कुछ दिन पहले सुबह मां का फोन आया तो लगा कि आम दिनों की तरह शुभकामना देने और हालचाल जानने के लिए ही होगा। मगर वे रुंधे गले और सिसकियों के साथ बोल रही थीं। पूछने पर उन्होंने जो बताया उससे मेरी भी आंखें नम हो गर्इं, लेकिन समाज की मानसिकता और उसकी रिवायतों को लेकर मन गुस्से से भर गया। मेरी मां जिस स्कूल में पढ़ाती हैं, वहां मिड-डे मील यानी दोपहर का भोजन बनाने के लिए दो महिला कर्मचारी नियुक्त हैं। उन्हीं में से एक के तेईस साल के बेटे की हत्या कर दी गई थी। मेरी मां वहां अकेली रहती हैं और कई तरह के काम में मदद के लिए उनकी काफी निर्भरता उस लड़के पर थी। स्टेशन पर पहुंचाने जाना हो, डॉक्टर को दिखाना हो या फिर बैंक या बिजली-बत्ती का काम हो, उसे हमने हमेशा मां के साथ खड़ा पाया था, घर के सदस्य की तरह। उसकी हत्या ने मां को झकझोर कर रख दिया था। उस लड़के की गलती महज इतनी थी कि वह किसी लड़की से प्रेम करता था। पता चलने के बाद बात करने के बहाने से उस लड़के को लड़की के घर वालों ने रात में बुलाया और पीट-पीट कर मार डाला। लड़की को एक कमरे में बंद रखा गया था। इस घटना के बाद काफी हंगामा मच गया और बहुत सारे लोगों ने लड़की के घर पर धावा बोल दिया। सारे लोग तो भाग गए, लेकिन सदमे में पड़ी वह लड़की नहीं निकल सकी। हत्या का बदला लेने पर उतारू भीड़ को उसके सदमे से कोई मतलब नहीं था। उसे घसीट कर बाहर लाया गया, उसके कपड़े फाड़ डाले गए। जबकि अपने साथ इतना होने के बावजूद उस लड़की ने पुलिस में अपने घर वालों के खिलाफ बयान दिया था।
घटना का ब्योरा सुन कर मुझे लगा कि मैं खूब जोर से चीख-चीख कर रोऊं, अपने आसपास की सारी चीजों को तोड़फोड़ डालूं। मैंने मां को किसी तरह शांत किया, लेकिन उसके बाद मन पूरी तरह बेचैन हो गया था। एक झटके में 2007 के मनोज-बबली की हत्या के मामले से लेकर फर्जी इज्जत के नाम पर की जाने वाली इस तरह की हत्या की तमाम घटनाएं एक रील की तरह दिमाग में चलने लगीं। सोनी नाम की उस लड़की की हत्या का ध्यान आया, जिसने हाल ही में ट्रेन के बाथरूम में अपने मोबाइल से अंतिम वीडियो बना कर परिवारजनों द्वारा अपनी हत्या की आशंका जताई थी। अगले ही दिन उसका यह डर सच में बदल गया था।
अंतरजातीय परिवार या कई बार स्वजातीय भी, अगर लड़के या लड़की की पसंद से जुड़ा संबंध है तो बात उनकी जान लेने तक आ जाती है। बिहार से लेकर पंजाब, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु हर जगह अनगिनत मनोज और बबली की चीखें दफ्न हैं। सब कुछ आधुनिक होता गया है। लेकिन पिछले दस या बीस सालों की आधुनिकता के दंभ के बीच भी कुछ नहीं बदला है। स्टेटस यानी हैसियत, जाति, धर्म के नाम पर परिवार और समाज अपने ही बच्चों को मारने से गुरेज नहीं कर रहा। जो लोग जाति या धर्म के नाम पर प्रेम संबंधों के खिलाफ इस तरह की मार-काट मचाते हैं, क्या वे अपनों का खून बहा कर अपनी जाति या धर्म की रक्षा कर लेते हैं? यह कौन-सी मर्यादा है जो हत्या कर देने से बच जाती है?
अंतरजातीय परिवार या कई बार स्वजातीय भी, अगर लड़के या लड़की की पसंद से जुड़ा संबंध है तो बात उनकी जान लेने तक आ जाती है। बिहार से लेकर पंजाब, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु हर जगह अनगिनत मनोज और बबली की चीखें दफ्न हैं। सब कुछ आधुनिक होता गया है। लेकिन पिछले दस या बीस सालों की आधुनिकता के दंभ के बीच भी कुछ नहीं बदला है। स्टेटस यानी हैसियत, जाति, धर्म के नाम पर परिवार और समाज अपने ही बच्चों को मारने से गुरेज नहीं कर रहा। जो लोग जाति या धर्म के नाम पर प्रेम संबंधों के खिलाफ इस तरह की मार-काट मचाते हैं, क्या वे अपनों का खून बहा कर अपनी जाति या धर्म की रक्षा कर लेते हैं? यह कौन-सी मर्यादा है जो हत्या कर देने से बच जाती है?
कुछ परिवार ऐसे प्रेम संबंध में बच्चों की हत्या तो नहीं करते हैं, लेकिन उन्हें आजीवन स्वीकृति नहीं दे पाते हैं। इसके पीछे भी मानसिकता में वही जाति-धर्म या ऊंच-नीच की पिछड़ी हुई भावनाएं बैठी होती हैं। अगर किन्हीं हालात में माता-पिता या परिवार को लगता है कि बच्चों का चुनाव गलत है तो खुल कर बात की जा सकती है। उन्हें भविष्य की परिस्थितियों से अवगत करा कर उनकी तैयारी में कमियां बताई जा सकती हैं। जीवन में प्रेम के अलावा सही जीवन जीने के लिए पैरों पर खड़े होने की अहमियत बताई जा सकती है। लेकिन जाति-धर्म या संप्रदाय या ऊंच-नीच के फर्जी भाव में बह कर उन्हें मार डालने की बर्बरता कहां से आती है? क्या इसका सिरा आखिरकार स्त्रियों को गुलाम बनाने वाली व्यवस्था को मजबूत करने से नहीं जुड़ता है?
सवाल है कि क्या अपनी पसंद से जीवन साथी का चयन अपराध है? संविधान ने इसका अधिकार दिया है। जातिगत दुराव और मतभेद को दूर करने के लिए कई राज्य सरकारों ने अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा दिया है। ऐसे जोड़ों को आर्थिक प्रोत्साहन भी दिया जाता है। लेकिन समाज और परंपरा जान लेकर यह अधिकार छीन लेते हैं। कोई भी सरकार ऐसी कुंठा से समाज को मुक्त नहीं कर सकी है, क्योंकि खुद समाज भी शायद इस सड़ांध में जकड़े रहना चाहता है! दरअसल, हम चाहे कितना भी आधुनिक और विकासवादी होने का दावा कर लें, मगर हम एक बेहद सामंती और पिछड़ी हुई जातिगत मानसिकता की जंजीर में जकड़े हुए हैं।
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