Friday, October 7, 2016

माँ ममता का रूप है, पिता सबल आधार।

माँ ममता का रूप है, पिता सबल आधार।
मात-पिता सन्तान को, करते प्यार अपार।।
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बचपन मेरा खो गया, हुआ वृद्ध मैं आज।
सोच-समझकर अब मुझे, करने हैं सब काज।।
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जब तक मेरे शीश पर, रहा आपका हाथ।
लेकिन अब आशीष का, छूट गया है साथ।।
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तारतम्य टूटा हुआ, उलझ गये हैं तार।
कौन करेगा अब मुझे, पिता सरीखा प्यार।।
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सूना सब संसार है, सूना घर का द्वार।
मात-पिता बिन हो गये, फीके सब त्यौहार।।
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तात मुझे बल दीजिए, उठा सकूँ मैं भार।

एक-नेक बनकर रहे, मेरा ये परिवार।।
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नयी पौध पर है नहीं, आज किसी का जोर।
धरती बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।

दोहन पेड़ों का हुआ, नंगे हुए पहाड़,
नगमग करते शैल से, बस्ती हुई उजाड़।
इस हालत का कौन है, बोलो जिम्मेवार,
नेता रिश्वतखोर हैं, मौन हुई सरकार।
सीधी-सादी सभ्यता, सोई चादर तान,
लोग पलायन कर रहे, मैदानों की ओर।
धरती बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।

नदियों में बहता नहीं, अब तो निर्मल नीर,
प्राणवायु कैसे मिले, दूषित हुआ समीर।
बोलो अब उस देश का, कैसे हो उत्थान,
अन्धकार से हो भरी, जहाँ सुहानी भोर।
जीवन जीने के लिए, मिले कहाँ से धूप,
आवारा बादल चढ़े, नभ पर अब घनघोर।
धरती बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।

पल-पल रंग बदल रहा, अब अपना परिवेश,
पुस्तक तक सीमित हुए, ऋषियों के सन्देश।
बिरुओं को मिलता नहीं, नेह-नीर अनुकूल,
उपवन में कैसे खिलें, सुन्दर-सुन्दर फूल।
अबलाओं की लाज को, कौन बचाए आज,
चीर द्रोपदी का स्वयं, खींचे नन्द-किशोर।
धरती बंजर सी हुई, फसल उगी कमजोर।।
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जो नंगापन ढके हमारा हमको वो परिधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।

अपनी मेहनत से ही हमने, अपना वतन सँवारा है,
जो कुछ इसमें रचा-बसा, उस पर अधिकार हमारा है,
सुलभ वस्तुएँ हो जाएँ सब, नहीं हमें अनुदान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।

प्रजातन्त्र में राजतन्त्र की गन्ध घिनौनी आती है,
धनबल और बाहुबल से, सत्ता हथियाई जाती है,
निर्धन को भी न्याय सुलभ हो,ऐसा सख़्तविधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।

उपवन के पौधे आपस में, लड़ते और झगड़ते क्यों?
जो कोमल और सरल सुमन हैं उनमें काँटे गड़ते क्यों?
मतभेदों को कौन बढ़ाता, इसका अनुसंधान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।

इस सोने की चिड़िया के, सारे ही गहने छीन लिए,
हीरा-पन्ना, माणिक-मोती, कौओ ने सब बीन लिए,
हिल-मिलकर सब रहें जहाँ पर हमको वो उद्यान चाहिए।
साध्य और साधन में हमको समरसता संधान चाहिए।।
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चार उँगलियाँ और अँगूठा,
मिलकर बन जाता है घूँसा।
सुमन इकट्ठे रहें जहाँ पर,
वो कहलाती है मंजूषा।।

रंग-बिरंगे फूल जहाँ हो,
वही चमन अच्छा लगता है।
ममता-प्यार-दुलार करे जो,
वो साथी सच्चा लगता है।।

जन्मभूमि का मान बढ़ाये,
वो ही तो सपूत कहलाता।
खाये यहाँ का-गाये वहाँ का,
माता का वो दूध लजाता।।

फूलों की रक्षा करने को,
काँटे होते हैं उपवन में
इसीलिए तो तिरछी उँगली,
करनी पड़ती है जीवन में।

टेढ़ी उँगली मक्कारी की,
मजबूरी में ही अपनाओ।
सीधी उँगली से इंगित कर,
सबको सीधी राह बताओ।।
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जिस उपवन में पढ़े-लिखे हों रोजी को लाचार।
उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।।

जिनके बंगलों के ऊपर,
निर्लज्ज ध्वजा लहराती,
रैन-दिवस चरणों को जिनके,
निर्धन सुता दबाती,
जिस आँगन में खुलकर होता सत्ता का व्यापार।
उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।।

मुस्टण्डों को दूध-मखाने,
बालक भूखों मरते,
जोशी, मुल्ला, पीर, नजूमी,
दौलत से घर भरते,
भोग रहे सुख आजादी का, बेईमान मक्कार।
उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।।

 
वयोवृद्ध सीधा-सच्चा,
हो जहाँ भूख से मरता,
सत्तामद में चूर वहाँ हो,
शासक काजू चरता,
ऐसे निठुर वजीरों को, क्यों झेल रही सरकार।
उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।।
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चीख-चीखकर आजादी,
करती है आज सवाल।
हुआ क्यों जन-जीवन बेहाल?
दुखी क्यों लाल-बाल औपाल?
चीख-चीखकर आजादी,
करती है आज सवाल।।
बढ़ा है मँहगाई का क्लेश,
वतन में फैला हिंसा-द्वेष,
हो गया नष्ट विमल परिवेश,
नहीं पहले जैसा संगीत,
सजेंगे कैसे सुर और ताल?
चीख-चीखकर आजादी,
करती है आज सवाल।
हुआ क्यों जन-जीवन बेहाल?
सत्य का मन्त्र हुआ अस्पष्ट,
हो गया तन्त्र आत तो भ्रष्ट,
लोक की किस्मत में हैं कष्ट,
बचेगा कैसे भोला कीट,
हर तरफ मकड़ी के हैं जाल।
चीख-चीखकर आजादी,
करती है आज सवाल।
हुआ क्यों जन-जीवन बेहाल?
हुए जननायक अब मग़रूर,
नयी नस्लें मस्ती में चूर,
श्रमिक है आज मजे से दूर,
राह में काँटे हैं भरपूर,
धरा का रूपहुआ विकराल।
चीख-चीखकर आजादी,
करती है आज सवाल।
हुआ क्यों जन-जीवन बेहाल?

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