(देखे पुस्तक) आज हमारे देश के सभी स्कूल तोते तैयार करने की फैक्ट्रियों में तब्दील हो चुके हैं। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग का कोई भी अभिभावक खुशी से अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिल नहीं करवाता है। यह तो सिस्टम के साथ‘एडजस्ट’ होकर चलने की मजबूरी है, जो उसे ऐसा करने को बाध्य करती है।
21. इस संबंध में, माननीय सुप्रीमकोर्ट ने पिछले दिनों अंग्रेजी माध्‍यम छात्र अभिभावक बनाम कर्नाटक राज्‍य (English Medium Students Parents vs State Of Karnataka on 8 December, 1993, 1994 AIR1702, 1994 SCC (1) 550) वाद पर दिया गया निर्णय भी विचारणीय है।( इस फैसले के खिलाफ माननीय सर्वोच्च न्यायालय में PIL ‘व्यवस्था बोझ बच्चों के सर’ साथ संलग्न है। उसकी एक कॉपी पहले भी भेज चुका हूँ ।) अभिभावक भी जानता है कि उसका बच्चा उसी बोली में सहज है जो उसके परिवेश में बोली जाती है, पर उसके बावजूद वह सिस्टम के दबाव में इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेड-बकरियों की तरह अपने बच्चे को ठूँसता जाता है। यह इंग्लिश मीडियम सिस्टम का दबाव है, जिसकी वज़ह से अभिभावक इंग्लिश मीडियम स्कूलों को चुन रहा है। अभिभावकों द्वारा मजबूरी में लिए गये निर्णय को उनका मौलिक अधिकार नहीं कहा जा सकता है। जब तक यू.पी.एस.सी. और इस जैसी तमाम संस्थाएं अंग्रेजी भाषा/माध्यम विभिन्‍न पदों पर चयन का पैरामीटर/मानदंड बनाती रहेंगी, तब तक संविधान की धारा 350A एक प्रभावहीन अपैंडिक्स मात्र ही बना रहेगा।
22. इंग्लिश मीडियम सिस्टम का प्रभाव ही है कि इंग्लिश बोल पाने की योग्यता को ही लोगों ने भ्रमवश ज्ञान और व्‍यक्तित्‍व–निर्माण समझ लिया है। बच्चे ही नहीं व्यस्कों की मौलिक समझ भी अपनी मातृभाषा (परिवेश की भाषा-बोली) में ही प्रस्‍फुटित होती है। पर यह सिस्टम का ही दबाव है कि लोग अंग्रेजी में रटी-रटाई बात को उगलने को ही ज्ञान समझ बैठते हैं। अतः इंग्लिश मीडियम सिस्टम को बनाए ऱखने में संविधान की धारा 348, 343(1) &(2), 147 और धारा 348 का धारा 210 और 120 पर प्रभाव की अहम भूमिका है। अंग्रेजी माध्यम व्यवस्था रूपी रावण की नाभि अनुच्छेद 348 और 147 छुपी है। अतः इन धाराओं को तत्‍काल प्रभाव से बदलने की जरूरत है। यू.पी.एस.सी., डी.एस.एस.एस.बी., एम्स, आई.आई.टी. विश्वविद्यालय, जैसी संस्थाएं तो आम जनता के विरुद्ध ‘बैरिकेटिंग एजेंसी’ का काम कर रही हैं। इनका स्वरूप भी तब बदलेगा जब सत्ता का स्वरूप बदलेगा।
23. बच्चे की मातृभाषा बच्चे के परिवेश पर निर्भर करती है न कि उसके मजहब़, माता-पिता-वंश आदि पर। बच्चा ही नहीं, बड़ा व्यक्ति भी अपने परिवेश की बोली को बड़ी सहजता के साथ अपना लेता है (देखे- ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ दैट इज‘अंग्रेजी राज’ के अध्याय 15-भाषा एवं संस्कृति को समझने हेतु किये कुछ विशेष अध्ययन, एवं 16- हिन्दुस्तानी – औरंगाबाद शहर में हिन्दुस्तान की मिली जुली संस्कृति का अध्ययन)। संविधान के अनुच्छेद 350A के तहत बच्चे की मातृबोली (मातृभाषा कहना गलत है) पता लगाने के लिए बच्चे के परिवेश का अवलोकन करने की जरूरत है। पुस्तक के अध्याय-17 ‘मातृभाषा का अर्थ माँ-बाप की भाषा नहीं होती’ में स्पष्ट किया है कि मातृ-परिवेश की बोली ही मातृ-बोली होती है। मातृ-बोली पूर्ण संरचित नहीं होती परन्तु मिश्रित प्रकृति की मिली जुली भाषा होती है। यह प्रक्रिया स्थाई रूप से चलती रहती है। अतः इसे किसी भाषा विशेष में विभाजित करके नहीं देखा जा सकता।

“मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर

अनुकूलन' अर्थात आपको जिस सांचे में ढाला गया आपने बिना जाने, समझे व जांचे उसको ही सत्य व संपूर्ण मानकर स्वयं को ढाल लिया या ढल गए स्वयं को सांचे में ढालने के बाद दूसरों को भी उस सांचे मे ढालने के लिए सांचे में ढलने की प्रक्रिया का वाहक बन गए।
हम ढाले जाते हैं या ढल जाते हैं और दूसरों को ढालने लगते हैं और यह ढलना स्वतः चालित प्रक्रिया का रूप ले लेता है। स्वतः चालित प्रक्रिया से सांचे में ढलना ही अनुकूलन है। अनुकूलन जीवन के प्रत्येक विषय पर विभिन्न स्तरों पर लागू होता है। अनुकूलन वैचारिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, जीवन-मूल्य, शारीरिक, चेतना, भाव, मान्यतायें, समझ, अनुभव आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है।
यदि हमें जीवन, प्रकृति, अस्तित्व, ईश्वर, जीवन-मूल्य, भाव व सत्य आदि को उसके यथार्थ के साथ समझने की ईमानदार चेष्टा करनी है, तो हमे स्वयम् को मानव-निर्मित मान्यताओं, तथ्यों, तंत्रों, धर्मों, ईश्वर, सत्य, जीवन-मूल्य व भाव आदि के जंजाल से बाहर निकलना होता है।  अनुकूलन से बाहर निकलने की यह ईमानदार चेष्टा ही 'अननकूलन' होती है।
मनुष्य की चेतना " क्रियाशीलता, गौरवशालिता व आत्म-साक्षात्कार " आदि को सहजता, प्रमाणिकता व जीवंतता के साथ जीना चाहती है। मनुष्य की चेतना की क्रियाशीलता व चाहना कुछ और होती है। किंतु मनुष्य पारंपरिक अनुकूलता के बनाए भ्रमों व अनुकूलता को ही ज्ञान व सत्य मानकर प्रपंचों में जीता रहता है। प्रपंचो, छद्मों व अनुकूलिता को ही जीने में खुद के जीवन की श्रेष्ठता, सार्थकता व उद्देश्य देखता है और खुद में गौरवाशाली होने के छद्म को जीता है। इसीलिये मनुष्य अपने जीवन में बौद्धिक, भावनात्मक, धार्मिक, वैचारिक, आर्थिक व शारीरिक आदि विभिन्न स्तरों पर सैडिज्म को जीता है, और हिंसक तरीके से जीता है।
परंपरा में हिंसक व लोभी लोगों ने विभिन्न प्रकार की सत्ताओं को निर्मित किया और अपनी सत्तायें सुनिश्चित करने के लिए, मनुष्य को सरलता से उत्प्रेरित करने वाले तत्वों जैसे शारीरिक सुरक्षा, सेक्स के लिए शरीर की उपलब्धता, भविष्य की सुरक्षा के लिए संग्रह लोभ, पुरुषार्थ से भागना, हिंसा व दूसरों को हीन मानना आदि को पहले मानव प्रकृति की आवश्यकता फिर श्रेष्ठता शक्ति-सत्ता के रूप में परंपरा में स्थापित करके; मनुष्य व समाज को बहुत ही दृढ़ता से अनुकूलित कर दिया।
 दर्शन बिना कर्म के नहीं आता और कर्म बिना अननकूलन के नहीं होता
मनुष्य को जीवन दर्शन व कर्म को समझने के लिए बस यही पंक्ति ही पर्याप्त है। यदि मनुष्य परंपरा में स्थापित विभिन्न प्रकार की व विभिन्न स्तरों की अनुकूलिता से बाहर आकर सहज हो जाए तो वह परपीड़ासक्ति व हिंसा आदि ऋणात्मकताओं से स्वतः बाहर आने लगता है। समाधान की ओर गति करने का यही एकमात्र तरीका होता है। लेकिन मनुष्य है कि मोटी मोटी धार्मिक पोथियां रटता रहता है। अतथ्यात्मक तर्क वितर्क करते हुए मनचाहे विश्लेषणों से सत्य, ब्रम्ह व ईश्वर को खोजता रहता है। स्वयं भी भ्रमित होता है, दूसरों को भी भ्रमित करता है। लेकिन स्व-श्रेष्ठता के अहंकार की जिद में खुद का भ्रम स्वीकारने को तैयार भी नहीं होता है। यह भी एक बड़ा मूलभूत कारण है, भारतीय सभ्यता में पारंपरिक रूप से "कर्मशीलता" के प्रति उपेक्षा व तिरस्कार रहने का।
यह पुस्तक उन लोगों के लिए बहुत कुछ लिए हुए है, जो लोग भारतीय समाज के विकास व समाधान के लिएईमानदार सोच व प्रतिबद्धता रखते हैं; साथ ही यह विश्वास करते हैं कि देश व समाज का निर्माण मनुष्य ही करता है और समाज निर्माण की अपने हिस्से के उत्तरदायित्व व प्रतिबद्धता को जीवंत रूप में जीकर साकार करना चाहते हैं।
यह पुस्तक मुख्यतः मनुष्य की कर्मशीलता पर आधारित सामाजिक समाधान के प्रति प्रयासों व क्रियाशीलता और अननकूलता पर केंद्रित है।  यह पुस्तक दृढ़ता से विश्वास करती है कि परिवार, समाज, देश, परंपराएं, जीवन मूल्य व मानव-निर्मित-ईश्वर आदि किसी पराप्राकृतिक शक्ति अथवा वास्तविक ईश्वर द्वारा नहीं बनाए गए हैं; इसलिए मानव समाज को बने बनाए नहीं प्राप्त हुए हैं, वरन् मनुष्य ने परिवार, समाज व देश आदि का क्रमिक निर्माण किया।
इस पुस्तक का लेखक सक्रिय यायावर है जिसने कि भारत के हजारों गावों को असंगठित तरीके से पदयात्रा करते हुए देखने समझने की चेष्टा की है और लगभग दो दशक से भारतीय समाज के आर्थिक, सामाजिक व चेतनशील विकास के लिए हजारों परिवारों के लिए धरातल पर काम करता आया है। इस बात पर विश्वास करता है कि परिवार, समाज व देश; वास्तविक ईश्वर द्वारा रचित सहज प्राकृतिक तत्व न होकर, मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम तंत्र हैं। पुस्तक में लेखक सामाजिक समाधान, विकास व चेतनशीलता के लिए मानव-निर्मित-ईश्वर के अवतार या हस्तक्षेप के द्वारा बने बनाए समाधान की कल्पना व अपेक्षा करने के स्थान पर मनुष्य व समाज के प्रयासो की कर्मशीलता की चर्चा करता है।
धार्मिक तंत्र, राजनैतिक तंत्र व आर्थिक तंत्र आदि, मनुष्य द्वारा निर्मित समाज व देश के तंत्रगत-अवयव होते हैं; जिन्हें प्रासांगिकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है। मनुष्य परिवार, समाज व देश निर्माण की प्रक्रिया में विभिन्न अवयवों व तंत्रों का निर्माण करता है, आवश्यकतानुसार उन्हें परिवर्तित करता रहता है। अवयवों व तंत्रों के निर्माण व परिवर्तन की प्रक्रिया में वह सीखता है और सीखते हुए क्रमिक रूप से बेहतर निर्माता व परिवर्तक बनता जाता है। सीखते हुए निर्माण व परिवर्तन की क्रमिक प्रक्रिया ही लोकतंत्र का मूलभाव होता है जो कि मनुष्य को मूलरूप से लोकतांत्रिक बनाता है।
देश, समाज व मनुष्य 
मनुष्य के बिना परिवार, समाज व देश नहीं हो सकता; जहां कहीं भी मनुष्य होगा वहाँ परिवार, समाज व देश होगा ही होगा। मनुष्य परिवार, समाज व देश से बड़ा है, क्योंकि वह निर्माता है। देश व समाज की सत्ता, जीवन-मूल्य, नियम-कानून, रीति-रिवाज, खानपान, रहन-सहन, भाषा, लिपि, धर्म, धार्मिक कर्मकांड व संस्कृति सभी कुछ मनुष्य ही निर्मित, निर्धारित व परिवर्तित करता है। यही सहज सामाजिक तथ्य है; शेष राजनैतिक व धार्मिक सत्ताओं द्वारा अपने वर्तमान अस्तित्व के लिएतोड़मरोड़ कर उनके अपने निहित-स्वार्थों के लिएथोपी गयीं परिभाषायें व तर्क हैं।
मनुष्य देश का जनक, निर्माता, पोषक व उत्तमता तक पहुंचाने वाला होता है। देश मनुष्य की अपनी जीवंतता व उसके जीवन में व्याप्त परस्परता की जीवंतता से बनता है, इसलिएदेश राजनैतिक सीमाओं की निर्जीव-वस्तु न होकर, जीवंत-वास्तविकता होता है, जिसका निर्माता मनुष्य होता है। मनुष्य और देश का गूढ़ गतिशील, चारित्रिक व जीवंत-रचनात्मक संबंध होता है।
देश मूल रूप में मनुष्य की सामाजिकता की गतिशील-जीवंत-चारित्रिक रचनात्मकता है। इसलिएजैसा मनुष्य होगा वैसा ही देश होगा। मनुष्य जब चाहे तब देश का नाम, देश की परंपरायें, देश के कानून, देश का संविधान, देश का भूगोल, यहां तक कि देश का नाम तक बदल सकता है।  परिवार, देश व समाज का निर्माण व विकास करना मनुष्य की जिम्मेदारी है।
जिस दिन भारत का मनुष्य यह यथार्थ समझ जायेगा कि देश मूलरूप से मनुष्यों से बनता है, न कि निर्जीव कानूनों, कानून की पुस्तकों, संविधानों, धार्मिक सत्ताओं या राजनैतिक सत्ताओं से; उस दिन भारत का मनुष्य अपने देश का पूरा का पूरा चरित्र एक झटके में बदल लेगा। यही वास्तविक व व्यापक परिवर्तन होगा। मानव निर्मित सत्ता तंत्रों को चलानें वाले वैयक्तिक-समूहों, दलगत-समूहों को बदलना वास्तविक व व्यापक परिवर्तन नहीं होता है।
मनुष्य देश का जनक, निर्माता, पोषक व उत्तमता तक पहुंचाने वाला होता है, इस यथार्थ को समझना व चारित्रिक रूप से जीना ही मनुष्य का लोकतांत्रिक होना है। मनुष्य की इस लोकतांत्रिकता के द्वारा ही उसका देश लोकतांत्रिक बनता है। किसी देश को उस देश के मनुष्य लोकतांत्रिक बनाते है, दूसरे शब्दों में लोकतांत्रिक मनुष्य ही देश को लोकतांत्रिक बनाता है, न कि देश का कानून, संविधान व सत्ता प्रणाली। सत्ता प्रणाली राजतंत्रीय होते हुएभी देश व मनुष्य लोकतांत्रिक हो सकता है।
नेतृत्व
मानव निर्मित तंत्रों की सत्ताओं के द्वारा व्यापक सामाजिक-परिवर्तन के लिए  सामाजिक-नेतृत्व प्रस्फुटित नहीं होता; सामाजिक-नेतृत्व राजनैतिक, धार्मिक व आर्थिक सत्ताओं से इतर आम समाज की मौलिकता व गुणवत्ता से स्वतःस्फूर्त रूप से प्रस्फुटित होते हैं।
राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक व नौकरशाही तंत्रों में कोई भी सामाजिक-अवतार नहीं होता जो सामाजिक-अवतार जैसे दिखते हैं वे सभी किसी न प्रकार से व किसी न किसी स्तर पर प्रायोजित ही होते हैं। सामाजिक-अवतार तो आम समाज से अंकुरित व प्रस्फुटित होते है और मनुष्य निर्मित सत्ताओं के बिना रहते हैं। क्योंकि यदि सामाजिक-अवतार मनुष्य निर्मित सत्ताओं के द्वारा समाधान की शक्ति प्राप्त करते हैं, तो ऐसे सामाजिक-अवतार मनुष्य निर्मित उन्ही तंत्रों के ही अधीन हुये, जिन तंत्रों को परिवर्तित करने की आवश्यकता है। ऐसी परिस्थिति में तंत्रों की सत्ताओं के विरुद्ध जाने का साहस व दृष्टि हो ही नही सकती है।  इसीलिए तंत्रों द्वारा प्रायोजित सामाजिक-अवतार कभी भी सामाजिक समाधान व परिवर्तन की ओर नहीं चल पाते है, ऐसे सामाजिक-अवतारों की उपलब्धियाँ भी प्रायोजित ही होती हैं।
भारतीय समाज में तो कुत्ता, बिल्ली, चूहा, सुअर, चिड़िया, सांप, कछुआ, गाय, बैल आदि जैसे गैर-मानव योनि जीव भी सामाजिक-अवतारों के रूप में प्रतिस्थापित किए गए हैं। इनको किसी भी प्रकार की मानव निर्मित सत्ताओं की ताकत नहीं मिली।
सामाजिक-अवतार यदि सत्ताधीश है तो वह कभी भी मानव समाज का वास्तविक सक्रिय आदर्श नहीं हो सकता। क्योंकि मानव निर्मित सत्ताओं की रूप-रेखा शुंडाकार-स्तंभ (पिरामिड) की तरह गढ़ी गईं है, जिनमें सबसे नीचे के आधार सबसे चौड़े और सबसे ऊपर की चोटियाँ सबसे नुकीली व सबसे कम चौड़ी होती हैं।
मानव निर्मित सत्ताओं में जो जितना ऊपर होगा वह उतना ही कम चौड़ा और अधिक नुकीला होगा और अपने से बहुत ही अधिक लोगों को दबाते हुए, निरंतर दबाए रहते हुए ही और ऊपर पहुँचता है। इसीलिए मानव निर्मित तंत्रों के सत्ताधीश लोग कभी भी आम मनुष्य के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते, व्यापक-समाधान की दृष्टि नही रख पाते हैं। यही कारक है जिनके कारण ऐसे लोग सामाजिक परिवर्तन व समाधान के सामाजिक-अवतार नहीं हो पाते हैं। सामाजिक-अवतार तो बहुत सहज, सामान्य व मानव निर्मित तंत्रों की सत्ताओं के बिना ही हो पाते हैं।
विश्व में अ-आयुधनिक सहज वैज्ञानिक-आविष्कार, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक विकास, वैचारिक क्रांतियां आदि आम समाज से निकले आम मनुष्यों द्वारा मनुष्य-निर्मित धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि सत्ताओं का विरोध व प्रताड़ना झेलकर ही हुएहैं।
सामाजिक-नेतृत्व
सामाजिक-परिवर्तन व निर्माण कर पाने में सक्षम नेतृत्व का प्रस्फुटीकरण मौलिकता, गुणवत्ता, दूरदर्शिता, स्वतः स्फूर्तिता व बिना मिथकों के प्रयोजन से ही होता है। भारत जैसे बड़े देश व समाज में स्वतः स्फूर्त व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न सामाजिक-नेतृत्व का प्रस्फुटीकरण न हो पाने के प्रमुख कारण जाति-व्यवस्था, ईश्वरीय अवतारों व इन अवतारों का धरती पर ईश्वरीय व्यवस्था के प्रयोजन के कारण अवतरित होने की अवधारणाएं, साहित्यिक काव्यों/ग्रंथों को संपूर्ण ज्ञान व ईश्वरीय मानने की अवधारणएं, पोथियाँ, पौराणिक कथाएं व सामंतवादी मानसिकता आदि रहे हैं।
जाति-व्यवस्था के कारण सामाजिक-नेतृत्व का मूल-आधार पुरुषार्थ, कर्म व क्षमता आदि जैसे तत्व नहीं हो पाये। ब्राम्हण, क्षत्रिय व वैश्य जाति के लोगों के पास ही सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक नेतृत्व के जन्मजात अधिकार रहे। इसीलिए नेतृत्व की दावेदारी समाज की मौलिकता व गुणवत्ता की बजाए जन्म-आधारित जाति-व्यवस्था के कारण समाज के बहुत ही छोटे हिस्से में ही संकुचित व कुंठित रही।  जन्मजात नेतृत्व की दावेदारी करने वाले समाज के इस हिस्से की अधिकतर ऊर्जा जाति-व्यवस्था को ईश्वरीय प्रयोजन सिद्ध करते रहने के लिए कपोल कल्पित ईश्वरीय गाथाएं, मिथक व कपोल कल्पित ईश्वरीय अवतार प्रायोजित करने व गढ़ने मे ही लगती रही।  सामाजिक-नेतृत्व के सतही व अवैज्ञानिक होने, ढोंग व मिथकों आदि के द्वारा प्रायोजित होते रहने के कारण मौलिक, गुणवान व दृष्टिवान सामाजिक-नेतृत्व की संभावनाओं का भ्रूण भी नहीं पनप पाया।
सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग की अवधारणा; जन्मजात जाति-व्यवस्था; धर्म का क्षय होने पर धर्म की रक्षा के ईश्वर के द्वारा अवतार लेने की अवधारणा; मंत्रों व ईश्वरीय नाम के जाप द्वारा सुविधा/प्रतिष्ठा/समृद्धि आदि का मनचाहा वरदान या सिद्धि प्राप्त कर पाने की अवधारणा; सृष्टि के प्रारंभ में मनुष्य सत्य में था देवतुल्य था; आदि आदि जैसी विभिन्न अवैज्ञानिक अवधारणाओं ने भारतीय समाज मे सामाजिक-नेतृत्व की भ्रूण-संभावना को ही नष्ट कर दिया और भ्रूण-संभावना का यह नष्टीकरण परंपरा में हजारों वर्षों तक व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक मानसिकता आदि के विभिन्न स्तरों में गहरे अनुकूलन को प्रायोजित व स्थापित करने के साथ होता रहा।
ज्ञान व सामाजिक-नेतृत्व के लिए ब्राम्हण जाति में पैदा होकर पोथियाँ, पुराण, महाकाव्य, काव्य आदि रट कर उनको मुंह से बोलना व उनमें बताए हुए कर्मकांड आदि को करना ही पर्याप्त रहा।  मिथकों के प्रायोजन व प्रायोजित मिथकों पर शाब्दिक व साहित्यिक विशेषज्ञता आदि के आधार पर सामाजिक-नेतृत्व का स्तर व प्रतिष्ठा निर्धारित होती रही। ब्राम्हण वर्ग की अधिकतर ऊर्जा इन्ही सबमें लगती रही और ऐसा करने को ही संस्कृति, संस्कार, पुरुषार्थ, ज्ञान, योग्यता आदि का नाम दे दिया गया।
भारत की सैकड़ों वर्षों की राजनैतिक गुलामी का सबसे प्रमुख कारण यही रहा कि क्षत्रिय वर्ग को दरबारी भाटों, चाटुकारों व मिथक-साहित्य विशेषज्ञों ने झूठी कहानियाँ व मिथक गढ़ कर ही जन्मजात पुरुषार्थी, निर्भय, रक्षक, शासक, राजनैतिक दूरदर्शिता व दृष्टिकोण आदि से संपन्न प्रायोजित कर दिया। गढ़े हुए मिथकों की पुष्टि करने के लिए ब्राम्हण वर्ग ने अनेकों पौराणिक कथाएं परंपरा में सत्य कथाओं के रूप में प्रायोजित करके, राजनैतिक सत्ता से अपना संतुलन-संबंध स्थापित करने के लिए क्षत्रिय वर्ग के द्वारा राजनैतिक सत्ता के भोग को ईश्वरीय प्रावधान के दायित्व का निर्वहन प्रायोजित कर दिया।
यदि पौराणिक कथाओं को संज्ञान में लिया जाए तो मानव समाज की समस्यायें समाधानित करने के लिए, मानव समाज को विकास की ओर गतिमान करने के लिए; ईश्वर खुद अवतार के रूप में आवश्यकता पड़ने पर बारंबार सामाजिक-नेतृत्व करने आता रहा। इसप्रकार सामाजिक-नेतृत्व मनुष्य की वास्तविक पुरुषार्थ, समझ की क्षमता व मानसिकता से अर्जित न होकर ईश्वरीय योजनाओं का प्रावधान के रूप में प्रायोजित व स्थापित रहा। इन मिथकों से भारतीय समाज में अकर्मण्यता प्रतिष्ठित हुई और मौलिक-गुणवत्ता की परंपरा में बारंबार भ्रूणहत्या होती रही।
समय के साथ अवतारों की बजाए अवतारों की गाथाएं गढ़ने वाले, अवतारों की चर्चा करने वाले, ग्रंथों/महाकाव्यों/काव्यों आदि को रटने वाले, धार्मिक अनुष्ठानों व कर्मकांडों आदि को करने वाले सामाजिक-नेतृत्व के रूप में प्रायोजित व स्थापित किए जाने लगे। ब्राम्हण व क्षत्रिय को सिर्फ जाति विशेष में पैदा होने के कारण ही ‘सामाजिक-नेतृत्व’ की मान्यता दी जाती रही। परिणामस्वरूप ‘सामाजिक-नेतृत्व’ भी जन्म के आधार पर प्रायोजित होता रहा।
भारत में ‘सामाजिक नेतृत्व’ लोगो में ‘आभामंडल-सत्ता’ स्थापित करने का और विभिन्न सत्ताओं द्वारा प्रायोजित होने का ही रहा है, इसीलिये ‘सामाजिक नेतृत्व’ और ‘सत्ताओं’ का आपस में बहुत गहरा व विश्वसनीय रिश्ता रहा है। यही कारण रहा कि भारत में शताब्दियों के बाद आज तक भी भारतीय समाज में स्वत: स्फूर्त ‘सामाजिक नेतृत्व’ नहीं आकार ले पाया।
चूंकि समाज में जाति-व्यवस्था के कारण स्वतः स्फूर्त, वास्तविक-गुणवान व मौलिक नेतृत्व विकसित होने की परंपरा नही बनने दी गई। इसीलिए समाज के लोग धूर्त, मक्कार, स्वार्थी, परजीवी, लंपट, भोगवादी, कामचोर और अवसरवादी आदि होते चले गए, क्योंकि जाति-व्यवस्था के निरंतर स्थापना-प्रयोजन के लिए यही आधारभूत मूल्य व तत्व होते हैं।  जाति-व्यवस्था के कारण भारतीय समाज कभी देश व समाज के प्रति ईमानदार व प्रतिबद्ध नहीं हो पाया इसीलिए केवल व्यक्तिगत लिप्साओं, स्वार्थों, भोगों, विलासिताओं, बाजार के उपभोक्तवाद आधारित उपभोक्ता बने रहने की व्यक्तिगत आर्थिक सुरक्षा आदि आधारित स्वार्थ-केंद्रित  महात्वाकांक्षाओं के लिए प्रयत्न करना ही जीवन का मायने प्रायोजित हो गया।
भारतीय समाज में सामाजिक-नेतृत्व की वास्तविकता समझने के लिए एक कहानी को ही समझना पर्याप्त है। महान गुरू के रूप में स्थापित द्रोणाचार्य ने अद्वितीय प्रतिभाशाली किशोर एकलव्य के दाहिने हाथ का अगूँठा केवल इसलिए कटवा दिया, क्योंकि एकलव्य आदिवासी था और द्रोणाचार्य अपने शिष्य जो कि एक बहुत बड़े राज्य का राजकुमार था, को महान धनुर्धारी के रूप में प्रायोजित करना चाहते थे। यह कहानी उस समाज की है जो गुरू-शिष्य परंपरा की संस्कृति की बात करता है और जिस समाज ने द्रोणाचार्य को महानतम गुरू के रूप में प्रायोजित कर रखा है। द्रोणाचार्य बहुत धनुर्धारी हो सकते थे लेकिन उन्होने सामाजिक गुरू होने के मूल्यों का पतन किया और भारतीय समाज को एकलव्य जैसे अद्वितीय धनुर्धारी से वंचित कर दिया, इसके बावजूद उनको भारतीय संस्कृति के महानतम गुरुओं में प्रायोजित कर रखा गया है। भारतीय समाज ने विभिन्न स्तरों व क्षेत्रों में अनगिणत एकलव्यों के अगूँठे काटे हैं, काश यदि इन एकलव्यों के अगूँठे नहीं काटे गए होते, काश विभिन्न स्तरों पर प्रायोजित लोग स्थापित नहीं किए गए होते तो आज भारत को वैदिक-काल की गाथाएं गाकर खुद को महान सिद्ध करने की आवश्यक्ता नहीं रहती, न ही भारत सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहता और न ही आज पिछलग्गू होता।
समाज का बहुत बड़ा हिस्सा शूद्र-वर्ण में रखा गया, जिसको जीवन के मौलिक अधिकार पशुओं के जैसे तक नहीं थे। शुद्र-वर्ण के अतिरिक्त जो वर्ण थे, उन वर्णों की भी लगभग आधी जनसंख्या अर्थात स्त्री को पशु और वस्तु की श्रेणी में रख दिया गया। इस प्रकार समाज का चार-पाँचवा जैसा बहुत बड़ा हिस्सा परंपरा में अपनी मौलिकता की भ्रूण-हत्या व अघोषित दासता का बर्बर-शोषण ही झेलता रहा। बचा-खुचा एक-पाँचवा हिस्सा परंपरागत प्रायोजन की कुंठित-सीमा में ही तथाकथित सामाजिक-नेतृत्व देता रहा।
प्रायोजित सामाजिक-नेतृत्व ने स्त्री जो कि जीवंत व चेतनशील मनुष्य है। उस स्त्री को वस्तु के रूप में प्रायोजित कर दिया, मनुष्य के रूप में स्त्री के अस्तित्व व चेतनशीलता का कोई वजूद ही नही रहने दिया गया। स्त्री को पुरुष की अघोषित संपत्ति बना दिया गया। स्त्री जिस पुरुष की संपत्ति है, उस पुरुष के अस्तित्व में ही अपने अस्तित्व को बिना सवाल विलीन करने व ऐसा करने में अपने जीवन का लक्ष्य व गौरवशीलता महसूसने के लिए परंपरा में अनुकूलित कर दिया गया।
जो संस्कृति स्त्री को देवी मानने का दावा करती है। उसी के समाज में स्त्री को प्रेम करने से वंचित कर दिया गया, स्त्री जिसे देवी कहा गया उसी को अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने के अधिकार नहीं रहे। यहाँ तक कि स्त्री को अपना पति तक चुनने का अधिकार नहीं रहा। जिस स्त्री को देवी कहा गया उसी को पर्दा में धकेल दिया गया, शिक्षा से वंचित रखा गया व संपत्ति में अधिकार नहीं दिए गए ताकि वह सदैव पुरुष की दास बनी रहे। स्थिति की भयावहयता की कल्पना इस बात से की जा सकती है कि स्त्री के माता-पिता ही स्त्री की हत्या माता के पेट में ही कर देते हैं, आज भी प्रतिवर्ष लाखों स्त्रियों की हत्या माता के गर्भ में ही खुद उनके ही माता-पिता द्वार कर दी जाती है। आज भी हजारों स्त्रियों की हत्या उनके ही माता-पिता व परिवार के द्वारा केवल इसलिए कर दी जाती है, क्योंकि स्त्री अपने माता-पिता व परिवार की इच्छा के विरुद्ध जाकर अपनी इच्छा से प्रेम करती है।
स्त्री जिसे देवी कहा गया वही स्त्री प्रेम करे तो वह चरित्रहीन व कुलटा, वही स्त्री पर्दा न करे तो वह चरित्रहीन व कुलटा, वही स्त्री पुरुष की उपस्थिति में खुलकर खिलखिलाकर हस ले तो वह चरित्रहीन व कुलटा। स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया लेकिन स्त्री के द्वारा पुरुष के अस्तित्व में ही अपना अस्तित्व देखने को ही उसका देवी होना प्रायोजित कर दिया गया। स्त्री के द्वारा परिश्रम से अर्जित संपत्ति का मालिक भी पुरुष और पुरुष के परिश्रम से अर्जित संपत्ति का मालिक भी पुरुष, फिर भी स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी। स्त्री की कर्मशीलता को पुरुष के कारण होना मान लिया गया, स्त्री के द्वारा सामाजिक-नेतृत्व की संभावनाओं के भ्रूण की भी संभावना की स्थिति समाप्त।
यही कारण हैं कि बलात्कार होने पर या स्त्री के साथ दुर्व्यवहार होने पर, समाज स्त्री को ही दोषी ठहराता है। चूंकि स्त्री को मनुष्य माना ही नही गया, इसीलिए स्त्री के पहनावे या बोलचाल या व्यवहार के तरीके को बलात्कार का कारण ठहराया जाता है। इसको कुछ इस रूप में देखा जाए जैसे कि कोई वस्तु यदि रात में घर के बाहर पड़ी है तो कोई भी उसे चुराकर ले जा सकता है, उसी प्रकार स्त्री यदि रात में घर से बाहर है तो कोई भी उसके साथ बलात्कार कर सकता है। कोई महंगी वस्तु यदि छिपाकर न रखी जाए तो उस पर चोरों की नजर पड़ी रहेगी और वे चुराने का प्रयास करेंगे, वैसे ही स्त्री यदि छोटे कपड़े पहने है तो पुरुष स्त्री का स्त्रीत्व चुराएगा। एक समाज जो कि स्त्री को देवी मानता है, वही समाज स्त्री के बारे में सबकुछ बहुत ही अधिक वीभत्सपूर्ण घिनौनेपन और असंवेदनशीलता से तय करता है, जैसे कि स्त्री निर्जीव-वस्तु हो।
शाब्दिक व दार्शनिक तर्कशीलता के मानदंडों में अद्वितीय व विलक्षण संस्कृति, व्यवहारिक धरातल की वास्तविकता में बहुत ही अधिक अमानवीयता व खोखलाहट को ही पोषित करती व जीती रही। दर्शन को व्यवहारिक-जीवंतता के स्थान पर केवल शाब्दिक तर्कशीलता तक ही कुंठित किया जाता रहा। वास्तव में भारतीय समाज की सबसे बड़ी ऋणात्मकताएं ढोंग, अमानवीयता व असंवेदनशीलता हैं और ये तत्व ही मूलभूत कारण हैं कि भारतीय समाज बहुत ही वीभत्सता के स्तर तक आंतरिक रूप से सड़ा हुआ है, फिर भी समाज के लोग जो कि खुद अपने ही जीवन में खोखले होते हैं, किंतु रटे-रटाए दर्शन की कृतिम शाब्दिक-तार्किकता से अपने को व अपनी संस्कृति को जबरन महान सिद्ध करने में ही अपनी ऊर्जा लगाने में गौरव का अनुभव करते हैं। गीता को महान बताने वाला समाज, कर्म को ही उपेक्षित रखता आया है।
प्रकृति व ईश्वर को समझने का दावा करके प्रतिपल कर्मकांडों को रचने व महिमामंडित करने वाली संस्कृति वास्तव में केवल दर्शन की शाब्दिक व कृतिम तार्किकता की अव्यवहारिक विद्वत्ता तक ही कुंठित होकर रह गई। यदि भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था नहीं होती, स्त्री को मनुष्य माना गया होता और दर्शन को शाब्दिक तार्किकता व कृतिमता आदि से ऊपर उठकर समझने व जीने की चेष्टा की गई होती तो भारतीय समाज एक ढोंगी, कुंठित व पिछलग्गू होने की बजाए विश्व के वास्तविक सर्वश्रेष्ठ समाजो में से होता और वास्तव में ही विश्व को विकास व समृद्धि के सार्थक मायने समझाते हुए समाधानित कर रहा होता।
मौलिकता, गुणवत्ता व पुरुषार्थ से इतर अवसरवादिता, छद्म, ढोंग, मोहकता व आकर्षण आदि के प्रायोजन से देश, समाज व आने वाली पीढ़ियों की कीमत पर, पूरी निर्लज्जता और निरंकुशता के साथ भारतीय समाज में सामाजिक-नेतृत्व परंपरा में आजतक प्रायोजित किये जाये जाते हैं।
सामाजिक-नेतृत्व को परंपरा में विभिन्न सत्ता केंद्रों द्वारा प्रायोजित व स्थापित करते रहने के कारण भारतीय समाज अपने लिए  ही क्रूरता की हद तक असंवेदनशील समाज के रूप में दृढ़ होता गया।  कर्म व पुरुषार्थ से नहीं; बचपन से ही अपनी कमजोरियों को देखने, उनके कारणों को समझने और उनको दूर करने की चेष्टा करना सिखाए जाने की बजाए ढोंगो व सतही प्रायोजनो से दूसरों को निर्दयता व असंवेदनशीलता पूर्वक अपने से खराब साबित करके खुद को अच्छा साबित करने की तकनीक सिखाई जाती है। यह मानसिकता ही बचपन से ही जाने-अनजाने चाहे-अनचाहे समाज के मनुष्य मन में भ्रष्टाचार, असंवेदनशीलता, क्रूरता व सामंतवादिता के बीज को पोषित करती रहती है।
हम यदि खुद के जीवन को ध्यान से देखें तो पाएगें कि हमारा अपना पूरा का पूरा जीवन ही झूठ और दिखावा का पुलंदा है।  हमें बचपन से ही दिखावेपन की पुनुरुक्ति के लिए इस तरह का अभ्यास करवाया जाता है कि हम खुद अपने आपको ही भूल जाते हैं और अपने ढोंग, खोखलेपन, निर्दयता, असंवेदनशीलता, अवैज्ञानिक-तर्कशीलता व अतथ्यात्मकता आदि को ही अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकता और सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि व उद्देश्य मानने लगते हैं।
हमें पता ही नहीं  चलता और हम सड़ने लगते हैं।  जब हमे अपने सड़ने की बदबू आती है, हम बदबू का कारण बाहर खोजते हैं।  हम बदबू का कारण बाहर इसलिए   नही खोजते क्योंकि हमे बदबू का कारण वास्तव में खोजना होता है।  ढोंगो और प्रायोजन के आदी हम वास्तव में अपने से अधिक बदबूदार को खोजना चाहते हैं ताकि खुद को उसकी तुलना में खुशबूदार साबित करके खुद को बेहतर प्रायोजित कर खुद को महान मान लें। यही कारण है कि हम दिन-प्रतिदिन और अधिक सड़ते जाते हैं लेकिन फिर भी दूसरों की तुलना में खुद को खुशबूदार मानते हैं।
यह हमारी स्वयं के प्रति घोर निर्दयता व असंवेदनशीलता ही है, कि हम वास्तविक खुशबू में जीने के प्रयास करने की बजाए अपनी सड़ाँध व बदबू को ही खुशबू के रूप में प्रायोजित करने मे अपनी ऊर्जाएं लगाते हैं। हम पूरा जीवन नशे व बेहोशी में जीते हैं, और बेहोशी में जीवन जीने को हम जीवन की व्यावहारिकता कहते व साबित करते हैं; जबकि  वास्तव में यह हमारा अपने खुद के प्रति ही और अधिक असंवेदनशील होना ही है।
हम स्वयं को विकसित करने के लिये, स्वयं को बेहतर बनाने के लिए  कर्म, प्रयास या चेष्टा नही करना चाहते हैं। स्व-निर्माण की प्रसव पीड़ा नही झेलना चाहते हैं।  इसीलिए  हम अपने जीवन के लिए , परिवार के लिए , समाज के लिए  व देश के लिए  ऐसे सामाजिक-नेतृत्व प्रायोजित करते हैं; जो हमारे जैसे ही हों। सामाजिक-नेतृत्व छोड़िए हमने तो अपने ईश्वर भी अपने ही जैसे बना रखे हैं।
सामाजिक-नेतृत्व का प्रस्फुटीकरण वास्तविक कर्म से हुआ करता है। ढोंग व सतहीपन से युक्त विभिन्न स्तरों पर अनुकूलताओं के प्रयोजन से नहीं। भारत में पारंपरिक रूप से सामाजिक-नेतृत्व समाज के बेहतरी के लिए  किए गए पुरुषार्थ, कर्म, सक्रिय चिंतन, जीवंत कर्म-अनुभव आदि मूल्यों के आधार पर नही स्वीकृत किए गए हैं। परिणामस्वरूप भारतीय समाज ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक विकास व वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि में बहुत ही पीछे रह गया शताब्दियों तक राजनैतिक गुलाम रहा और आज भी मानसिक गुलाम है।
भारत सामाजिक रूप से बहुत अधिक विद्रूपताओं और विविधताओं का देश है। इसलिए  भारत का राष्ट्रीय सामाजिक-नेतृत्व वही कर सकता है जो कि भारत को भारत की विद्रूपता और विविधताओं के साथ स्वीकारे और फिर सबको साथ लेकर चलते हुए बढ़े।  सामाजिक नेतृत्व का सामाजिक सरोकारों से बहुत गहरा व स्पष्ट संबंध होता है, बिना सामाजिक सरोकारों को समझे व सामाजिक संबंधों के कोई भी सामाजिक नेतृत्व नहीं हो सकता है।  भारतीय समाज को शताब्दियों के अनुकूलन से बाहर आकर अपनी वास्तविक स्थिति, गति को स्वीकारते हुए विभिन्न स्तरों पर वास्तविक परिवर्तकों को “सामाजिक-नेतृत्व” के रूप मे स्थापित करने की आवश्यकता है।
यदि भारत को वास्तव में आगे बढ़ना है तो पूरी कठोरता व इच्छाशक्ति के साथ बिना लाग-लपेट के सामाजिक-नेतृत्व के प्रायोजनों की परंपरा व अनुकूलता से दृढ़तापूर्वक बाहर निकलकर वास्तविक स्वतः स्फूर्त सामाजिक-नेतृत्व के प्रस्फुटीकरण का बीजारोपण करना होगा। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं।  इस किताब में यायावर-लेखक सामाजिक-नेतृत्व के सामाजिक-आविष्कारों की बात करता है।
पुस्तक में खंड
यह पुस्तक ऐसे मनुष्यों को समर्पित है और चर्चा करती है, जो मानव की चेतनशीलता, समाज, देश व प्रकृति के निर्माण, पोषण व संवर्धन की ओर ले जाने के लिएविचार करते हैं, प्रयास करते हैं, कर्म करते हैं।
लेखक का विश्वास है कि समाज की गति में प्रत्येक मनुष्य का योगदान होता है। इसलिएयह पुस्तक बिना पूर्वाग्रह के उद्योगपति, नौकरशाह, किसान, सामाजिक-संस्था आदि के द्वारा आम-मनुष्य के तौर पर किएगएकार्यों व प्रयासों की चर्चा करती है; जिनने देश व समाज को उत्तमता की ओर बढ़ने की दिशा दी, प्रेरित किया, गति दी।
देवतुल्य-परिवर्तक खंड, उन सामाजिक सोच व दृष्टि वाले लोगों व स्थानीय समुदायों की चर्चा करता है; जिनके कामों व प्रयासों से समाज को महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त हुईं, हो रही हैं। लोगो के जीवन में आर्थिक, सामाजिक व चेतनागत परिवर्तन और विकास हुआ है, हो रहा है। देश में ऐसे लोग भी हैं जिन्होनें बड़े काम किएहैं और लेखक उन तक नहीं पहुंच पाया है, सभी तक पहुंच पाना और सबके बारे में चर्चा कर पाना व्यवहारिक नहीं है; इसलिएलेखक ने केवल उन कामों की चर्चा की है जिनको लेखक ने या तो निकट से देखा व समझा है या सक्रिय रूप से स्वयं भी भागीदार रहा है। 
"पानी" भारत का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे खतरनाक अवस्था में पहुंचा हुआ मुद्दा है।  “पानी” को समझे व समाधानित किए बिना, सामाजिक-परिवर्तन और देश व समाज के लोगों का जीवन स्तर सुधारने की बात बेमानी है। किसी ने अपने जीवन में यदि "एक दिन" भी वास्तव में बिना किसी छुपी हुयी राजनैतिक-सत्ता के लिप्सा के समाज में "उत्त्पादक-रचनात्मक" के काम किए हैं; तो जो बात सबसे पहले मालूम पड़ती है वह यह, कि भारत में "पानी" सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा है और सबसे अधिक खतरनाक स्तर में है।
देश व समाज के लोग "मुद्रा/विकास/इमानदारी/चकाचौंध/सामाजिक-परिवर्तन/राजनैतिक-सत्ताओं" आदि के बिना भी सहजता से रह सकते हैं किंतु बिना "पानी" के नहीं रह सकते है। राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि सत्ताओं के विकल्प हैं, किंतु जीवन के लिए "पानी" का कोई विकल्प नहीं है।
“कृषि” मनुष्य को भोजन व कपड़ा उपलब्ध कराती है, भोजन जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकता है। कृषि, पानी, पशु, जंगल, वायु आदि जीवन, स्वास्थ्य, प्राकृतिक वातावरण आदि के मूलाधार हैं और परस्परता में व्यवस्थित रहने के मूल चरित्र के हैं।
यह खंड भारत के लोग, समाज व देश के आर्थिक सामाजिक विकास व संवर्धन के लिए कृषि, पानी, जंगल, पशु, ऊर्जा, सामाजिकता व पर्यावरण आदि मुद्दों से संबंधित जीवंत व सक्रिय कार्यों की चर्चा करता है। यायावर इन लोगों को ही समाज व देश का वास्तविक देवतुल्य-परिवर्तक स्वीकारता है।
देवतुल्य-समाजबंधु खंड, उन सामाजिक सोच व दृष्टि वाले लोगों व स्थानीय समुदायों की चर्चा करता है; जो कि अपने स्तर से समाज के विकास के लिए, सामाजिक समाधान के लिए सोचते व प्रयास करते रहते हैं, भले ही उनके कार्यों की व्यापक उपलब्धियाँ नहीं हों। 
चलते-चलते खंड, यायावरी करते हुए प्राप्त अनुभवों में से कुछ की चर्चा करता है।
शख्सियत स्मृतियाँ खंड, शख्सियतों से चर्चा करने या संवाद करने या साथ मिलकर कार्य करने से प्राप्त अनुभवों मे से कुछ की चर्चा करता है।
यायावर के अनुप्रयोग खंड, यायावर ने अपने जीवन में जो कार्य व प्रयास किए उनकी चर्चा करता है।  शिक्षा, ग्रामीण विकास, सामाजिक चेतनशीलता, पानी, कृषि, स्वास्थ्य, जन-संवाद आदि के उन धरातलीय अनुप्रयोगों की भी चर्चा करता है, यायावर जिनका संस्थापक या सह-संस्थापक रहा है या महत्वपूर्ण भूमिका में रहा है।
कॉफी की चुस्कियोँ के साथ सामाजिक अनुकूलन पर बेबाक-यायावर खंड, सामाजिक अनुकूलताओं पर कॉफी की चुस्कियों के साथ मित्र के साथ संवाद व नाटक लेखों के माध्यम से मानव-निर्मित-ईश्वर, युग, स्वर्ग आदि  अवधारणाओं और जाति-व्यवस्था जैसे सामाजिक विषयों, मुद्दों व कुरीतियों आदि की जटिलता को सहज करते हुएसामाजिक समाधान की दृष्टि को संवर्धित करने व अ-अनुकूलता की ओर गति करने को प्रेरित करने पर आधारित संवाद करता है।
यायावर की आत्मकथा खंड, यायावर का परिचय, जीवन-गति व व्यक्तित्व-विकास पर आधारित है। यायावर के जीवन के उन पहलुओं को छूता है जिनने उसे यायावर, चिंतक, कर्मशील व संवेदनशील मनुष्य के रूप में संवर्धित किया।
यायावर की परिकल्पनाएं खंड, यायावर के उन सपनों की चर्चा करता है, जो यायावर को यायावरी, चिंतन,  कर्मशीलता व जीवंत अनुभवों के लिएनिरंतर श्रोतों के रूप में जीवनी ऊर्जा देते रहते हैं।
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पुस्तक आर्थिक-समृद्धि, सामाजिक-समृद्धि, पर्यावरण-समृद्धि, चेतनशील-स्वतंत्रता आदि से संबंधित अद्वितीय जमीनी कार्यों व प्रयासों तथा धरातलीय उपलब्धियों की बात जीवंत-प्रमाणिकता के साथ करती है। यायावर-लेखक का मानना है कि यदि मनुष्य पशुवत नही है, तो गौरवशीलता व चेतनशीलता के साथ ही जीना चाहता है और मनुष्य ही परिवार, समाज, राष्ट्र व संस्कृति का निर्माता, पोषक व संवर्धक है। अपेक्षा है कि इस पुस्तक को धार्मिक-भावुकता, वैचारिक-अनुकूलता, सामाजिक-अनुकूलता, धार्मिक-अनुकूलता, मान्यतायें /लोभ /लिप्सा /स्वार्थ आदि की भावुकता व प्रतिक्रिया आदि से परे गंभीरता, विचारशीलता व सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ पढ़ने व तथ्यात्मक-तार्कितता के साथ मूल्यांकन करते हुए समझने का प्रयास किया जाएगा।
इस मनुष्य जीवन में परोपकार परहित और परसेवा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है तथा इन तीनों से बड़ा मनुष्य का कोई दूसरा धर्म नहीं होता है ।यहीं तीनों मनुष्य जीवन के मुख्य आधार भी होते हैं जिनके सहारे मनुष्य जीवन लक्ष्य हासिल कर सकता है ।तुलसीदास बाबा ने भी लिखा है कि परहित सरिस धर्म नहि भाई, पर पीड़ा सम।ईश्वर ने हमें मनुष्य जीवन ही परसेवा परोपकार व परहित करने के लिये दिया है ।इन्हीं तीनों को मानव धर्म भी कहा गया है ।मनुष्य इन्हीं तीनों को जब अपना धर्म मानने लगता है तो वह साधारण मानव से महामानव देवमानव बन जाता है ।यह तीनों चीजें मनुष्य को तब मिलती है जब वह ईश्वर को अपना परमपिता व सर्वशक्तिमान मान लेता है ।यह तीनों कार्य ईश्वर के माने गये हैं और मनुष्य जब इन्हीं तीनों कार्यों को अपने जीवन में अंगीकृत कर लेता है तो धरती का भगवान बन जाता है । मनुष्य जीवन में माता पिता और गुरु का सान्निध इन तीनों चीजों के लिये जरूरी होता है।इनके सानिध्य में जीवन जीने से मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है और यह तीनों चीजें इन्हीं तीनों लोगों से संस्कार के रूप में आसानी से मिल जाती हैं ।मनुष्य जीवन में कोई भी कार्य करने से पहले गुरु माता पिता की राय लेना जरूरी होता है जो ऐसा नही करते हैं उसका कोई भी कार्य पूरा नहीं होता है । गुरू और माता पिता धरती के साक्षात ईश्वर होते है ,जो कार्य ईश्वर की देखरेख में होते है वह कभी असफल नहीं होते हैं ।आजकल कमाई की अंधी दौड़ में लोग इन तीनों से दूर भागते जा रहे हैं और रात दिन अपने हित अपनी सेवा अपने उपकार में लगे हुए हैं ।ऐसे लोग कमाई के चक्कर में अपने आपको अपने बाप को और अपनी औकात को भूलकर मंदान्ध हाथी हो जाते हैं ।उन्हें दूसरे की सेवा दूसरे का हित व दूसरे का उपकार करने में तौहीन लगती है।यह तीनों चीजें ईश्वर को बहुत प्रिय हैं और जिस मनुष्य के पास यह तीनों चीजें हैं वह ईश्वर को बहुत प्रिय होता है 

Sunday, October 16, 2016

अपराधी कौन???

आज के लोकतंत्र में जनता चुनकर जन प्रतिनिधि भेजती है अपने एवं देश के कल्याण हेतु, लेकिन वे जन प्रतिनिधि खुद वहाँ जाकर जन कल्याण न करके अपने हित की बात करने लगते हैं। अपने सुख- सुविधा से सम्बन्धित कानून बनाते हैं।इतना ही नहीं बल्कि उस कानून का उल्लंघन भी करतें हैं। यहाँ तक कि कानून के रखवाले भी कानून का उल्लंघन करतें हैं। अगर वे बहुत बड़ा अपराध भी करतें हैं तो खुलेआम बाहर घूमते हैं यह आम जनता सरकार सब जानती हैं।और संयोग से अगर किसी पार्टी से हो गये तो धीरे -धीरे उनका अपराध भी समाप्त हो जाता है।पता नहीं हमारे देश का कानून सही है या कानून के अधीन रहनेवाले लोग सही है।
आज क्या हो रहा है पता नहीं पैसा कानून पर भारी है या कानून पैसा पर भारी है।एक गरीब जनता एक हत्या कर देता है और प्रूफ हो जाता है।तो हमारे देश में या तो उसे आजीवन कारावास या फांसी पर टाक दिया जाता है ,एक पैसे वाला वहीं गलती करता है या उससे भी बड़ा जधन्य अपराध भी करता है ।वो बाहर इतमीनान से घूमते फिरते रहते है और उसकी सजा फांसी और आजीवन कारावास के मुताबिक बहुत कम सजा दी जाती है।
इनको सजा देने वाले कौन है इनपर जांच कर धारा लगाने वाले कौन है ? एक आम आदमी आज के समय में पुलिस स्टेशन जाता है तो उसे डाटकर भगा दिया जाता है उसकी एफ आई आर दर्ज नहीं की जाती। वहीं दूसरी ओर देखें एक ओहदे वाले पैसे वाले अगर जातें हैं तो उन्हें बैठाकर जलपान कराया जाता है इतना ही नहीं बल्कि उनकी झूठी एफ आई आर दर्ज कर ली जाती है। और त्वरित कार्यवाही भी की जाती है। आखिर ऐसा क्यों??
जनता सरकार बनाती है सर्वजन हिताय के लिए, सरकार अपने यहा अलग-अलग विभाग बनायी है जनता की देख-रेख करने के लिए साथ में देश का विकास करने के लिए। लेकिन यहाँ जनता की कम और अपनी सुख-सुविधा ज्यादा ध्यान में रखा जाता है। यही वजह है लूट घसोट भ्रष्टाचार की जड़ जम गई पता नहीं इसकी शुरुआत उपर से या नीचे से है । कहा जाता है लोकतंत्र आजाद होने का प्रतीक है और इस आजाद भारत में बहुत से ऐसे लोग हैं जो परतंत्रता महसूस कर रहे हैं, ही नहीं बल्कि गुलामी भरा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं। कौन दोषी है?
जनता जन प्रतिनिधि बनाकर भेजती देश चलाने के लिए ये बैठकर कानून बनाते हैं पता नहीं संविधान की जानकारी है या नहीं।उसी कानून और नियम के तहत सरकार छोटे -छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी तक बहाल करती है जनता की सेवा करने के लिए लेकिन ज्यादातर ये लोग रक्षा कम शोषण ज्यादा करते हैं। पता नहीं जनप्रतिनिधि जानते हैं या जानते हुए नजरअंदाज करते हैं।
अब यह बात सामने आती है कि जनता दोषी है या जनप्रतिनिधि या सरकार के द्वारा बहाल किये गए कर्मी, अगर हम एक तरफ देखें ,जनता को दोषी ठहराते हैं तो हमारी सरकार बरी हो जाती है। दूसरी तरफ देखें,जनता को दोष कैसे दें ,ये तो आम जनता है सिर्फ सरकार बनाना जानती हैं और उनके बनाई गई लिक पर चलना जानते हैं।इन्हें क्या पता कि उस रास्ते पर क्या है ये तो धैर्य और विश्वास पर किसी को चुनकर भेजते हैं। इन्हें क्या पता हमारे विश्वास का खून कर दिया जायेगा । और सरकार को हम दोष दें नहीं सकते क्योंकि उन्हें दोष देना या न देना कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सरकार के कर्मचारी सरकार के नेता अधिकारी अगर गलती करतें हैं, तो जो उसमें निम्नश्रेणी के होते हैं उन्हीं पर कार्रवाई होती है और लोग दोषी पाये जाने के बाद भी इतमीनान से चैन की निंद मारते हैं।
बड़े -बड़े नेता, बड़ी-बड़ी घटनाएं करके और बड़े-बड़े अधिकारी भ्रष्टाचार में संलिप्त होते हुए या तो बाहर घुम रहे हैं या नाम मात्र की सजा काटकर वापस सरकार के आदमी बन गये । एक बार मैं पढा था पेपर में किसी मीडिया के द्वारा सर्वे किया गया था लगभग ५०% लोकसभा राज्यसभा के सदस्यों के उपर किसी न किसी प्रकार का एफआईआर है और कोर्ट में लम्बीत है। उस समय के सरकार के द्वारा ये भी कहा गया था कि इन सभी लोगों पर कार्रवाई की जाएगी। शायद कानून बनाने वाले ही थे इसलिए कानून को ही बदल दिए तभी आजतक कुछ नहीं हुआ।यही अगर कोई सरकारी नौकरी में निम्न वर्गीय कर्मी होते या कोई गरीब आम जनता होती तो कितनों को कारावास से लेकर कई बरस तक सजा सुना दी गई होती ओर उसे उस पद से पदच्युत कर दिया जाता।
क्या माजरा है एक तरफ जनता सरकार को बनाती है सरकार जनता के लिए कार्य करने की सपथ लेती है और वह सपथ मात्र दिखावा होता है, छलवा होता है।तो यहाँ सरकार के लोग सरकार के अंग दोषी होते हैं। लेकिन दूसरे तरफ नजर डालते हैं सरकार बनाने के लिए जनता कुछ गलत लोगों का चयन कर उपर तक पहुंचा देती है। अपना फरिश्ता समझकर ,तो यहा जनता दोषी है। तीसरी तरफ कुछ लोग गरीब तबके के लोगों को डराकर धमका कर उनसे वोट जबरन लेकर खुद देश का नेता बनकर देशसेवा करने चलते हैं । ऐसे में नेता या गरीब जनता दोषी है। इस प्रकार से आज हमारे देश में अपराधी कौन है पता नहीं चलता है।अपराध कोई और करता सजा कोई और काटता है(ये सिर्फ अपना विचार है किसी पर आरोप- प्रत्यारोप नही।)
@रमेश कुमार सिंह /08-09-2016
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पैसा – जीने के लिए ‘पैसा’ जरूरी है. ‘जीवन’ के लिए ‘प्यार’ जरूरी है, प्यार के बाद कुछ ‘पावर’ तो चाहिए ही और ‘पावर’ मिलते ही ‘प्रसिद्ध’ भी होना चाहते हैं. यह ‘प्रसिद्धि’ भी ‘परिस्थितयों’ पर बहुत हद तक निर्भर करता है. ‘पावर’ और ‘प्रसिद्धि’ के मार्ग में हम पाप-पुण्य का हिशाब नहीं करते! कौन क्या कर लेगा? कानून हमारी मुट्ठी में है, कभी-कभी यह दृष्टिगोचर भी होता है, कहीं-कहीं कानून अपना काम करता है, जहाँ कोई सामर्थ्यवान का सहारा नहीं होता. ‘सत्यमेव जयते’ जैसे वाक्य केवल शोभा बढ़ाते है हमारे धर्मग्रंथों का.
पैसा मतलब धन. धन जरूरी है रोटी के लिए, कपड़ा के लिए और मकान के लिए जो हर आदमी की मूल-भूत आवश्यकता होती है. अब मूल-भूत आवश्यकता में और भी चीजें जुड़ गयी हैं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, संचार के माध्यम, परिवहन के तरीके, बिजली, पानी और सड़क. ये सब आवश्यकतायेँ बिना पैसे के पूरी नहीं हो सकती. पर पैसा आये कहाँ से ? पैसे के लिए मिहनत करनी होती है, कमाई करनी होती है. हमारा श्रम बिकता है. उसकी कीमत अलग-अलग खरीददार लगाते हैं, जो मांग और आपूर्ति के अनुसार बदलता रहता है. हम मजबूरी-वश कहीं-न-कहीं समझौता तो करते ही हैं. बिना समझौता के जीना मुश्किल है आज के माहौल में… नहीं?. अब यह समझौता कितना नैतिक और कितना अनैतिक होता है, कितना तर्क-संगत होता है, कितना लालच या मजबूरी-वश… अभी हम उस निर्णय तक नहीं पहुँच पाए हैं.
पैसा कमाने के लिए आपके पास ‘हुनर’ भी तो होना चाहिए ‘हुनर’ में प्राथमिक जरूरत है शिक्षा और निपुणता. इसके लिए भी पैसे की ही जरूरत होती है. सम्भवत: यह जरूरत हमारे माता-पिता/अभिभावक पूरा करते हैं. थोड़ी बहुत सरकार या स्वयं सेवी संस्थाएं भी मदद करती है. तब हम जाकर एक प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं. प्राथमिक शिक्षा के बाद ही कार्यकुशलता की जरूरत होती है, जिसे हम विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों के माध्यम से प्राप्त कर लेते हैं. कही पर सचमुच कार्यकुशलता हासिल होती है, तो कहीं कहीं पर उसका प्रमाण पत्र. आजकल प्रमाण-पत्र भी तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. बस आपके पास पैसा होना चाहिए. यानी पैसे से सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ खरीदा जा सकता है.
चलिए मान लिया आप किसी काम के लायक बन गए और आपको आपकी योग्यता के अनुसार काम भी मिल गया … अभी आपको खाने पहनने भर का ही पैसा मिलता है. घर किराये पर मिल जाता है, हैसियत के मुताबिक.
नौकरी या रोजगार में स्थापित होने के बाद आपको लोग चाहने लगते हैं, क्योंकि प्यार में पैसा है पैसे से प्यार है. आपको भी पैसे से प्यार होने लगता है. आप चाहते हैं ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ताकि कुछ भविष्य के लिए बचा सकें, बैंक में जमा रकम में दायीं तरफ शून्य बढ़ा सकें. अपने घर वालों को कुछ मदद पहुंचा सकें, छोटों की आवश्यकता की पूर्ति कर सकें, क्योंकि आपको भी किसी ने यहाँ तक पहुँचाने में योगदान किया है. चलिए आप एक काम के आदमी बन गए. आपसे लोगों को प्यार होने लगा. अब आपको भी प्यार की जरूरत महसूस होगी. यह जरूरत शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की होती है.
अब आपकी जिंदगी में होगा किसी अनजाने का प्रवेश … बढ़ेगी धड़कन! आप साझा करना चाहेंगे अपने मन की बात को, भावना को, धड़कन को … कोई तो हो, जो आपको समझ सके. यानी आपकी अपनी गृहस्थी शुरू… तब आपके हाथ संकुचित होने लगेंगे और एक तरफ ज्यादा झुकने लगेंगे. यह सब स्वाभाविक प्रक्रिया है. पर परिवार के बाकी लोगों ने अभी आपसे आशाएं नहीं छोड़ी है. आपकी आवश्यकताएं बढ़ेंगी और आप अधिक मिहनत करना चाहेंगे ताकि आश्यकता की पूर्ति हो, चाहे आप एक हाथ से कमाएं या दोनों हाथों से. फिर आपको एक वाहन की आवश्यकता महसूस होगी उसके बाद एक घर की.
चलिए आप इस काबिल बन गए कि आपने एक वाहन भी खरीद लिया और मासिक किश्त के आधार पर एक घर भी खरीद ली. पर यहीं पर आपकी इच्छा का अंत नहीं होता आपको अब जरूरत महसूस होती है कि लोग आपको जाने यानी कि आपको प्रसिद्धि भी चाहिए. यह प्रसिद्धि ऐसे तो नहीं मिलती? जब तक आप किसी की मदद नहीं करेंगे, सामाजिक कार्यों में रूचि नहीं लेंगे, आपको कोई भी कैसे जानेगा? हो सकता है आप किसी सामाजिक संस्था से जुड़ जाएँ या खुद ही एक संस्था खोल लें और लोगों को जोड़ने शुरू कर दें. कहा भी है न परोपकाराय इदं शरीरं. यानी यह शरीर परोपकार के लिए ही बना है और परोपकार से बड़ा कोई दूसरा धर्म भी नहीं है. “परहित सरिस धरम नहीं भाई” – तुलसीदास ने भी तो यही कहा है न! चलिए आप परोपकारी बन गए. आपका लोग गुणगान करने लगे.
किसी की मदद के लिए भी तो चाहिए पैसा और पावर …पैसा और पावर दोनों का अद्भुत मिलान होता है. इसे रासायनिक बंधन भी कह सकते हैं. इस बंधन में जाने-अनजाने कई क्रिया और प्रतिक्रिया होती है. इस क्रिया प्रतिक्रिया में अवस्था और अवयवों को भूल जाते हैं, हमें मतलब होता है सिर्फ परिणाम से! परिणाम हमेशा ईच्छित नहीं भी होते है. तब हम चलते हैं विभिन्न प्रकार के चाल, करते हैं प्रयोग, कभी घृणा, ईर्ष्या, प्रतिद्वंद्विता और यह जल्द समाप्त नहीं होती. यह जीवन पर्यंत चलनेवाली प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. और फिर याद आते हैं तुलसीदास … नही कोउ जग जन्मा अस नाही, प्रभुता पाई जाहि मद नाही…
और समरथ को नहीं दोष गोंसाई
कौन है जो मुझपर उंगली उठाएगा? यह अहम ही तो मनुष्य को खा जाता है, नहीं? अनेकों उदाहरण है. अहम को मारना आसान भी नहीं है. पैसा और पावर साथ हो तो मनुष्य सामर्थ्यवान हो ही जाता है. सामर्थ्यवान होने से अहम होना स्वाभाविक है नहीं तो तुलसीदास ऐसे ही थोड़े न लिखते! प्रभुता भाई जाहि मद नाही
ईर्ष्या भाव भी तो होता है हम मनुष्यों में, ईर्ष्या यानी जलन जो दूसरों के साथ स्वयं को भी जलाती है. प्रतिस्पर्धा अलग चीज है पर ईर्ष्या …यह औरों के साथ खुद को भी ले डूबती है.
एक और चीज है परिस्थिति हर आदमी परिस्थितियों का गुलाम होता है. परिस्थिति ही उसे अपनी उंगली पर नचाती है. कहते हैं न उनकी ईच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. परिस्थितयां ही आदमी को नायक बना देती है तो कभी खलनायक! परिस्थितियां किसी को मुख्य मंत्री बना देती है तो किसी को प्रधान मंत्री और कोई रह जाते हैं, प्रधान मंत्री पद के लिए प्रतीक्षारत! परिस्थितियां किसी को जेल के अन्दर डालकर रखती है तो कभी उसे बेल(BAIL) यानी जमानत देकर ‘बेल’(BELL) यानी घंटी बजाते हुए बाहर निकाल देती है. वही आदमी जो जेल के अन्दर bail का इंतज़ार कर रहा था, अब bail मिलने के बाद सहस्त्र bell (घंटी) के साथ जेल भिजवाने वाले पर हमला करने का मौका दे देती है. जो ब्यक्ति संगीन आरोपों के कारण जेल में दिन, महीने और साल गिन रहा था, आज जेल से बाहर निकलकर, हर कानून को ठोकर मारता हुआ, गर्व से शेर की तरह दहाड़ता हुआ, कानून को अपने शिकंजे के अन्दर कर लेता है. बल्कि उसके साथ हजारों लोग कानून की खिल्ली उड़ाते हुए जनता को यह बतलाता दिखता है – “कानून तुम जैसे कीड़े-मकोड़ों के लिए है हमारे लिए नहीं.” अब चाहे जो कह लो, सत्यमेव जयते या असत्यमेव जयते. न्याय देवी के माथे पर पट्टी बंधी है. वह देख नहीं सकती देखना भी नहीं चाहिए, नहीं तो बहुत दुख होता गांधारी की तरह! यही है हमारा देश, समाज, संसार और भवसागर! जय महाकाल! जय देवाधिदेव! शिवरूप कल्याण स्वरुप महादेव ..अपना त्रिनेत्र सम्हालकर रखिये बहुत जरूरत है उसकी ….उचित समय पर ही खोलियेगा. जय शिवशंकर! ॐ नम: शिवाय!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.
विश्व के वैज्ञानिक व अन्य धार्मिक व साम्प्रदायिक लोग आज भी ईश्वर, जीवात्मा और मूल अथवा कारण प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते। न जानना कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु जानने का प्रयास ही न करना और धन दौलत एकत्रित कर उससे शारीरिक सुख के साधन एकत्रित कर उनका भोग करना ही आज के मनुष्यों के जीवन का मुख्य उद्देश्य बन गया है। आज जो तथाकथित विद्वान टीवी आदि पर कथा व प्रवचन आदि करते हैं, उनका रहन सहन देख कर लगता है कि यह भी कोई साधु-संत, त्यागी व योगी पुरुष न होकर सुख व ऐश्वर्य के भोगी ही हैं। विचार करने पर यह ज्ञात होता है यह उनकी अविद्या व मिथ्या ज्ञान है। विवेक शून्य होने के कारण वह जीवन भर ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरुप के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं और भविष्य काल में मृत्यु को प्राप्त होकर नाना दुःख की भोग योनियों में विचरण करते हुए पशु, पक्षी व कीट पतंगों की भांति अपने मनुष्य जीवन में किये गये कर्मों का भोग करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के बाद ईश्वर ने स्वयं ही मनुष्यों को इस संसार के यथार्थ ज्ञान से परिचित कराया था। परमात्मा द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दिया गया ज्ञान ‘‘वेद” है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी योनियों सहित सृष्टि व प्रकृति का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान बीज रूप में व कुछ विषयों का ज्ञान किंचित विस्तार के साथ है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति शब्द व सत्तायें मनुष्य की कल्पनायें नहीं अपितु ईश्वर व वेद द्वारा मनुष्य को माता-पिता व आचार्य की तरह से बतायें व जनायें गये सृष्टि विषयक प्रमुख रहस्य हैं। महाभारत काल के बाद भारत के कुछ प्रभावशाली ब्राह्मणों व विद्वानों के आलस्य-प्रमाद के कारण वेद व इसकी सत्य व यथार्थ मान्यताओं और सिद्धान्तों का देश देशान्तर में प्रचार न होने के कारण समस्त विश्व में अविद्या का अंधकार छा गया जिसका कारण अविद्या का प्रचार प्रसार होना हुआ और आज भी संसार के लोग इस सृष्टि को यथार्थ रुप में जान नहीं सके हैं। यदि महाभारत काल के बाद वेदों का ज्ञान ब्राह्मणों व विद्वानों के आलस्य व प्रमाद के कारण विलुप्त व विकृत न हुआ होता तो संसार में सम्प्रति जितने भी अवैदिक मत वा धर्म आज प्रचलित हैं उन्हें अस्तित्व में आने की आवश्यकता ही न पड़ती अर्थात् वह आविर्भूत न होते। यह ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति स्वास्थ्य के सभी नियमों का पूर्णतया पालन करे तो वह रूग्ण नहीं होता। रोग का कारण हमेशा कुपथ्य, वायु एवं जल का प्रदुषण व अशुद्ध भूमि में प्रदुषित जल व खाद से उत्पन्न विषाक्त अन्न व भोजन का सेवन ही होता है। अतः आज सारा संसार ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के विषय मे अविद्या से ग्रस्त है। इस पर आश्चर्य यह है कि मनुष्य संसार में ऐसा लिप्त है कि उसकी जीवात्मा सत्य ज्ञान को प्राप्त करने में जागृत न होकर निद्राग्रस्त वा मरणासन्न ही दिखाई दे रही है।

हे मानव! ना मोह करो तन का है माटी से उपजा ये शरीर

हे मानव! ना मोह करो तन का
है माटी से उपजा ये शरीर,
माटी में मिलने को अधीर,
क्यों आए, कहां से आए हो,
क्या साथ में अपने लाए हो,
नई आशा का आह्वान हो तुम,
इक नवयुग का निर्माण हो तुम,
परंतु तुम राह से भटक गए,
बाह्य सौंदर्य में अटक गए,
किंचित ना भास हुआ मन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
तू है अजन्मा आदि अरूप,
तू ज्योति पुंज भगवद्स्वरूप,
सती का सतीत्व शंकर का ध्यान,
राधा का नृत्य मुरली की तान,
तू नर भी है नारायण भी,
निजांतर से धर्मपरायण भी,
है सत्व सृष्टि के जीवन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
तू अथाह सिंधु, पर्वत विशाल,
संपूर्ण धरा का उन्नत कपाल,
तू है जिसकी महिमा अनंत
क्यों बन के रह गया एक हलन्त,
चहुँ ओर व्याप्त जिसकी सुगंध,
वो दिव्य पुष्प निर्भय स्वछंद,
तू सार है समग्र उपवन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
उत्तुंग शिखर को छूना है,
अभी नित्य हलाहल पीना है,
दुर्गम राहों पर चलना है,
हर कष्ट विश्व का हरना है,
जो क्षुद्र पर रूक जाएगा,
उद्धारक ना बन पाएगा,
है मूल्य तेरे हर एक क्षण का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
है गीता का उपदेश तेरा,
उपनिषदों का संदेश तेरा,
गौतम, महावीर की वाचा है,
तू धर्म की विजयपताका है,
परिवर्तन का आधार है तू,
हाँ, प्रभु का अंशावतार है तू,
है पात्र दैवी अभिनंदन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
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दोहे

श्राद्ध गये तो आ गये, माता के नवरात्र।
लीला का मंचन करें, रामायण के पात्र।।

विजयादशमी साथ में, लाती बहु त्यौहार।
उत्सव मानवमात्र के, जीवन का आधार।।

शरदपूर्णिमा से हुआ, सरदी का आगाज।
दीन किसानों के भरा, घर में खूब अनाज।।

एक दूसरे से जुड़े, धर्म और ईमान।
चन्द्रकलाओं पर टिका, पर्वों का विज्ञान।।

करवाचौथ सुहाग का, कितना पावन पर्व।
अपने पतियों पर करे, सभी नारियाँ गर्व।।

उसके बाद अहोई का, आता है त्यौहार।
माताएँ इस दिन करे, कुलदीपक को प्यार।।

दीपक यम के नाम का, लोग रहे हैं बाल।
धन्वन्तरि के चित्र पर, चढ़ा रहे जयमाल।।

संगम पाँचो पर्व का, दीवाली के साथ।
त्यौहारों पर किसी का, खाली रहे न हाथ।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बिन बुलाए कभी चला आता, बुलाने पर भी कभी ना आता;
रखता है वह अजीब सा नाता, देख सुन उर को वह रहा आता !
मूल को सींचता, नहीं पत्ता, दिए स्नेह चले अलबत्ता;
ख़्याल ब्रह्माण्ड का रखे चलता, ध्यान में पिण्ड हर रखे रहता !
योजना उसी की रही सत्ता, प्रयोजन उसी के है हर कर्त्ता;
जाने अनजाने नचा हर भोक्ता, प्रयोक्ता बना रहा हर भगता !
ले के आया नहीं था कुछ प्राणी, ले के कुछ जा सकेगा ना त्राणी;
मात्र अनुभूति के लिए फिरता, कौन मालिक है पता ना लगता !
नियन्त्रण चक्र वह किए रहता, बैठ गुरुचक्र भी कभी जाता;
‘मधु’ को मुक्ति भुक्ति विच रखता, प्रबन्धन सृष्टि का सिखा चलता !

— गोपाल बघेल ‘मधु’