Sunday, October 16, 2016

विश्व के वैज्ञानिक व अन्य धार्मिक व साम्प्रदायिक लोग आज भी ईश्वर, जीवात्मा और मूल अथवा कारण प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते। न जानना कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु जानने का प्रयास ही न करना और धन दौलत एकत्रित कर उससे शारीरिक सुख के साधन एकत्रित कर उनका भोग करना ही आज के मनुष्यों के जीवन का मुख्य उद्देश्य बन गया है। आज जो तथाकथित विद्वान टीवी आदि पर कथा व प्रवचन आदि करते हैं, उनका रहन सहन देख कर लगता है कि यह भी कोई साधु-संत, त्यागी व योगी पुरुष न होकर सुख व ऐश्वर्य के भोगी ही हैं। विचार करने पर यह ज्ञात होता है यह उनकी अविद्या व मिथ्या ज्ञान है। विवेक शून्य होने के कारण वह जीवन भर ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरुप के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं और भविष्य काल में मृत्यु को प्राप्त होकर नाना दुःख की भोग योनियों में विचरण करते हुए पशु, पक्षी व कीट पतंगों की भांति अपने मनुष्य जीवन में किये गये कर्मों का भोग करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के बाद ईश्वर ने स्वयं ही मनुष्यों को इस संसार के यथार्थ ज्ञान से परिचित कराया था। परमात्मा द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दिया गया ज्ञान ‘‘वेद” है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी योनियों सहित सृष्टि व प्रकृति का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान बीज रूप में व कुछ विषयों का ज्ञान किंचित विस्तार के साथ है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति शब्द व सत्तायें मनुष्य की कल्पनायें नहीं अपितु ईश्वर व वेद द्वारा मनुष्य को माता-पिता व आचार्य की तरह से बतायें व जनायें गये सृष्टि विषयक प्रमुख रहस्य हैं। महाभारत काल के बाद भारत के कुछ प्रभावशाली ब्राह्मणों व विद्वानों के आलस्य-प्रमाद के कारण वेद व इसकी सत्य व यथार्थ मान्यताओं और सिद्धान्तों का देश देशान्तर में प्रचार न होने के कारण समस्त विश्व में अविद्या का अंधकार छा गया जिसका कारण अविद्या का प्रचार प्रसार होना हुआ और आज भी संसार के लोग इस सृष्टि को यथार्थ रुप में जान नहीं सके हैं। यदि महाभारत काल के बाद वेदों का ज्ञान ब्राह्मणों व विद्वानों के आलस्य व प्रमाद के कारण विलुप्त व विकृत न हुआ होता तो संसार में सम्प्रति जितने भी अवैदिक मत वा धर्म आज प्रचलित हैं उन्हें अस्तित्व में आने की आवश्यकता ही न पड़ती अर्थात् वह आविर्भूत न होते। यह ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति स्वास्थ्य के सभी नियमों का पूर्णतया पालन करे तो वह रूग्ण नहीं होता। रोग का कारण हमेशा कुपथ्य, वायु एवं जल का प्रदुषण व अशुद्ध भूमि में प्रदुषित जल व खाद से उत्पन्न विषाक्त अन्न व भोजन का सेवन ही होता है। अतः आज सारा संसार ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के विषय मे अविद्या से ग्रस्त है। इस पर आश्चर्य यह है कि मनुष्य संसार में ऐसा लिप्त है कि उसकी जीवात्मा सत्य ज्ञान को प्राप्त करने में जागृत न होकर निद्राग्रस्त वा मरणासन्न ही दिखाई दे रही है।

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