-दयानंद पांडेय-
एक समय मैं रवीश
कुमार के अनन्यतम प्रशंसकों में से एक था। उन की स्पेशल रिपोर्ट को ले कर उन पर एक
लेख भी लिखा था सरोकारनामा पर कभी। रवीश तब मेरे इस लिखे पर न्यौछावर हो गए थे।
मुझे भी अच्छा लगा था उन का यह न्यौछावर होना । यह लेख अब मेरी एक किताब में भी
है। मेरी मातृभाषा भी भोजपुरी है इस नाते भी उन से बहुत प्यार है। लेकिन बीते कुछ
समय से जिस तरह सहजता भरे अभिनय में अपने को सम्राट की तरह वह उपस्थित कर रहे हैं
और लाऊड हो रहे हैं , एकतरफा बातें
करते हुए और कि अपने अहमक अंदाज़ में लोगों का भरपूर अपमान हूं या हां कह कर कर रहे
हैं और कि एक ढीठ पूर्वाग्रह के साथ अपने को प्रस्तुत कर रहे हैं जिस का कि किसी
तथ्य और तर्क से कोई वास्ता नहीं होता वह अपनी साख, अपनी गरिमा और अपना तेवर वह बुरी तरह गंवा चुके हैं।
अब समझ में आ गया
है कि उन की सहजता और सरलता एक ओढ़ी हुई और एक बगुला मुद्रा है। इस बगुले में एक
भेड़िया छुपाने की दरकार उन्हें क्यों है, यह समझ में बिलकुल नहीं आता। उन्हें सोचना चाहिए कि अगर वह सौभाग्य या
दुर्भाग्य से एक सफल एंकर न होते तो होते क्या? उनकी पहचान भी भला तब क्या होती? उनका ब्लॉग 'कस्बा' भी कहां होता? पर एक एंकर की यह संजीदा गुंडई और इस कदर ज़िद उसे सिर्फ़ और
सिर्फ़ बर्बाद करती है। किसी भी संवाददाता या एंकर का काम पूर्वाग्रह या पैरोकारी
नहीं ही होती। उस के अपने निजी विचार या नीति और सिद्धांत कुछ भी हो सकती है पर
रिपोर्टिंग या एंकरिंग में भी वह झलके या वह इसी ज़िद पर अड़ा रहे यह न उस के लिए,
न ही उस के पाठक या दर्शक या श्रोता के लिए भी
मुफ़ीद होता है। रवीश से पहले इसी एन डी टी वी पर एक समय पंकज पचौरी भी थे । बड़ी
सरलता और सहजता से वह भी पेश आते थे। हां,
रवीश जैसी शार्पनेस उन
में बिलकुल नहीं थी। तो भी उनका हुआ क्या? मनमोहन सिंह के सूचना सलाहकार बन कर जिस मूर्खता और जिस प्रतिबद्धता का परिचय
उन्होंने दिया, अब उन्हें लोग
किस तरह याद करेंगे भला? रवीश कुमार को भी
यह जान लेना चाहिए कि वह भी कोई अश्वत्थामा नहीं हैं। न ही भीष्म पितामह। विदा
उन्हें भी लेना है। पर किस रूप में विदा लेना है यह तो उन्हीं को तय करना है।
लेकिन उन्हें इतिहास किस रूप में दर्ज कर रहा है यह भी लोग देख ही रहे हैं ,
वह भले अपने लिए धृतराष्ट्र बन गए हों। उनकी
गांधारी ने भी आंख पर भले पट्टी बांध चुकी हो।
लेकिन समय का
वेदव्यास उन की मुश्किलों और उन की होशियारियों को जस का तस दर्ज कर रहा है। नहीं
होशियार तो अपने को शकुनी और दुर्योधन ने भी कम नहीं समझा था। तो बाबू रवीश कुमार
इतना स्मार्ट बनना इतनी गुड बात नहीं है। आप की कुटिलता अब साफ झलकने लगी है,
लगातार, निरंतर और सारी सहजता और सरलता के बावजूद। समय रहते छुट्टी
ले लीजिए इस कुटिलता से। नहीं बरखा दत्त की केंचुल आप के सामने एक बड़ी नजीर है।
बाकी तो आप समझदार भी बहुत हैं और शार्प भी। पर आप की समझदारी और शार्पनेस पर आप
का पूर्वाग्रह बहुत भारी हो गया है। या कि आप की नौकरी की यह लाचारी है यह समझना
तो आप ही पर मुन:सर है।
क्यों कि रवीश
बाबू नौकरी तो हम भी करते हैं सो नौकरी की लाचारी भी समझते हैं। पर अपनी अस्मिता
को गिरवी रख कर नौकरी हम तो नहीं ही करते, न ही हमारा संस्थान इस के लिए इस कदर कभी मजबूर करता है। जिस तरह आप मजबूर
दीखते हैं बार-बार। और अपनी सहजता - सरलता और शार्पनेस के बावजूद आप लुक हो रहे
हैं लगातार। अटल जी के शब्द उधार ले कर कहूं तो यह अच्छी बात नहीं है। इतने दबाव
में नौकरी नहीं होती। मुझे जो इस वैचारिक दबाव और क्षुद्रता में नौकरी करनी हो तो
कल छोड़नी हो तो आज ही छोड़ दूं। क्यों कि बाकी दबाव तो नौकरी में ठीक हैं, चल जाती हैं । मैं ही क्या हर कोई झेलता है जब
तब। हम सभी अभिशप्त हैं इसके लिए। साझी तकलीफ है यह। घर-परिवार चलाने के लिए यह
समझौते करने ही पड़ते हैं, मैं भी
नित-प्रतिदिन करता हूं । पर अपनी आइडियोलाजी, अपने विचार, अपनी अस्मिता के
साथ समझौता तो किसी भी विचारनिष्ठ आदमी के लिए मुश्किल होती है। मुझे भी। आप को भी
होनी चाहिए। हां, कुछ लोग कंडीशंड
हो जाते हैं। आप भी जो हो गए हों तो बात और है।
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