दोहा एक ऐसा छंद है जो शब्दों की मात्राओं के अनुसार निर्धारित होता है. इसके दो पद होते हैं तथा प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं. पहले चरण को विषम चरण तथा दूसरे चरण को सम चरण कहा जाता है. विषम चरण की कुल मात्रा 13 होती है तथा सम चरण की कुल मात्रा 11 होती है. अर्थात दोहा का एक पद 13-11 की यति पर होता है. यति का अर्थ है विश्राम.
यानि भले पद-वाक्य को न तोड़ा जाय किन्तु पद को पढ़ने में अपने आप एक विराम बन जाता है.
दोहा छंद मात्रा के हिसाब से 13-11 की यति पर निर्भर न कर शब्द-संयोजन हेतु विशिष्ट विन्यास पर भी निर्भर करता है. बल्कि दोहा छंद ही क्यों हर मात्रिक छंद के लिए विशेष शाब्दिक विन्यास का प्रावधान होता है.
यह अवश्य है कि दोहा का प्रारम्भ यानि कि विषम चरण का प्रारम्भ ऐसे शब्द से नहीं होता जो या तो जगण (लघु गुरु लघु या ।ऽ। या 121) हो या उसका विन्यास जगणात्मक हो.
अलबत्ता, देवसूचक संज्ञाएँ जिनका उक्त दोहे के माध्यम में बखान हो, इस नियम से परे हुआ करती हैं. जैसे, गणेश या महेश आदि शब्द.
दोहे कई प्रकार के होते हैं. कुल 23 मुख्य दोहों को सूचीबद्ध किया गया है. लेकिन हम उन सभी पर अभी बातें न कर दोहा-छंद की मूल अवधारणा पर ही ध्यान केन्द्रित रखेंगे. इस पर यथोचित अभ्यास हो जाने के बाद ही दोहे के अन्यान्य प्रारूपों पर अभ्यास करना उचित होगा. जोकि, अभ्यासियों के लिये व्यक्तिगत तौर पर हुआ अभ्यास ही होगा.
दोहे के मूलभूत नियमों को सूचीबद्ध किया जा रहा है.
1. दोहे का आदि चरण यानि विषम चरण विषम शब्दों से यानि त्रिकल से प्रारम्भ हो तो शब्दों का संयोजन 3, 3, 2, 3, 2 के अनुसार होगा और चरणांत रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) होगा.
2. दोहे का आदि चरण यानि विषम चरण सम शब्दों से यानि द्विकल या चौकल से प्रारम्भ हो तो शब्दों का संयोजन 4, 4, 3, 2 के अनुसार होगा और चरणांत पुनः रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) ही होगा.
देखा जाय तो नियम-1 में पाँच कलों के विन्यास में चौथा कल त्रिकल है. या नियम-2 के चार कलों के विन्यास का तीसरा कल त्रिकल है. उसका रूप अवश्य-अवश्य ऐसा होना चाहिये कि उच्चारण के अनुसार मात्रिकता गुरु लघु या ऽ। या 21 ही बने.
यानि, ध्यातव्य है, कि कमल जैसे शब्द का प्रवाह लघु गुरु या ।ऽ या 1 2 होगा. तो इस त्रिकल के स्थान पर ऐसा कोई शब्द त्याज्य ही होना चाहिये. अन्यथा, चरणांत रगण या नगण होता हुआ भी जैसा कि ऊपर लिखा गया है, उच्चारण के अनुसार गेयता का निर्वहन नहीं कर पायेगा. क्योंकि उसतरह के त्रिकल के अंतिम दोनों लघु आपस में मिलकर उच्चारण के अनुसार गुरु वर्ण का आभास देते हैं. और विषम चरणांत में दो गुरुओं का आभास होता है.
3. दोहे के सम चरण का संयोजन 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 के अनुसार होता है. मात्रिक रूप से दोहों के सम चरण का अंत यानि चरणांत गुरु लघु या ऽ। या 2 1 से अवश्य होता है.
कुछ प्रसिद्ध दोहे -
कबिरा खड़ा बजार में, लिये लुकाठी हाथ
जो घर जारै आपनो, चलै हमारे साथ
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं फल लागै अति दूर
साईं इतना दीजिये, जामै कुटुम समाय
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय
विद्या धन उद्यम बिना कहो जु पावै कौन
बिना डुलाये ना मिले, ज्यों पंखे का पौन
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दोहा छंद में शुद्धता की आवश्यकता //
हमने पिछले आयोजन में दोहा छंद पर चर्चा की है. दोहा के 13-11 के चरणों की मात्राओं में थोड़ी हेर-फेर हो तो कई अन्य छंद सामने आते हैं. ऐसे छंदों की सूची बनायी जाय तो रूपमाला, शोभन, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, कामरूप, झूलना, गीता, सरसी, शुद्धगीता, आदि. यानि इन उद्धृत सभी पदांत गुरु लघु से ही होता है.
यही कारण है, हम इस मंच के माध्यम से दोहा छंद की शुद्धता यानि मात्रिकता और पदों के आंतरिक विन्यास पर हम इतना ज़ोर देते आये हैं.
मात्रिकता और पदों का आंतरिक विन्यास का सार्थक निर्वहन न हुआ तो उक्त प्रस्तुत छंद तुरत अन्य उपरोक्त वर्णित किसी छंद की परिभाषा को संतुष्ट करेगा, न कि दोहा रह जायेगा.
और जैसा कि ऊपर कहा गया है कि उपरोक्त वर्णित सभी का पदांत गुरु-लघु से ही होता है. उदाहरण स्वरूप देखना रोचक होगा -
दोहा छंद - 13-11 की यति पर सधा होता है.
रूपमाला या मदन छंद - 14-10 की यति पर [विषम चरणान्त को लेकर कोई विशेष नियम नहीं है, किन्तु दो लघु या एक गुरु से विषमचरणांत सामान्य]
शोभन या सिंहिका छंद - 14-10 की यति पर; अंत जगण (121 या ।ऽ।) [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
सुमित्र छंद - 10-14 की यति पर; पद का प्रारम्भ और अंत जगण से [ध्यान दें, दोहा का प्रारम्भ जगण से कत्तई नहीं हो सकता]
सुगीतिका छंद - 15-10 की यति पर, आदि लघु और अंत पूर्ववत गुरु-लघु [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
शंकर छंद - 16-10 की यति पर [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
गीता छंद - 14-12 की यति पर [विषम चरणांत दोहे छंद के अनुसार]
सरसी छंद - 16-11 की यति पर [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
शुद्धगीता छंद - 14-13 की यति पर [विषम चरणांत गुरु या लघु-लघु से; एक पद बह्र वजन 2122 2122 2122 2121 के अनुरूप भी]
स्पष्ट है कि उपरोक्त इन सभी छंदों का दोहा छंद से बहुत ही साम्य है. सभी के पदों का अंत (सम चरणांत) गुरु-लघु से ही हो रहा है. इसी कारण दोहा छंदों के विन्यास या मात्रा पर आग्रही रहने की आवश्यकता है. मात्रिकता में तनिक हेर-फेर उस छंद को दोहा छंद रहने ही नहीं देगा.
दोहा छंद पर काम करने की तरह उपरोक्त वर्णित छंदों पर भी अभ्यास करना उचित होगा. मात्रिकता का आंतरिक विन्यास भी यदि आवश्यक है तो उसे यथासंभव दे दिया गया है.
और जैसा कि ऊपर कहा गया है कि उपरोक्त वर्णित सभी का पदांत गुरु-लघु से ही होता है. उदाहरण स्वरूप देखना रोचक होगा -
दोहा छंद - 13-11 की यति पर सधा होता है.
रूपमाला या मदन छंद - 14-10 की यति पर [विषम चरणान्त को लेकर कोई विशेष नियम नहीं है, किन्तु दो लघु या एक गुरु से विषमचरणांत सामान्य]
शोभन या सिंहिका छंद - 14-10 की यति पर; अंत जगण (121 या ।ऽ।) [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
सुमित्र छंद - 10-14 की यति पर; पद का प्रारम्भ और अंत जगण से [ध्यान दें, दोहा का प्रारम्भ जगण से कत्तई नहीं हो सकता]
सुगीतिका छंद - 15-10 की यति पर, आदि लघु और अंत पूर्ववत गुरु-लघु [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
शंकर छंद - 16-10 की यति पर [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
गीता छंद - 14-12 की यति पर [विषम चरणांत दोहे छंद के अनुसार]
सरसी छंद - 16-11 की यति पर [विषम चरणांत के लिए कोई विशेष नियम नहीं]
शुद्धगीता छंद - 14-13 की यति पर [विषम चरणांत गुरु या लघु-लघु से; एक पद बह्र वजन 2122 2122 2122 2121 के अनुरूप भी]
स्पष्ट है कि उपरोक्त इन सभी छंदों का दोहा छंद से बहुत ही साम्य है. सभी के पदों का अंत (सम चरणांत) गुरु-लघु से ही हो रहा है. इसी कारण दोहा छंदों के विन्यास या मात्रा पर आग्रही रहने की आवश्यकता है. मात्रिकता में तनिक हेर-फेर उस छंद को दोहा छंद रहने ही नहीं देगा.
दोहा छंद पर काम करने की तरह उपरोक्त वर्णित छंदों पर भी अभ्यास करना उचित होगा. मात्रिकता का आंतरिक विन्यास भी यदि आवश्यक है तो उसे यथासंभव दे दिया गया है.
//एक शब्द में दूसरे शब्द को मिलाकर मात्रा का क्रम 3 2 क्या हु (3) आ(2) लेने से यही बात आरंभ में जगण में क्यों नहीं आएगी //
’बड़ा हुआ’ से ’बड़ा हु’ को विशेष तौर पर ले कर जगण नहीं देखा जा सकता. क्यों कि इसके बाद आया ’आ’ वस्तुतः दो त्रिकल बनाते हैं. यानी, एक त्रिकल के बाद तुरत दूसरा त्रिकल. और पद की गेयता में कोई व्यवधान नहीं आता. कारण कि दोहा के विषम चरण के शब्द विन्यास का वह नियम संतुष्ट हो जाता है जिसके अनुसर त्रिकल से प्रारम्भ होने वाले चरण केलिए मान्य है. अर्थात - ३ ३ २ ३ २
इस विन्यास पर दोहे का वह चरण देखिये - बड़ा (३) हुआ (३) तो (२) क्या हु(३) आ(२). यानि नियमतः शुद्ध विन्यास में है यह चरण. इसी कारण गेयता में कोई बाधा होही नहीं सकती.
ऐसा ही एक शब्द देखिये ’परंपरा’. इस शब्द या ऐसे शब्दों से प्रारम्भ हुआ कोई विषम चरण प्रवाह में होगा. कारण कि ’परम्’ के बाद ’परा’ त्रिकल के बाद त्रिकल की शुद्ध संभावना बनाता है.
ऐसा ही एक शब्द देखिये ’परंपरा’. इस शब्द या ऐसे शब्दों से प्रारम्भ हुआ कोई विषम चरण प्रवाह में होगा. कारण कि ’परम्’ के बाद ’परा’ त्रिकल के बाद त्रिकल की शुद्ध संभावना बनाता है.
जगण वस्तुतः ऐसा गण है जो अपने विशिष्ट विन्यास के कारण अन्य गणों से भिन्न दिखता है. यदि जगणात्मक शब्दों को छन्दों के पदों में सही ढंग से न निभाया जाय तो कई बार पदों की गेयता में बाधक बन असहज स्थिति को उत्पन्न कर देता है. यद्यपि जगणात्मक शब्द भी चौकल ही हुआ करते हैं. परन्तु इनका निर्वहन सहज चौकलों की तरह नहीं होता. यही कारण है कि जिन मात्रिक छन्दों में द्विकल, चौकल और त्रिकल के विन्यास हों वहाँ जगण को लेकर विशेष तौर पर या तो मनाही होती है. जैसे चौपइया या त्रिभंगी छन्द के किसी चरण में इनका प्रयोग वर्जित है. इसी तरह दोहा छन्द के विषम चरण का प्रारम्भ भी जगण से होना मनाही है. आदि-आदि. यह मनाही उस स्थिति के बन जाने को रोकने के लिए हुआ करती है, जो जगणात्मक शब्द पैदा कर देते हैं. यानि जगणात्मक शब्द में अंतर्निहित त्रिकल को यदि साधा नहीं गया. तो दिक्कत आनी ही है.
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किसी मात्रिक छन्द के पद (पंक्ति) में गुरु लघु वर्णों की संयत आवृति और शृंखला हुआ करती है. दोहा छन्द में १३, ११ की यति पर एक पद (पंक्ति) नियत होती है. जिसमें गुरु वर्णों और लघु वर्णों का संतुलन होता है. इन्हीं गुरु तथा लघु वर्णों की संख्या के हिसाब से दोहा छन्दों की संज्ञा (नाम) बनती है. दोहा छन्दों की ऐसी संज्ञाएँ (नाम) २३ होते हैं. इसी कारण आलेख में कहा गया है कि दोहा छन्दों की कुल संख्या २३ है. इसे मानने न मानने का प्रश्न ही नहीं उठता.
लेकिन यह छन्दकारों के कौतुक की तरह ही हैं. वस्तुतः यह मंच पर किसी प्रयासकर्ता को छन्द के मूलभूत नियम को अपना कर छान्दसिक प्रयास के प्रति प्रेरित करने का आग्रही है. कोई छन्दकार छन्द का शुद्ध-शुद्ध निर्वहन करने लगे यही अपने आप में महती उपलब्धि है. फिर भी, चर्चा चली है तो दोहा के सभी २३ प्रकार को उद्धृत किया जा रहा है.
दोहा के प्रकार --
१. भ्रमर (एक छन्द में कुल २२ गुरु तथा ४ लघु)
२. सुभ्रामर (एक छन्द में कुल २१ गुरु तथा ६ लघु)
३. शरभ (एक छन्द में कुल २० गुरु तथा ८ लघु)
४. श्येन (एक छन्द में कुल १९ गुरु तथा १० लघु)
५. मंडुक (एक छन्द में कुल १८ गुरु तथा १२ लघु)
६. मर्कट (एक छन्द में कुल १७ गुरु तथा १४ लघु)
७. करभ (एक छन्द में कुल १६ गुरु तथा १६ लघु)
८. नर (एक छन्द में कुल १५ गुरु तथा १८ लघु)
९. हंस (एक छन्द में कुल १४ गुरु तथा २० लघु)
१०. गवंद या मदुकल (एक छन्द में कुल १३ गुरु तथा २२ लघु)
११. पयोधर (एक छन्द में कुल १२ गुरु तथा २४ लघु)
१२. चल या बल (एक छन्द में कुल ११ गुरु तथा २६ लघु)
१३. वानर (एक छन्द में कुल १० गुरु तथा २८ लघु)
१४. त्रिकल (एक छन्द में कुल ९ गुरु तथा ३० लघु)
१५. कच्छप (एक छन्द में कुल ८ गुरु तथा ३२ लघु)
१६. मच्छ (एक छन्द में कुल ७ गुरु तथा ३४ लघु)
१७. शार्दुल (एक छन्द में कुल ६ गुरु तथा ३६ लघु)
१८. अहिवर (एक छन्द में कुल ५ गुरु तथा ३८ लघु)
१९. ब्याल (एक छन्द में कुल ४ गुरु तथा ४० लघु)
२०. विडाल (एक छन्द में कुल ३ गुरु तथा ४२ लघु)
२१. श्वान (एक छन्द में कुल २ गुरु तथा ४४ लघु)
२२. उदर (एक छन्द में कुल १ गुरु तथा ४६ लघु)
२३. सर्प (एक छन्द में कुल ४८ लघु)
२२वाँ तथा २३वाँ प्रकार प्राचीन नियमों के निर्वहन के कारण हमने उद्धृत किया है. इनका निर्वहन इतना सहज नहीं है. क्योंकि सम चरण का अनिवार्य गुरु-लघु (पदान्त) साधने में छन्दकार लसर जाते हैं. क्योंकि वहाँ ऐसे ही शब्दों का प्रयोग हो सकता है जिनका उच्चारण गुरु-लघु (२ १, ऽ।) की तरह हो सके. यथा, अयन, भयन, मयन, सयन आदि जिन्हें क्रमशः ऐन, भैन, मैन, सैन उच्चारित करते हैं.
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