मीडिया और बाज़ार मिलकर नित्य नई नई नैतिकताएं पैदा कर रहे हैं। नैतिकताओं का जन- उत्पादन रेडियो, टीवी और अख़बार में लगातार चल रहा है। जो लोग नैतिकताएं पैदा करने के अभियान रचते हैं, शायद वे दुनिया के सबसे चतुर और व्यावहारिक लोग होते हैं। उनकी नैतिकता कुछ नहीं होती। जो लोग मीडिया को हर वक्त नैतिकता के पैमाने से देखने परखने की ज़िद पाले रहते हैं, वो मूर्ख होते हैं। मैं ऐसे कई मूर्खों के संपर्क में आता रहता हूं जो घटना दर घटना मीडिया की नैतिकता परखने के काम में लगे हैं। आदर्श का अगर मीडिया से वितरण होगा तो उसका यही स्वरूप होना है। आदर्श का उत्पादन और वितरण समाज के ज़रिये होना चाहिए। आदर्श और नैतिकता दैव प्रदत्त नहीं है। इसके प्रसार में तमाम धर्म ग्रंथ गढ़े गए। जीवन का दर्शन बना। लेकिन आगे चलकर धर्म भी व्यावहारिक हो गया और नैतिकता के उत्पादन के लिए दो चार जयंतियां और ग्रंथों को गढ़ कर जीने लगा। शनिवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ रहे कुछ भोले और दुनिया की वास्तविकता से अनजान रहने की ज़िद पाले युवाओं के सवालों के जवाब में आदर्श को लेकर मूर्खता ढूंढ रहा था। आप तो चाहते हैं कि आदर्श होना लेकिन क्या आप उन परिस्थितियों में आदर्श रह सकते हैं जहां आदर्श होने की कोई संभावना ही नहीं बची है। जो भी है वो सिर्फ एक प्रदर्शन है। दुकान के बाहर लगा बड़ा सा पोस्टर है जिसमें एक पंक्ति में दुनिया के किसी एक दुख के समाधान का एलान है। पत्रकारिता में एक बार आप आदर्शों की उम्मीदों से घिर जाएं तो आपका जीवन घुटन से भरने लगता है। आस पास के लोग उम्मीद के नाम पर रोज़ कटारी लेकर गर्दन पर आ बैठते हैं। मीडिया समझौतों का समंदर है। यह उसी में संतुलन बनाते हुए चलता है। जगह बनाने और बचाने की जद्दोज़हद में ही जीवन निकल जाता है और फिर वो जगह एक झटके में आपसे कोई ले लेता है। मैंने देखा है कि इस समाज ने ऐसे रास्तों पर चलने वालों का कभी साथ नहीं दिया है। ये इतना स्वार्थी है कि ज़रूरत है कि वक्त हमेशा आदर्शवादी खोजेगा, उसका इस्तमाल करेगा और अपनी व्यावहारिकताओं में जीने लगता है। अधिक से अधिक सही रास्ते पर चलते चलते आप कचकड़ा हो जाते हैं। एक दिन दरकने लगते हैं। बाहर से दो तरह के लोग आपको तोड़ रहे होते हैं। एक वो जो आपको आदर्शवादी होते देखना नहीं चाहते और दूसरे वो जो आपके आदर्शवादी होने के हर समय परीक्षा लेते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि आप सामान्य नहीं रह पाते। सहजता छीन ली जाती है। एक दिन आप अंदर से टूट जाते हैं। मैं अब इस घुटन से आज़ाद होना चाहता हूं। मैंने वैसे भी लोगों के बीच जाकर आदर्श बघारना बंद कर दिया है। स्कूल कालेज संस्थान सबके निवेदनों को मना कर देता हूं। करीबी मित्रों के अनुरोध को भी ठुकरा देता हूं। अगले साल कोशिश होगी कि कहीं न जाएं। यह खुद को बचाने के लिए नहीं है बल्कि बताने के लिए है कि अब मैं इसे संभाल नहीं सकता। व्हाट्स अप की तस्वीर बदल ली तो एक सज्जन को झटका लग गया कि पहली वाली तस्वीर में आम आदमी लगता था। ये दुनिया मुझे पागल कर देगी। मैंने आपको कोई छवि नहीं दी है। आपने बनाई है तो आप ढोते रहिए। मैं क्यों उस छवि को कपार पर लादे चलता रहूं। मुझे शुरू से ब्रांड बनना अच्छा नहीं लगा। कई बार लिखा। क्योंकि मुझे पता है जैसे ही आप ब्रांड जैसा कुछ बनते हैं, आप को दूर से कोई देख रहा होता है। पहले वो इस्तमाल करने के लिए कंधे पर हाथ रखता है फिर वो खत्म करने की दिशा में योजनाएं बनाता है। अंत में वो ब्रांड हारता है। वो तभी नहीं हारेगा जब वह अपने समय के अनुसार उस स्थिति से मुक्ति पा ले। ब्रांड को हर कोई गिद्ध की निगाह से देखता है। पहले उससे बनने देता है, फिर भुनने देता है, फिर तेज़ आंच पर पकाता है फिर जल्दी जल्दी खाकर शौचालय में जाकर हग देता है। हगने के बाद फ्लश चला देता है। मैं इतना सब कुछ नहीं कह पाता तो कई बार कह देता हूं कि ये सब माया है। हम जैसे नौकरीजीवी लोगों के पास यह रास्ता आसानी से उपलब्ध नहीं है। हम बहुत मुश्किल से बनने और उसी जगह पर बनकर मिट जाने के लिए अभिशप्त हैं। जो पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ रहे हैं, वो व्यावहारिकता सीखें। हम जैसे लोगों का इस्तमाल सिर्फ नैतिकता के उत्पादन और वितरण के लिए होता है। हमारी अपनी नैतिकता को कोई नहीं समझता। उससे किसी को सहानुभूति नहीं है। यह दुनिया क्रूर है। मैं अपने आस पास क्रूर लोगों से घिर गया हूं। रातों को देर तक अनजाने ख़्यालों से घिरा रहता हूं। सुबह लड़ता हूं और शाम तक निकलने का प्रयास करता हूं। पूरी ज़िंदगी इसी के आस पास घूमती रहती है। याद ही नहीं आता कि कब हंसा। कब सोया। उम्मीदों की गठरी लिए कुछ स्वार्थी लोग आते हैं और लाद कर चले जाते हैं। इसलिए व्हाट्स अप के स्टेटस में लिख दिया है कि मुझसे किसी खबर के बारे में भी संपर्क न करें। अपनी जीविका के लिए जो ज़रूरी होगा कर लूंगा। मेरे लिए ख़बर वही है। अब नहीं हो रहा है। मैं इस झनझनाहट से मुक्ति चाहता हूं। अकेले रहने की आदत है। मेरा अकेलापन कहीं खो गया है। उसकी जगह बहुत शोर भर गया है। युवा पत्रकारों से पहले भी कहा है कि जो जो लोग रवीश कुमार नहीं हैं वो रवीश कुमार से ज़्यादा सुखी हैं। मस्त हैं। बिना किसी नैतिकता के दबाव में बड़ी महफिलों से घिरे हैं। आपमें से भी कई लोग उन महफिलों में होते हैं। सबके पास सब है। इसलिए वही बनना जो सब हैं। वर्ना ये दुनिया आपको बाहर से मारेगी तब तो कुछ ख़ून दिख भी जाएगा लेकिन कुछ मार अंदर की होती है। आप उसकी व्यथा मरने के पहले कह भी नहीं सकते। सिसकते रह जाएंगे। अंत में मार दिये जाएंगे। नैतिकता के रोज़ रोज़ उत्पादन की इस फैक्ट्री में कभी किसी सच्चे मज़दूर को सही मेहनताना और सम्मान नहीं मिलेगा। एक दिन उसका हाथ कटेगा। उस पर फिल्म बनेगी मगर वो सिर्फ त्रासदियों का किस्सा बनकर रह जाएगा।
“आशा की कमी नहीं है। सुनो, एक आदमी हमेशा लड़ता रहा और हमेशा हारता रहा। आख़िरी बार हारकर जब वह मरने लगा तो लोगों ने उससे पूछा- अब तो तुम मर रहे हो, कम से कम एक बार तो जीत जाते। हम लोगों को दुख है कि अब तुमसे लड़ाई नहीं होगी। तुम्हें कितनी बार हारना है इसकी गिनती आज पूरी हो चुकी है।“
यह हिस्सा नौकर की कमीज़ का है। विनोद कुमार शुक्ल की लाजवाब कृति। संतू बाबू और गौराहा बाबूं कहानी के अंत में नौकर की कमीज़ पर शराब की बूंदे छिड़क देते हैं और जला देते हैं। मैंने भी एक ऐसी ही नौकर की कमीज़ लिफाफे में रखी है। एक दिन किसी गौहर बाबू के साथ मिलकर जला दू्ंगा।
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