Friday, September 30, 2016

दारू (शराब ) के दोहे

दारू दुसमण देह री, नेह घटादे नैण।
इज्जत जावै आप री, लाजां मरसी सैण।१।
दारू तो अल़घी भली, मत पीवो म्हाराज।
कूंडो काया रो करै, घर मैं करै अकाज।२।
मद मत पीवो मानवी, मद सूं घटसी मान।
धन गंवास्यो गांठ रो, मिनखां मांही शान।३।
दारू री आ लत बुरी, कोडी करै बजार।
लाखीणै सै मिनख रा, टका कर दे च्यार।४।
दारू रा दरसण बुरा, माङी उणा री गत।
ज्यांरै मूँ दारू लगी, पङी जिणां नै लत।५।
ढ़ोला दारू छोङदे, नींतर मारू छोङ।
मद पीतां मरवण कठै, जासी काया छोङ।६।
मदछकिया छैला सुणो, देवो दारू छोङ।
नित भंजैला माजनू, जासी मूछ मरोङ।७।
दारू दाल़द दायनी, मत ना राखो सीर।
लाखीणी इज्जत मिटै, घर रो घटसी नीर।८।
दारू देवै दुःख घणा, घर रो देवै भेद।
धण रो हल़को हाथ ह्वै, रोक सकै ना बैद।९।
धण तो दुखियारी रहै, दुख पावै औलाद।
जिण रै घर दारू बसै, सुख सकै नहीं लाध।१०।
मिनख जूण दोरी मिलै, मत खो दारू पी'र।
धूल़ सटै क्यूं डांगरा, मती गमावै हीर।११।
दारू न्यूतै बण सजन, दोखी उणनै जाण।
दूर राखजे कर जतन, मत करजे सम्मान।१२।
दारू सुण दातार है, घणां कैवला लोग।
मत भुल़ ज्याई बावल़ा, मती लगाजे रोग।१३।
गाफल मत ना होयजे, मद पीके मतवाल।
लत लागी तो बावल़ा, राम नहीं रूखाल़।१४।
रैज्ये मद सूं आंतरो, सदां सदां सिरदार।
ओगणगारी मद बुरी, मत मानी मनवार।१५।
मद री मनवारां करै, नीं बो थारो सैण।
दूर भला इसङा सजन, मती मिलाज्यो नैण।१६।
जे सुख चावो जीव रो, दारू राखो दूर।
घर रा सै सोरा जिवै, आप जिवो भरपूर।१७।
गढ़'र कोट सै खायगी, दारू दिया डबोय।
अजै नहीं जे छोडस्यो, टाबर करमा रोय।१८।
दुख पावैली टाबरी, दे दे करमा हाथ।
परिवारां जे सुख चहै, छोङो दारू (रो) साथ।१९।
ओ अरजी करै, मद नै जावो भूल।
मिनख जमारो भायला, कींकर करो फजूल।२०।
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पिण्ड झड़े , रोबा पडे़ , पड़िया सड़े पेंषाब ।
जीब अड़े पग लडथडे़, साजन छोड़ शराब ।। १ ।।
कॉण रहे नह कायदो, अॅाण रहे नह आब।
(जे) राण बाण नित रेवणो,(तो) साथी छोड शराब11 २ 11
जमी साख जाति रहे ,ख्याति हुवे खराब ।
मुख न्याति रा मोड़ले ,साथी छोड़ शराब 11 ३ 11
परणी निरखे पीवने , दॉत आंगली दाब।
भॉत भॉत मंाख्यंा भमे, साजन छोड़ शराब 11 ४ 11
आमद सू करणो इधक , खरचो घणो खराब ।
सदपुरखॉ री सीखहे, साथी छोड़ शराब 11 ५ 11
सरदा घटे शरीर री , करे न गुरदा काम।
परदा हट जावे परा, आसव छोड़ अलाम 11 ६ 11
कहे सन्त अर ग्रंथ सब , निष्चय धरम निचोड़ ।
जे सुख चावे जीवणो, (तो) छाक पीवणो छोड़ 11 ७11
मोनो अरजी रे मनां , मत कर झोड़ झकाळ।
छाक पीवणी छोड़दे, बोतल रो मुॅहबाळ 11 ८ 11
चंवरी जद कंवरी चढी, खूब बणाया ख्वाब ।
ख्वाब मिळगया खाक मे, पीपी छाक शराब 11 ९11
घर मांेही तोटो घणों, रांधण मिळेन राब।
बिलखे टाबर बापड़ा , साजन छोड़ शराब ।। १0 ।।
दारू में दुरगण घणा , लेसमात्र नह लाब ।
जग में परतख जोयलो , साथी छोड़ शराब ।। ११ ।।

चौमासा रो इंतजार

बिरखा बरसी सांतरी, मुरधर जागी आस ।
कोठा भरसी धान रा, डांगर चरसी घास ।।
हाळी हळड़ा सांभिया, साथै साम्भ्या बीज ।
खेतां ढाणी घालसी, स्यावड़ गई पसीज ।।
ऊंचै धोरै बाजरी, ढळवोँ बीजूं ग्वार ।
बिच्च बिच्च तूंपूं टींढसी, मतीरा मिश्रीदार ।।
ऊंचै धोरै टापरी, साथै रैसी नार ।
दिनड़ै करां हळोतियो, रातां बातां त्यार ।।
काचर काकड़ कीमती, मतीरा मजेदार ।
मोठ मोवणा म्होबला, धान धमाकैदार।।
आभै गाजी बादळी, मुरधर नाच्या मोर ।
जीया जूण खिलखिली, देख घटा घनघोर ।।
आभै चमकी बीजळी, मनड़ै जाग्यो मोह ।
बादळ राजा बरससी, मिटसी पिया बिछोह ।।
छमछम बरसै बादळी, धम धम नाचै मोर ।
धरती माथै रूंखड़ा, घालै घूमर जोर ।।
बादळ ऐड़ा ओसरया, मुरधर करियो वास ।
धरती आली सांतरी, करसां पूरी आस ।।
डेडर जीभां खोल दी, भरिया देख तळाब ।
कोयल वाणी सांचरी, मुरधर उमड़ी आब।।

राजस्थानी में वर्षा अनुमान की कुछ पुरानी कहावतें

आगम सूझे सांढणी, दौड़े थला अपार !
पग पटकै बैसे नहीं, जद मेह आवणहार !!
..सांढनी  (ऊंटनी) को वर्षा का पूर्वाभास हो जाता है. सांढणी जब इधर-उधर भागने लगे, अपने पैर जमीन पर पटकने लगे और बैठे नहीं तब समझना चाहिए कि बरसात आयेगी !
अत तरणावै तीतरी, लक्खारी कुरलेह|
सारस डूंगर भमै, जदअत जोरे मेह ||
.... तीतरी जोर से बोलने लगे, लक्खारी कुरलाने लगे, सारस पहाड़ों की चोटियों पर चढ़ने लगे तो ये सब जोरदार वर्षा आने के सूचक है !!
तीतर पंखी बादली, विधवा काजळ रेख
बा बरसै बा घर करै, ई में मीन न मेख ||
....यदि तीतर पंखी बादली हो (तीतर के पंखों जैसा बादलों का रंग हो) तो वह जरुर बरसेगी| विधवा स्त्री की आँख में काजल की रेखा दिखाई दे तो समझना चाहिए कि अवश्य ही नया घर बसायेगी, इसमें कुछ भी संदेह नहीं !!
काळ कसुमै ना मरै, बामण बकरी ऊंट|
वो मांगै वा फिर चरै, वो सूका चाबै ठूंठ||
...ब्राह्मण, बकरी और ऊंट दुर्भिक्ष के समय भी भूख के मारे नहीं मरते क्योंकि ब्राह्मण मांग कर खा लेता है, बकरी इधर उधर गुजारा कर लेती है और ऊंट सूखे ठूंठ चबा कर जीवित रह सकता है|
धुर बरसालै लूंकड़ी, ऊँची घुरी खिणन्त|
भेली होय ज खेल करै, तो जळधर अति बरसन्त|

....यदि वर्षा ऋतू के आरम्भ में लोमड़िया अपनी घुरीउंचाई पर खोदे एवं परस्पर मिल कर क्रीड़ा करें तो जानो वर्षा भरपूर होय।

आपणां बडेरा

बडेरां रो काम चालतो अंगूठा री छाप सुं
दीखणं में गिंवार हा लाखां रो बिजनस कर लेंता
ब्याजूणां दाम दियां पेली अडाणें गेणां धर लेंता
च्यार महीनां खपता हा बारा महीनां खांता हा कांण मोखाण औसर मौसर दस दस गांव जिमांता हा
एक लोटो हूंतो हो सगला घर रा निमट (फ्रेस) आऊन्ता हा
दांतणं खातर नीमडा री डाली तोड लियांता हा
गाय भैंस रा धीणां हा बलदां री जोडी राखता
परणींजण नें जांवता हा ऊंट बलद रा गाडां में
हनीमून मनाय लेंवता भैंसियां रा बाडा में
न्यारा न्यारा रूम कठै हा कामलां रा ओटा हा
पोता पोती पसता पसता दादी भेला सोंता हा
सात भायां री बेनां हूंती दस बेटां रा बाप हूंता
भूखो कोई रेंवतो कोनीं मोटा अपणें आप हूंता
मा बापां रे सामनें फिल्मी गाणां गांता कोनीं
घरवाली री छोडो खुद रा टाबर नें बतलांता कोनीं
कारड देख राजी हूंता तार देखकर धूजता
मांदगी रा समाचार मरयां पछै ही पूगता
मारवाडी में लिखता लेणां आडी टेडी खांचता
लुगायां रा लव लेटर नें डाकिया ही बांचता
च्यार पांच सोगरा तो धाप्योडा गिट ज्यांवता
खेजडी रा छोडा खार काल सुं भिड ज्यांवता
लुगायां घर में रेंती मोडा पर कोनीं बैठती
साठ साल की हू ज्यांती बजार कोनीं देखती
बाडा भरयोडा टाबर हूंता कोठा भरिया धान हा
पैदा तो इंसान करता पालता भगवान हा
कोङियां री कीमत हूंती अंटी में कलदार रेंता
लुगायां री पेटियां में गेणां रा भंडार रेंता
भाखरां पर ऊंचा म्हेल मालिया चिणायग्या
आदमी में ताकत किती आपां नें समझायग्या
पाला जांता मालवे डांग ऊपर डेरा हा
दूजा कोनीं बे आपणां बडेरा हा

Thursday, September 29, 2016

गणित की कविता

~एक बार एक गणित के अध्यापक से उसकी
पत्नी ने गणित मे प्यार के दो शब्द कहने को कहा,
पति ने पूरी कविता लिख दी ~
म्हारी गुणनखण्ड सी नार, कालजो मत बाल
थन समझाऊँ बार हजार,
कालजो मत बाल
1. दशमलव सी आँख्या थारी,
न्यून कोण सा कान,
त्रिभुज जेडो नाक,
नाक री नथनी ने त्रिज्या जाण,
कालजो मत बाल
2. वक्र रेखा सी पलका थारी,
सरल भिन्न सा दाँत,
समषट्भुज सा मुंडा पे,
थारे मांख्या की बारात,
कालजो मत बाल
3.रेखाखण्ड सरीखी टांगा थारी,
बेलन जेडा हाथ,
मंझला कोष्ठक सा होंठा पर,
टप-टप पड रही लार,
कालजो मत बाल
4.आयत जेडी पूरी काया थारी,
जाणे ना हानि लाभ,
तू ल.स.प., मू म.स.प.,
चुप कर घन घनाभ,
कालजो मत बाल
5.थारा म्हारा गुणा स्युं.
यो फुटया म्हारा भाग ।
आरोही -अवरोही हो गयो,
मुंडे आ गिया झाग ।
कालजो मत बाल
म्हारी गुणनखण्ड सी नार कालजो मत बाल
थन समझाऊँ बार हजार कालजो मत बाल —

समाज-सेवा

ऐसी मान्यता है कि मनुष्य योनि अनेक जन्मों के उपरान्त कठिनाई से प्राप्त होती   है । मान्यता चाहे जो भी हो, परन्तु यह सत्य है कि समस्त प्राणियों में मनुष्य ही श्रेष्ठ है । इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले समस्त प्राणियों की तुलना में मनुष्य को अधिक विकसित मस्तिष्क प्राप्त है जिससे वह उचित-अनुचित का विचार करने में सक्षम होता है ।
पृथ्वी पर अन्य प्राणी पेट की भूख शान्त करने के लिए परस्पर युद्ध करते रहते हैं और उन्हें एक-दूसरे के दुःखों की कतई चिन्ता नहीं होती । परन्तु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । मनुष्य समूह में परस्पर मिल-जुलकर रहता है और समाज का अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य को एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार बनना पड़ता है ।
अपने परिवार का भरण-पोषण, उसकी सहायता तो जीव-जन्तु, पशु-पक्षी भी करते हैं परन्तु मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो सपूर्ण समाज के उत्थान के लिए प्रत्येक पीडित व्यक्ति की सहायता का प्रयत्न करता है । किसी भी पीड़ित व्यक्ति की निःस्वार्थ भावना से सहायता करना ही समाज-सेवा है ।
वस्तुत: कोई भी समाज तभी खुशहाल रह सकता है जब उसका प्रत्येक व्यक्ति दुःखों से बचा रहे । किसी भी समाज में यदि चंद लोग सुविधा-सम्पन्न हों और शेष कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे हों, तो ऐसा समाज उन्नति नहीं कर सकता ।
पीड़ित लोगों के कष्टों का दुष्प्रभाव स्पष्टत: सपूर्ण समाज पर पड़ता है । समाज के चार सम्पन्न लोगों को पास-पड़ोस में यदि कष्टों से रोते-बिलखते लोग दिखाई देंगे, तो उनके मन-मस्तिष्क पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा । चाहे उनके मन में पीड़ित लोगों की सहायता करने की भावना उत्पन्न न हो, परन्तु पीड़ित लोगों के दुःखों से उनका मन अशान्त अवश्य होगा ।
किसी भी समाज में व्याप्त रोग अथवा कष्ट का दुअभाव समाज के सम्पूर्ण वातावरण को दूषित करता है और समाज की खुशहाली में अवरोध उत्पन्न करता है । समाज के जागरूक व्यक्तियों को सपूर्ण समाज के हित में ही अपना हित दृष्टिगोचर होता है । मनुष्य की विवशता है कि वह अकेला जीवन व्यतीत नहीं कर सकता ।
जीवन-पथ पर प्रत्येक व्यक्ति को लोगों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है । एक-दूसरे के सहयोग से ही मनुष्य उन्नति करता है । परन्तु स्वार्थि प्रवृति के लोग केवल अपने हित की चिन्ता करते हैं । उनके हृदय में सम्पूर्ण समाज के उत्थान की भावना उत्पन्न नहीं होती । ऐसे व्यक्ति समाज की सेवा के अयोग्य होते हैं ।
समाज में उनका कोई योगदान नहीं होता । समाज सेवा के लिए त्याग एवं परोपकार की भावना का होना आवश्यक है । ऋषि-मुनियों के हमारे देश में मानव-समाज को आरम्भ से ही परोपकार का संदेश दिया जाता रहा है । वास्तव में परोपकार ही समाज-सेवा है ।
किसी भी पीड़ित व्यक्ति की सहायता करने से वह सक्षम बनता है और उसमें समाज के उत्थान में अपना योगदान देने की योग्यता उत्पन्न इस प्रकार समाज शीघ्र उन्नति करता है । वास्तव में रोगग्रस्त, अभावग्रस्त, अशिक्षित लोगों का समूह उन्नति करने के अयोग्य होता है ।
समाज में ऐसे लोग अधिक हों तो समाज लगता है । रोगी का रोग दूर करके, अभावग्रस्त को अभाव से लड़ने के योग्य बनाकर, अशिक्षित को शिक्षित ही उन्हें समाज एवं राष्ट्र का योग्य नागरिक बनाया जा सकता है । निःस्वार्थ भावना से समाज के हित के लिए किए गए कार्य ही समाज की सच्ची सेवा होती है ।
सभ्य, सुशिक्षित, के पथ पर अग्रसर समाज को देखकर ही वास्तव में को सुख-शांति का अनुभव प्राप्त हो सकता है । इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले अन्य जीव-जन्तुओं और मनुष्य में यही अन्तर है । अन्य जीव-जन्तु केवल अपने भरण-पोषण के लिए परिश्रम करते हैं और निश्चित आयु के उपरान्त समाप्त हो जाते हैं ।

अपने समाज के लिए उनका कोई योगदान नहीं होता । परन्तु समाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज के उत्थान के लिए भी कार्य करता है । मनुष्य के सेवा-कार्य उसे युगों तक जीवित बनाए रखते हैं । कोई भी विकसित समाज सदा समाज-सेवकों का ऋणी रहता है ।

पत्र

महामहिम राष्ट्रपति महोदय,
हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए 70 साल का समय हो गया और ये   बात हिन्दुस्तान हर बच्चा जानता कि देश को आज़ाद कराने जितना योगदान हिन्दु भाईयों का था उतना ही मुसलमानों का भी था. अगर एक तरफ़ मोहनदास कर्मचंद गांधी थे तो दूसरी तरफ़ सरहदी गांधी ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ॉं भी थे!
लेकिन जिस आज़ादी और बेहतर ज़िन्दगी की उम्मीद में हमारे पुर्खों ने हिन्दुस्तान में रहने का फ़ैसला लिया और किसी भी क़ीमत पर पाकिस्तान को नकार दिया! क्या उस दर्जे की आज़ादी और बेहतर ज़िन्दगी हिन्दुस्तान के मुसलमानों को मिल रही है...???
आज अगर इस देश में हमारी माँ बहनों की इज़्ज़त सरे बाज़ार रुसवा की जारी है तो इसका ज़िम्मेदार कौन है..???
अगर आज गाय के गोश्त के नाम पर भाई-बाप की बली चढ़ाई जा रही है तो इसका ज़िम्मेदार कौन है...???
 क्या बीफ़ खाने की सज़ा क़त्ल और सामूहिक बलात्कार है.???
आख़िर कौन से "सबका साथ, सबका विकास" की बात करती है हमारी केन्द्र सरकार... देश का राष्ट्रपति एक मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता... आपको अपनी कुर्सी का मान रखना होगा और इन मामलों में गम्भीरता से कार्यवाही करनी होगी...
ये दर्द हिन्दुस्तान के हर मुसलमान के दिल का दर्द है जो आज मजबूरी में लिखना पड़ रहा है... सरकार को ये बात समझनी होगी कि मुसलमान भी इसी हिन्दुस्तान की औलाद हैं... और मुसलमानों पर हो रहा अत्याचार देश हित में किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता है...
देश के प्रथम नागरिक और सम्मानित राष्ट्रपति होने के नाते हम हिन्दुस्तान के मुसलमान आपसे अपील करते है कि आप अपने पद कि गरिमा का मान रखते हुए हिन्दुस्तान के मुसलमानों को ये यक़ीन दिलायें कि मुसलमान भी इस देश उतने ही महफ़ूज़ है जितने कि हिन्दु भाई हैं!

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए भी नितान्त ज़रूरी है । जिस समाज में स्वतन्त्रतापूर्वक विचारों की अभिव्यक्ति न हो सके, उस समाज पर अनैतिकता का शासन हो जाता है । वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के आधार पर एक समाज स्वतन्त्र रूप से बस सकता है । प्रत्येक समाज के अपने कुछ नियम होते हैं जो समाज की निरंकुशता पर अंकुश लगाकर उसे सुरक्षित भविष्य देते हैं

अभिव्यक्ति की आज़ादी

आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत क्या है? जो जिसके मन में आता है, बोल रहा है। और इस मनमानी की शुरुआत हमारे नेताओं से होती है। लगता है नेताओं ने यह मान लिया है कि वे न तो कुछ ग़लत कर सकते हैं, और न ही ग़लत कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इस मान्यता का अर्थ है, नेता कभी ग़लत नहीं होता।जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का तकाज़ा है कि नागरिक (जिनमें नेता शामिल हैं) एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करते हुए विवेक सम्मत बात कहें।
जहां तक सवाल अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की आवश्यकता का है तो यह समझना ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के मूल में विचार की आज़ादी का मुद्दा है। जानवर और मनुष्य में सबसे महत्वपूर्ण भेद यह है कि मनुष्य विचारशील प्राणी है। सोच सकता है, सोचता है। और इस सोच की साझीदारी चिंतन को व्यापकता देती है, उसे सामूहिक चिंतन बनाती है। यही सामूहिक चिंतन समाज की अभिव्यक्ति बनता है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि मेरा चिंतन यदि दूसरे तक नहीं पहुंच रहा है तो वह किसी सामाजिक हित का माध्यम नहीं बन सकता। अभिव्यक्ति पहुंचाने के इसी मतलब का नाम है। सामूहिक हितों का तकाज़ा है कि मेरी बात दूसरे तक पहुंचे, दूसरे से तीसरे तक… और यह विचार-यात्रा चलती रहे। तभी विचारों का मंथन होगा, तभी अमृत मिलेगा।
जनतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ यह भी है कि किसी भी प्रकार की सत्ता से जुड़ा व्यक्ति अपनी बात या अपनी सोच को अंतिम सत्य मानने का भ्रम न पाले। इस आज़ादी के अभाव में तानाशाही पलती है। सत्ताधारी अर्थात ताकतवर यह मान लेता है कि वही सही सोच सकता है, और जो वह सोचता है वही सही है। तब उसे अपना किया कुछ भी ग़लत नहीं लगता। ऐसी व्यवस्था में सत्ताधारी के विचारों को कोई चुनौती नहीं मिलती, इसलिए एक मिथ्याभिमान जनमता है, जो व्यक्ति की समानता के सिद्धांत की धज्जियां उड़ा देता है। इसीलिए ‘हम भारत के लोगों’ ने देश को जो संविधान दिया, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस अधिकार को बड़ी प्रमुखता से रेखांकित किया है। लेकिन अपरिमित नहीं है यह अधिकार। आज़ादी की यह सीमा व्यक्ति से विवेकशील व्यवहार की अपेक्षा करती है। आप कुछ भी कहें, कुछ भी करें, विवेक के तराज़ू पर तुला होना चाहिए वह।
दुर्भाग्य से यह विवेकशीलता आज हमारे व्यवहार में नहीं दिख रही। इसी का परिणाम है कि किसी पेरूमल मुरगन का लेखन किसी समाज के एक हिस्से को अपनी भावनाओं पर आघात लगने लगता है और फिर लेखक को माफी मांगने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। नारे लगते हैं, आंदोलन होते हैं। यह है भीड़ की सत्ता। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इस तरह का प्रतिबंध किसी विवेकशील समाज की पहचान नहीं है।
जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि हर नागरिक को अपनी सोच को प्रकट करने का अधिकार मिलना चाहिए और जनतांत्रिक आदर्श हमें यह भी सिखाते हैं कि नागरिक को अपने सच को प्रकट करने से पहले उसे विवेक के तराज़ू पर तोलना चाहिए। वस्तुतः यह विवेक जनतंत्र की रीढ़ है। इसी के सहारे तन कर खड़ी हो सकती हैं जनतांत्रिक परम्पराएं। हमारी त्रासदी यह है कि हमने कथित भावनाओं को विवेक से अधिक तरजीह दे दी है। विवेक की यह उपेक्षा बहुत भारी पड़ रही है हमें।
इसी का परिणाम है कि हम न जातीयता के चंगुल से मुक्त हो पा रहे हैं, न सांप्रदायिकता के जाल से। ऐसी स्थिति में यदि व्यक्ति के विचार को पनपने का अवसर नहीं मिलेगा, यदि समाज में मंथन की प्रक्रिया नहीं चलेगी तो उससे पैदा होने वाली जड़ता मनुष्य के विकास के सारे रास्तों को अवरुद्ध कर देगी। इसी विकास के लिए फैज़ ने कहा था-बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे… आवश्यकता इस आज़ादी के अर्थ, अर्थवत्ता और महत्व को समझकर विवेक के साथ इसके उपयोग की है।

एक जिला कलेक्टर का पत्र बच्चों के माता-पिता के नाम

प्रिय अभिभावकगण,
कोटा शहर की ओर से मुझे आपके बच्चों का इस शिक्षा नगरी में स्वागत करने का अवसर मिला है। ये शहर इस देश के युवा मस्तिष्क को आधुनिक भारत का निर्माता बनाने में ऊर्जा देने का कार्य करता है। इस पत्र को आरम्‍भ करने से पूर्व मेरा अभिभावकों से निवेदन है कि वे इसे पर्याप्त समय देकर संयमपूर्वक पढ़ें, तथा उपयुक्त होगा कि अभिभावक अर्थात माता–पिता साथ साथ पढ़ें। प्रत्येक माता–पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा सफलता के उस मुकाम तक पहुँचे जहाँ कुछ लोग ही पहुँच पाते हैं। इसके लिए माता–पिता अपने बच्चे के मस्तिष्क में एक बीजारोपण करते हैं तथा उसका सही पोषण ही सफलता का आधार है।
माता-पिता के लिए ये अत्यन्‍त कठिन स्थिति होती है कि वे अपने बच्चे को ऐसी जगह छोड़ते हैं जहाँ वे स्वयं नहीं रहते। ये और भी मुश्किल तब हो जाता है जब बच्चे को शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट और प्रतिबद्ध प्रयासों के लिए छोड़ा गया हो। जब माता – पिता बोर्ड/होर्डिंग/अखबारों में उन प्रतिभावान बच्चों के क्षेत्र को देखते हैं जो कि उन्होंने अपने बच्चों के लिए सोचा है तो उनका संकल्प अपने बच्चों को प्रेरित करने के लिए ओर मजबूत हो जाता है। एक अच्छी आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर के लिए इंजिनियरिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में अच्छा केरियर निश्चित रूप से हो सकता है, जब मैं ईमानदारी से सोचता हूँ तो यह एक बड़ा कारण है जो अभिभावकों को इंजिनियरिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में अपने बच्चों का भविष्य देखने के लिए प्रेरित करता है। तथा सीमित संसाधनों और उच्च स्तरीय प्रतियोगिता को देखते हुए समय से आगे की सोचना गलत भी नहीं है।
राजस्‍थान के कोचिंग हब कोटा के जिला कलेक्टर ने कोटा में लगातार घट रही आत्‍महत्‍या की घटनाओं को ध्‍यान में रखते हुए एक जिम्‍मेदार प्रशासक के रूप में एक  खुला पत्र बच्‍चों के माता-पिता के नाम लिखा है। यह पत्र उन्‍होंने प्रेस में जारी किया है। पत्र में जिन मुद्दों की तरफ उन्‍होंने ध्‍यान खींचा है, उन पर केवल अभिभावक ही नहीं  शिक्षकों को भी विचार करना चाहिए।
हालाँकि मुझे लगता है कि हम सब इस बात से सहमत हैं कि दुनिया पिछले 15-20 सालों में इतनी बदल गई है कि जो सुविधाएँ और सेवाएँ कुछ सीमित लोगों के लिए उपलब्ध थीं, वे वर्तमान में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारी प्रगति के कारण अब सभी लोगों के लिए उपलब्ध हैं।
मनोरंजन पेशेवर खेल, साहित्य, स्वास्थ्य, पत्रकारिता, फोटोग्राफी, इवेंटमैनेजमेंट, संगीत, पर्यटन इत्यादि में बीते युग की तुलना भारी वृद्धि देखी गई है। बहुत से लोगों ने इन क्षेत्रों में नए मुकाम हासिल किए हैं जो न कि एक सफल केरियर विकल्प के रूप में सामने लाए बल्कि इन्होंने मनुष्य की रचनात्मक क्षमता को भी बढ़ाया है।खैर, मैं आपसे इसे एक बेहतर विकल्प के रूप में देखने के लिए नहीं कह रहा हूँ। परन्‍तु इसे भी एक विकल्प के रूप में देख सकते हैं। ये तथ्य की बात है कि आज युवा बच्चे अपने अकादमिक प्रदर्शन के सम्‍बन्‍ध में काफी दबाव का सामना कर रहे हैं, इसी वजह से इनमें से कई बच्चे तनाव के विभिन्न स्तरों से गुजरते हैं।
यदि हम सोचते हैं कि प्रतियोगिताओं की वजह से कुछ तनाव होता है तो माता-पिता का समर्थन देखभाल और परिवार का अच्छा वातावरण किसी भी कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बच्चों को सक्षम बनाता है। हालाँकि मौजूदा वास्तविकता ये है कि सही परिस्थिति और समर्थन की कमी की वजह से कई बच्चे आत्महत्या के निर्णय तक पहुँच जाते हैं।
मैंने अधिकतर लोगों को ऐसे कहते हुए सुना है कि बच्चों को ऐसी कई चीजें पसन्‍द नहीं होतीं जो उनके लिए अच्छी हैं। अब आपके मन में ये प्रश्न उठ सकता है कि क्‍या माता-पिता को बच्चों की अपरिपक्व इच्छाओं को मानना चाहिए। शायद आवश्यकता नहीं तो आइए, अब देखते हैं कि बच्चे किन चीजों का विरोध करते हैं शायद सही खाना, सही समय पर सोना, सही तरीके से बात करना, मर्यादित आचरण करना, सही देखना–सुनना आदि।
बच्चे वास्तव में माता–पिता का अनुगमन करते हैं न कि किसी भी चीज का अंधा अनुसरण। इसके अलावा एक बात निश्चित है कि बच्चे माता-पिता को देखते हैं एवं विचार करते हैं कि उन्हे जो सिखाया गया है क्या वह भी उसका पालन करते हैं? और क्या वें उन बातों का पालन करते हुए वास्तव में स्नेहहिल, शान्‍त एवं खुश हैं।
वे अपने माता-पिता की केवल उन्ही बातों को चुनते हैं जो उन्हें सुख और शांति प्रदान करती है। यदि आपने परिस्थितियों को खराब कर दिया है तो हो सकता है,आपकी संतान आपको नापसन्‍द करे।
यह काफी विचित्र और खिझाने वाली बात हो सकती है लेकिन ऐसी सम्‍भावना है कि आपकी संतान आपको नापसन्‍द करने लगे। इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं पूर्णत: पसन्‍द न करना, आपकी कुछ आदतों को पसन्‍द न करना, किसी अन्य की तुलना में आपको कम पसन्‍द करना, आपकी अत्यधिक देखभाल एवं चिंता की भावना के लिए न पसन्‍द करना, जिसे आप प्यार समझ सकते है, परन्‍तु हो सकता है वह आपकी सन्‍तान के लिए अति हो आदि।
तो क्या इस पत्र का उद्देश्य आपको यह अहसास कराना है कि आपकी सन्‍तान आपको नापसन्‍द करती है।
जी नहीं… !आपका बच्चा आपको प्यार व पसन्‍द करता है… मैं केवल इस बिन्‍दु पर जोर देना चाहता हूँ कि हम अनजाने में कभी ऐसी स्थिति पैदा न कर दें या हालात पैदा न कर दें कि जो हमें फिर से सोचने पर मजबूर कर दे…..।
बच्चे माता-पिता की जिम्मेदारी हैं और हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम अभिभावकों को उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराएँ, न ही हम ऐसा करना चाहते हैं। सभी अभिभावक, अपने बच्चों का भविष्य सुनहरा बनाना चाहते हैं किन्तु यहाँ यह विचारणीय है कि हमारे स्वप्न और ख्वाहिशें केवल मात्र हमारे अनुभवों तक ही सीमित हैं। सच्चाई ये भी है कि हम यह नहीं सोच सकते, या फिर अपने सपने में भी ये विचार नहीं कर सकते है कि हमारा बच्चा हमारी सोच से कई गुना ज्यादा भी प्राप्त कर सकता है। हम सभी समाज के विभिन्न वर्गो से आते हैं चाहे वह सामाजिक हो या आर्थिक, या फिर कोई धर्म, या कोई विचारधारा हो। किन्तु जहाँ तक पालन–पोषण का मूल सिद्धान्‍त है वह सभी के लिए समान रहता है।
मैं इस विषय का कोई ज्ञाता नहीं हूँ और न ही मुझे बच्चों के सही पालन पोषण के लिए कोई विशेष योग्यता प्राप्त है। मैं यह भी मानता हूँ कि हर बच्चा चूँकि अलग होता है इसलिए एक अलग प्रकार का पालन–पोषण चाहता है। मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया आप इन निम्न आधारभूत मौलिक बिन्‍दुओं की तरफ ध्यान आकर्षित करें ..।
अपने घर का वातावरण अपने बच्चे के लिए खुशनुमा, प्यारभरा एवं शांति प्रिय बनाएँ । ऐसे वातावरण में पला, बढ़ा बालक न केवल स्वयं शांतिप्रिय एवं संतुलित रहता है बल्कि किसी भी तनाव की स्थिति का सामना करने के लिए सक्षम रहता है।
घबराएँ नहीं..! आपका बच्चा पूरी तरह से सुरक्षित है आप चिन्‍ता नहीं करें। मैं किस विषय पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, मुझे विश्वास है कि पत्र में आगे पढ़ने पर आप स्वत: ही समझ जाएँगे।
मैं अपने आपको बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण व्यक्ति के रूप में मानता हूँ कि क्योंकि मुझे युवा प्रतिभाशाली सुन्‍दर और अद्भुत बच्चों के लगभग 20-25 आत्महत्या नोट पढ़ने को मिले।
क्या मैं इस तरह के बच्चों के लिए इतने सारे विशेषण दे रहा हूँ क्योंकि उन्होंने आत्महत्या कर ली थी ? मुझे क्षमा करें…! मेरा जवाब नहीं है…ये वास्तव में वैसे ही थे जैसा मैंने पहले कहा कि युवा, प्रतिभाशाली सुन्‍दर और अद्भुत बच्चे।
एक लड़की जिसने अपने पाँच पन्नों के अँग्रेजी के सुसाइड नोट में व्याकरण की एक गलती नहीं की एवं लेख भी अति सुन्‍दर था…कितनी प्रतिभावान! उसकी माँ ने उसकी परवरिश के लिए अपने कैरियर का त्याग किया उसके लिए उसने अपनी माँ को धन्यवाद दिया …। परन्‍तु यह बात उसे बार-बार चुभ रही थी।
एक अन्य लड़की चाहती थी कि उसकी दादी अगले जन्म में उसकी माता बने…उसकी इच्छा थी कि उसकी छोटी बहन वह सब करे जो वो चाहती है। न कि जो माता-पिता चाहते हैं..एक ने लिखा कि वह विज्ञान नहीं पढ़ना चाहती पर उससे करवाया गया…बहुतों ने कुछ लाइनों में लिखा कि अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते …कुछ ने लिखा कि वो सक्षम नहीं हैं वो सब करने जो उनसे कहा गया है…सभी ने यही सोचा की इस तनाव से ज्यादा शांतिदायक और प्रयासरहित तो मौत ही है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है….!
जैसा कि एक हिमशैल की चोटी से हम उसकी गहराई का अन्‍दाजा नहीं लगा सकते वैसे ही आत्महत्या के मामले भले ही कम संख्या में दिखते हैं किन्‍तु वास्तविकता में इससे कहीं अधिक वे बच्चे हैं जो इस चरम कदम को तो नहीं उठाते किन्‍तु प्रदर्शन के दबाव की वजह से बहुत ज्यादा तनाव, चिन्‍ता से गुजर रहे हैं।
बहुत सारे माता-पिता इस आपदा के बाद ये विश्वास नहीं कर पाते कि उनके खुद के बच्चे हैं जिन्होंने इस तरह का कदम उठा लिया। मैं आगे किसी की भी भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता किन्‍तु वास्तविकता यह है कि बच्चे को मानसिक रूप से किसी की तलाश थी, जैसे किसी डूबते हुए आदमी के लिए तिनके का सहारा और वो तिनके का सहारा सिर्फ आपका उस बच्चे के प्रयासों की प्रशंसा करना हो सकता था। आपको सांत्वना भरे शब्दों से उसे ये बताना होगा कि अपना श्रेष्ठ दे, परिणाम जो भी रहे आपका उसकी विशिष्ठता के लिए पूर्ण प्रशंसा करना आत्मविश्वास को बढ़ाता है लेकिन इसके बदले में बच्चों को उनके प्रदर्शन को लेकर भावनात्मक दबाव बनाया जाता है। उनके पड़ोसियों, रिश्तेदारों के बच्चों आदि से उनकी तुलना की जाती है। बच्चों के प्रदर्शन को सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि या उपलब्धि से जोड़ दिया जाता है।
हमें ये समझने की आवश्यकता है कि आँकड़ों के अनुसार वे सभी बच्चे जो अकादमिक दबाव का सामना कर रहे हैं, की तुलना में आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या कम हैं, लेकिन तुलनात्मक अध्ययन ये दर्शाता है कि उनकी आशाएँ एवं सपनों को कई बार आहत किया जाता है। अत: ये उचित समय है कि हम इस सन्‍दर्भ में थोड़ा विचार करें।
बच्चों की वास्तविक जरूरतों एवं क्षमताओं को पहचानने की महत्ती आवश्यकता है । इस विषय में भी दो चरम विचारधाराएँ हैं -1. बच्चे को आपके अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए उसकी सीमाओं से परे जाकर अथक प्रयास करवाने की या दूसरी अनावश्यक रूप से जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार की। पर अफसोस दोनों ही तरीके ही कारगर नहीं हो पाते।
हमारा ऐसा मानना है कि हमें हमेशा शिक्षक या उपदेशक का कार्य करने की बजाए बच्चों से भी कुछ सीखने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि प्राय: बच्चे हमें खुशी और शान्ति की राह ही दिखाते हैं।
बच्चों को अपने स्वयं के सरोकारों के साथ रहने दें यानि मेरा मत है कि बच्चों को प्रकृति या वातावरण के साथ जोड़ें और उनकी संवाद क्षमता को संवृद्धित करें । अगर उसका आकर्षण विपरित लिंग की ओर होता है तो ये स्वाभाविक रूप से बढ़ती उम्र का लक्षण है न कि विकृति। इस स्वाभाविक प्रक्रिया को रोकने का प्रयास न कर सही दिशा एवं सही आकार देते हुए अपनी दृष्टि उस पर बनाए रखें। अपने बच्चों के साथ समय व्यतीत करिए।
उनको बार-बार अपने कार्य, हालात, समस्याएँ या फिर परेशानियों से अवगत न कराएँ। आपके जीवन का संघर्ष आपके बच्चे के लिए प्रेरणा बने न की बोझ। कहीं ऐसा न हो की बहुत देर हो जाए और आपके बच्चों के पास आपके साथ समय व्यतीत करने के लिए समय ही न बचे। प्रत्येक बच्चे की क्षमता की तुलना में उसके स्वयं के माता-पिता एक सीमा तक आदर्श बन सकते हैं। जबकि उस बच्चे की क्षमता अपने माता-पिता से ज्यादा अधिक है। ऐसी स्थिति में हमें उसकी पूर्ण क्षमता प्राप्त करने के लिए एक फेसिलेटर के रूप में प्रयास करने चाहिए। आखिर में मेरा आपसे यही निवेदन है कि अपना सपना साकार करवाने के लिए आप किसी भी हद तक जा सकते हैं या अपने बच्चे को अपनी पूर्ण क्षमता को हासिल करने के लिए, उसके सपनों को साकार करने के लिए सकरात्मक माहौल सृजित करना चाहते हैं।
सामूहिक परामर्श कार्यक्रम में ऐसे विषयों पर बात करने के लिए मुझे थोड़ी हिचकिचाहट इसलिए है कि प्राय: ऐसे कार्यक्रम में आप स्वयं से ज्यादा स्वयं के पड़ौसी या अन्य किसी व्यक्ति की बातों से प्रभावित होकर मूल विषय से परे हो जाते हैं। मेरे विचारों से भिन्न अभिप्राय रखना गलत नहीं है लेकिन यह आप अपनी शर्तों पर रखें तो बेहतर है न कि किसी ओर की।
अत: आपका मूल्यवान समय लेने के लिए आपका क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैंने आपको बाल प्रबन्‍धन की ये बातें बताने की कोशिश की। जिसका मैं विशेषज्ञ नहीं हूँ। मेरे विचार कोटा में मिले अनुभव का सार है एवं निश्चित रूप से गुरुजनों की प्रेरणा से ही मैं ऐसा कर पाया हूँ ।
दुनिया के श्रेष्ठ माता-पिता बनिए…।
मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें कोई स्पर्धा नहीं होगी…. 
डॉ. रवि कुमार
जिला कलेक्टर, कोटा,राजस्‍थान

अभिव्यक्ति

विस्तार बिंदु:
1. अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की आवश्यकता ।
2. इसके पक्ष एवं विपक्ष में तर्क-वितर्क ।
3. सीमित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मनुष्य के व्यक्ति के विकास में सहायक ।
4. निष्कर्ष ।
नवजात शिशु का क्रंदन बाहरी दुनिया के प्रति उसकी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है । अभिव्यक्ति की इच्छा किसी व्यक्ति की भावनाओं, कल्पनाओं एवं चिंतन से प्रेरित होती है और अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप होती है ।
अपनी भावना या अपने मत को अभिव्यक्ति करने की आकांक्षा कभी-कभी इतनी प्रबल हो जाती है कि मनुष्य अकेला होने पर अपने-आपसे बातें करने लगता है । परंतु अभिव्यक्ति की निर्दोषता या सदोषता का सवाल तभी खड़ा होता है, जब अभिव्यक्ति संवाद का रूप ग्रहण करती है-व्यक्तियों के बीच या समूहों के बीच ।
विचारों का आदान-प्रदान मानव-सभ्यता की शुरूआत से ही जुड़ा हुआ है । विचारों के आदान-प्रदान से मानव का वैयक्तिक विकास तो होता ही है, समाज की सामाजिकता भी इसी से बनती है और उसका विकास भी होता है । वैसे, शायद ही कभी सभ्यता के इतिहास में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई, यद्यपि हर युग में प्राधिकार ऐसे दावे करते रहे हैं ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय दो प्रकार के संवादों से है-एक तो मीडिया के द्वारा सूचनात्मक और दूसरा व्यक्ति के स्तर पर विचारों या मतों का प्रकाशन ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सूचनाओं के स्वतंत्र प्रसार से समस्त राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है-विशेषकर आर्थिक एवं वैज्ञानिक प्रसंगों में । और, प्रजातंत्र में प्रेसको एक सचेतक कहा गया है, जो समस्त राजनीतिक दुर्व्यापारों पर कड़ी निगरानी रखता है, प्रजातंत्र को सही दिशा देता है ।
प्रजातंत्र में प्रेस दोहरी भूमिका निभाता है-एक ओर वह किसी रचनात्मक प्रवृत्ति के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाता है और जनमत से सरकार को परिचित कराता है तथा दूसरी ओर, सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों से वह जनता को परिचित कराता है । यदि सरकार की नीतियां एवं कार्यक्रम राष्ट्रीय एवं सामाजिक हित में हैं, तो प्रेस के माध्यम से सरकार को जन-समर्थन भी मिलता है ।
परंतु, सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण पर किसी न किसी प्रकार के पूर्वाग्रह चाहे वह राजनीतिक हो या प्रजातीय हो अथवा सामाजिक पूर्वाग्रह हो, के प्रभाव की संभावना रहती ही है । इसी से, कभी-कभी किसी समाचारको दुर्भावना से प्रेरित घोषित कर दिया जाता है ।
प्रेस पर सेंसरशिप या संपादकीय विनियमन का प्रसंग मुख्यत: उन मुद्दों पर उठता रहा है, जिन पर सरकार की नीति की आलोचना की सबसे अधिक संभावना बनी रहती है ।
परंतु अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो संसार में कहीं है ही नहीं । हमारा संविधान भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता है, परंतु कुछ हिदायतोंके साथ कि उस अभिव्यक्ति का प्रभाव देश की एकता, अखण्डता एवं सम्प्रभुता पर नहीं पड़ना चाहिए; सामाजिक व्यवस्था या सौहार्द को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, न्यायालय की अवमानना नहीं होनी चाहिए और अभिव्यक्ति दुर्भावनापूर्ण नहीं होनी चाहिए ।
कोई भी व्यक्ति गाली देने या किसी को अपमानित करने की स्वतंत्रता दिए जाने की वकालत नहीं कर सकता । परंतु किसी व्यक्ति के विचारों, दृष्टिकोणों एवं धारणाओं की अभिव्यक्ति की युक्तियुक्तता पर नियंत्रक उपाय लगाना बड़ा मुश्किल काम है । हर आदमी यह सोचता है कि उसके विचार स्वतंत्र हैं, किंतु क्या इन सभी स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देना उचित होगा ?
यदि किसी व्यक्ति के विचार सामाजिक मान्यताओं एवं विश्वासों के विरूद्ध हैं और इससे सामाजिक स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तो निश्चित रूप से ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाना चाहिए ।
परंतु यहां यह प्रश्न उठता है कि आखिर बुद्ध, महावीर ईसा मसीह, पैगम्बर मुहम्मद आदि के विचार भी तो सामाजिक मान्यताओं के प्रतिकूल थे, फिर प्रतिकूल विचारों के प्रति कैसा दृष्टिकोण होना चाहिए ?……… जाहिर है, जो आलोचना सामाजिक स्वास्थ्य के लिए लाभकर हो तथा उसकी अभिव्यक्ति में कोई बुराई नहीं हो, पर जो आलोचना केवल सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिए पैदा की जाती है, उस पर प्रतिबंध तो लगना ही चाहिए ।
सामान्यत:, विश्वस्तर पर उदारवादियों एवं प्रगतिशील विचारकों का मुख्य विरोध कलात्मक अभिव्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रहार के खिलाफ है । चाहे वह साहित्य पर प्रतिबंध के रूप में हो या फिल्म पर सेंसर के रूप में या किसी अन्य प्रकार की कलात्मक अभिव्यक्ति में ।
इसमें तो शायद कोई दो राय नहीं कि वीभत्स अश्लीलता एवं कूर हिंसा की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए । परंतु शेष अन्य विचारों या धारणाओं के स्तर पर कोई प्रतिबंध उचित नहीं है-कलाकार को सर्जना की और दर्शक-पाठक को उनमें अपनी पसंद के चयन की छूट होनी ही चाहिए ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस पूरे विवाद में पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक विस्तृत मानसिकता वाले समझे जाते हैं और इसके विरोधी पिछड़े, रूढ़िवादी और संकीर्ण मानसिकतावादी ।निश्चित रूप से समाज में आज दोनों ही श्रेणियों के लोग रूढ़िवादी नजर आते हैं ।
पूर्ण स्वतंत्रता के लिए हाय-तौबा मचाने वाले अभिव्यक्ति को बस एकपक्षीय मानने की भूल करते हैं और विरोधी अपनी भावनाओं को इतना महत्व दे देते हैं कि उनके लिए वह गले की हड्डी बन जाती है ।
आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी व्यक्ति समझौतावादी रुख अपनाता ही नहीं है-या तो कोई विचार पूरी तरह गलत सिद्ध किया जाता है या पूरी तरह सही । संवाद के दोनों पक्ष बिल्कुल दो समानांतर धाराओं में चलते हैं, सम्मिलन की कोई संभावना ही नहीं होती ।
या तो विरोध में मौत के फतवे जारी हो जाते हैं या समर्थन में लम्बी-चौड़ी बहस । मनुष्य आज सर्वत्र अपनी सहिष्णुता खोता जा रहा है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उदार दृष्टिकोण कभी-कभी एक अच्छी-खासी भोली-भाली जनसंख्या को फासीवादी बना देता है, साम्प्रदायिक बना देता हैं-गुमराह कर देता है ।
निश्चित रूप से ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही चाहिए । अपने विचारों एवं धारणाओं के प्रति एक तर्कपूर्ण दृष्टिकोण तो रखना ही चाहिए, जैसे-हम अपने भाई-दोस्त से बहुत प्यार करें, यह अच्छी बात है; परंतु जब उनका किसी दूसरे से झगड़ा हो जाए, तो दूसरे के पक्ष को भी सुनने से प्यार कम नहीं हो जाता । यदि ऐसा ही दृष्टिकोण हम अपने विचारों के प्रति भी रखें, तो कोई विवाद ही नहीं होगा ।
वस्तुत: धार्मिक रूढ़िवाद एवं बौद्धिक रूढ़िवाद-दोनों ही विचारों की स्वस्थ अभिव्यक्ति में बाधक हैं । व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति के प्रति खुद सतर्कता बरतनी चाहिए । जैसे, मनुष्य अपने चलने के अधिकार का प्रयोग कर समुद्र पर चलने या कुएं में गिरने की कोशिश नहीं करता; उसी प्रकार उसे अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग अपने को अनैतिक या धूर्त बनाने के लिए भी नहीं करना चाहिए ।
यदि इस तरह की प्रवृत्ति मनुष्य अपने अंदर विकसित कर ले, तो संसार की विभिन्न सरकारें अपना ज्यादा वक्त मानव-संसाधन के विकास में लगा सकेंगी । अभिव्यक्ति स्वातंन्य की निर्दोषता अथवा सदोषता कभी स्पष्टत: निरपेक्ष नहीं हो सकती-पूर्ण नहीं हो सकती ।

जो मानदण्ड आज की तारीख में उचित एवं प्रासंगिक हैं, वे कल भी उचित एवं प्रासंगिक हों-यह आवश्यक नहीं है । विचार बदलते हैं, दृष्टिकोण बदलते हैं, सामाजिक मानदण्ड बदलते हैं और यह काम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के द्वारा भी हो सकता है-इन्हें सामान्य ढंग से लेना चाहिए और यह संभवत: सही सोच है कि परिवर्तन हमेशा बेहतरी लाता है ।