Thursday, September 29, 2016

अभिव्यक्ति की आज़ादी

आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत क्या है? जो जिसके मन में आता है, बोल रहा है। और इस मनमानी की शुरुआत हमारे नेताओं से होती है। लगता है नेताओं ने यह मान लिया है कि वे न तो कुछ ग़लत कर सकते हैं, और न ही ग़लत कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इस मान्यता का अर्थ है, नेता कभी ग़लत नहीं होता।जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का तकाज़ा है कि नागरिक (जिनमें नेता शामिल हैं) एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करते हुए विवेक सम्मत बात कहें।
जहां तक सवाल अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की आवश्यकता का है तो यह समझना ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के मूल में विचार की आज़ादी का मुद्दा है। जानवर और मनुष्य में सबसे महत्वपूर्ण भेद यह है कि मनुष्य विचारशील प्राणी है। सोच सकता है, सोचता है। और इस सोच की साझीदारी चिंतन को व्यापकता देती है, उसे सामूहिक चिंतन बनाती है। यही सामूहिक चिंतन समाज की अभिव्यक्ति बनता है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि मेरा चिंतन यदि दूसरे तक नहीं पहुंच रहा है तो वह किसी सामाजिक हित का माध्यम नहीं बन सकता। अभिव्यक्ति पहुंचाने के इसी मतलब का नाम है। सामूहिक हितों का तकाज़ा है कि मेरी बात दूसरे तक पहुंचे, दूसरे से तीसरे तक… और यह विचार-यात्रा चलती रहे। तभी विचारों का मंथन होगा, तभी अमृत मिलेगा।
जनतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ यह भी है कि किसी भी प्रकार की सत्ता से जुड़ा व्यक्ति अपनी बात या अपनी सोच को अंतिम सत्य मानने का भ्रम न पाले। इस आज़ादी के अभाव में तानाशाही पलती है। सत्ताधारी अर्थात ताकतवर यह मान लेता है कि वही सही सोच सकता है, और जो वह सोचता है वही सही है। तब उसे अपना किया कुछ भी ग़लत नहीं लगता। ऐसी व्यवस्था में सत्ताधारी के विचारों को कोई चुनौती नहीं मिलती, इसलिए एक मिथ्याभिमान जनमता है, जो व्यक्ति की समानता के सिद्धांत की धज्जियां उड़ा देता है। इसीलिए ‘हम भारत के लोगों’ ने देश को जो संविधान दिया, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस अधिकार को बड़ी प्रमुखता से रेखांकित किया है। लेकिन अपरिमित नहीं है यह अधिकार। आज़ादी की यह सीमा व्यक्ति से विवेकशील व्यवहार की अपेक्षा करती है। आप कुछ भी कहें, कुछ भी करें, विवेक के तराज़ू पर तुला होना चाहिए वह।
दुर्भाग्य से यह विवेकशीलता आज हमारे व्यवहार में नहीं दिख रही। इसी का परिणाम है कि किसी पेरूमल मुरगन का लेखन किसी समाज के एक हिस्से को अपनी भावनाओं पर आघात लगने लगता है और फिर लेखक को माफी मांगने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। नारे लगते हैं, आंदोलन होते हैं। यह है भीड़ की सत्ता। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इस तरह का प्रतिबंध किसी विवेकशील समाज की पहचान नहीं है।
जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि हर नागरिक को अपनी सोच को प्रकट करने का अधिकार मिलना चाहिए और जनतांत्रिक आदर्श हमें यह भी सिखाते हैं कि नागरिक को अपने सच को प्रकट करने से पहले उसे विवेक के तराज़ू पर तोलना चाहिए। वस्तुतः यह विवेक जनतंत्र की रीढ़ है। इसी के सहारे तन कर खड़ी हो सकती हैं जनतांत्रिक परम्पराएं। हमारी त्रासदी यह है कि हमने कथित भावनाओं को विवेक से अधिक तरजीह दे दी है। विवेक की यह उपेक्षा बहुत भारी पड़ रही है हमें।
इसी का परिणाम है कि हम न जातीयता के चंगुल से मुक्त हो पा रहे हैं, न सांप्रदायिकता के जाल से। ऐसी स्थिति में यदि व्यक्ति के विचार को पनपने का अवसर नहीं मिलेगा, यदि समाज में मंथन की प्रक्रिया नहीं चलेगी तो उससे पैदा होने वाली जड़ता मनुष्य के विकास के सारे रास्तों को अवरुद्ध कर देगी। इसी विकास के लिए फैज़ ने कहा था-बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे… आवश्यकता इस आज़ादी के अर्थ, अर्थवत्ता और महत्व को समझकर विवेक के साथ इसके उपयोग की है।

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