Sunday, October 16, 2016

हे मानव! ना मोह करो तन का है माटी से उपजा ये शरीर

हे मानव! ना मोह करो तन का
है माटी से उपजा ये शरीर,
माटी में मिलने को अधीर,
क्यों आए, कहां से आए हो,
क्या साथ में अपने लाए हो,
नई आशा का आह्वान हो तुम,
इक नवयुग का निर्माण हो तुम,
परंतु तुम राह से भटक गए,
बाह्य सौंदर्य में अटक गए,
किंचित ना भास हुआ मन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
तू है अजन्मा आदि अरूप,
तू ज्योति पुंज भगवद्स्वरूप,
सती का सतीत्व शंकर का ध्यान,
राधा का नृत्य मुरली की तान,
तू नर भी है नारायण भी,
निजांतर से धर्मपरायण भी,
है सत्व सृष्टि के जीवन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
तू अथाह सिंधु, पर्वत विशाल,
संपूर्ण धरा का उन्नत कपाल,
तू है जिसकी महिमा अनंत
क्यों बन के रह गया एक हलन्त,
चहुँ ओर व्याप्त जिसकी सुगंध,
वो दिव्य पुष्प निर्भय स्वछंद,
तू सार है समग्र उपवन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
उत्तुंग शिखर को छूना है,
अभी नित्य हलाहल पीना है,
दुर्गम राहों पर चलना है,
हर कष्ट विश्व का हरना है,
जो क्षुद्र पर रूक जाएगा,
उद्धारक ना बन पाएगा,
है मूल्य तेरे हर एक क्षण का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
है गीता का उपदेश तेरा,
उपनिषदों का संदेश तेरा,
गौतम, महावीर की वाचा है,
तू धर्म की विजयपताका है,
परिवर्तन का आधार है तू,
हाँ, प्रभु का अंशावतार है तू,
है पात्र दैवी अभिनंदन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
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दोहे

श्राद्ध गये तो आ गये, माता के नवरात्र।
लीला का मंचन करें, रामायण के पात्र।।

विजयादशमी साथ में, लाती बहु त्यौहार।
उत्सव मानवमात्र के, जीवन का आधार।।

शरदपूर्णिमा से हुआ, सरदी का आगाज।
दीन किसानों के भरा, घर में खूब अनाज।।

एक दूसरे से जुड़े, धर्म और ईमान।
चन्द्रकलाओं पर टिका, पर्वों का विज्ञान।।

करवाचौथ सुहाग का, कितना पावन पर्व।
अपने पतियों पर करे, सभी नारियाँ गर्व।।

उसके बाद अहोई का, आता है त्यौहार।
माताएँ इस दिन करे, कुलदीपक को प्यार।।

दीपक यम के नाम का, लोग रहे हैं बाल।
धन्वन्तरि के चित्र पर, चढ़ा रहे जयमाल।।

संगम पाँचो पर्व का, दीवाली के साथ।
त्यौहारों पर किसी का, खाली रहे न हाथ।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बिन बुलाए कभी चला आता, बुलाने पर भी कभी ना आता;
रखता है वह अजीब सा नाता, देख सुन उर को वह रहा आता !
मूल को सींचता, नहीं पत्ता, दिए स्नेह चले अलबत्ता;
ख़्याल ब्रह्माण्ड का रखे चलता, ध्यान में पिण्ड हर रखे रहता !
योजना उसी की रही सत्ता, प्रयोजन उसी के है हर कर्त्ता;
जाने अनजाने नचा हर भोक्ता, प्रयोक्ता बना रहा हर भगता !
ले के आया नहीं था कुछ प्राणी, ले के कुछ जा सकेगा ना त्राणी;
मात्र अनुभूति के लिए फिरता, कौन मालिक है पता ना लगता !
नियन्त्रण चक्र वह किए रहता, बैठ गुरुचक्र भी कभी जाता;
‘मधु’ को मुक्ति भुक्ति विच रखता, प्रबन्धन सृष्टि का सिखा चलता !

— गोपाल बघेल ‘मधु’

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