Tuesday, October 4, 2016

कविता

दरिया दिया और प्यासे रहे,
उम्र भर साथ अपने दिलासे रहे।
जो थे वैसा रहने न दिया,
न सोना बने, न कांसे रहे।
कब टिकती है अपने कहे पर,
ज़ुबां ए जीस्त पर झांसे रहे।
मुद्दतों कायम रहा अपना डेरा,
हम जहाँ भी रहे, अच्छे खासे रहे।
मुझमें क्या कुछ न बदला ‘वीर’,
मगर ग़ैरों के इलज़ाम बासे रहे।
सबके पास कोई मुद्दा है, हर कोई अड़ा है, जिसे देखिये.. एक हाथ की दूरी पर खड़ा है।
सभी ने तो ढूंढ लिये हैं कारोबार अपने, आप माल हैं और आप ही बाज़ार अपने।
जिस दरार ने कभी किया था बंटवारा, वो दरार ही इस दरिया का किनारा होगा।
उस छत को अब दीवार का सहारा होगा, रहे कोई भी उसमें मगर घर हमारा होगा।
फिर क्यों न उठाई जाये कलम 'वीर', जब हो गया है ज़हन में, अँधेरा बहोत।
सच आइनों में नहीं, आँखों में दिखा करता है, जो जानता है! वो कुछ भी नहीं लिखा करता है।
बदलते मौसम पर ऐतराज़ क्यों हो? जो आप ज़ाहिर है वो राज़ क्यों हो?
गर तमाशा है तो किरदार बदला जाये, कहानी बदली जाये, सार बदला जाये।
मेरी आँखों से ही देखा करो खुद को, दुनिया में नज़र बहोत हैं, परख कम।
अब मैं समझा बीती रात वो घबराहट क्या थी, वो किसकी दस्तक थी और वो आहट क्या थी।
जानने वाले सब जान कर भी अनजाने रहे, देख कर अंजाम ए दानाई, हम दीवाने रहे।
अपने ख्यालों में मगन रहता है, बेख़बर गुलों से चमन रहता है।
एक इशारे ने कलम को रोशनाई दे दी, मेरे लिखते ही इस दिल ने सफाई दे दी।
जब चले थे तब वापसी का इरादा था, अब घर जैसा लगता है रास्ता मूझको।
रात आँखों ने पी लिया अँधेरा, सहर उसका चेहरा चिराग सा था।
अब उतना ही देखना जितना पर्दा दिखाये, हम से जाती रही बेनकाब होने की अदा।
गिर भी जायेंगे, तो रास न आयेंगे, ये उड़ते बादल हैं, ये पास न आयेंगे।
जो आ गया इन आँखों में पानी बेसबब, हम मरहम किसी के घाव पर लगा देंगे।

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