हमारे समाज का पतन इतना हो गया है कि हम जानवरों से भी गए बीते हो गए हैं। हम जानवर कहलाने के लायक भी नहीं रहे। वैसे भी बलात्कार किसी के भी साथ हो, हमेशा पीड़ादायक ही होता है। बलात्कार वह निर्मम अपराध है जिसकी कोई भी सजा दी जाए, कम ही मानी जानी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं या बच्चियों के प्रति अपराध पहले नहीं होते थे। महिलाओं के साथ दुराचार, उनका यौन शोषण तो प्राचीनकाल में भी होता रहा है, आज भी हो रहे हैं, भविष्य में भी बिल्कुल खत्म हो जाएगा, ऐसी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। यह दुनिया लुभावनी है, उन्हें उत्तेजित करती है, उनके मन में जहां आश्चर्य पैदा करती है, तो असीमित और अनियंत्रित वासना का संचार भी करती है। वे उसी में डूब-उतरा रहे हैं। गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में इंटरनेट और मोबाइल के प्रादुर्भाव से पहले सभी तरह की खिड़कियां बंद थीं। लड़के-लड़कियों के मिलने-जुलने पर घर-परिवार से लेकर गांव-समाज तक का प्रतिबंध था। रिश्ते-नातों का बंधन उन्हें किसी भी तरह के अपराध के लिए रोकता था। लेकिन जैसे ही यह बंधन हटा, सभी स्वतंत्र हो गए। लड़के भी। लड़कियां भी।
हजारों साल से समाज में मिलने-जुलने पर लगा प्रतिबंध ढीला क्या पड़ा, यौनिक उन्मुक्तता ने सारे बंधन तोड़ दिए। लोगों ने समाज की जरूरत समझकर अपने बेटे-बेटियों पर लगा कठोर प्रतिबंध हटाया, तो इस स्वतंत्रता ने उन्हें जहां अपने विकास का मार्ग सुझाया, तो यौनिक कुंठाएं भी प्रदान की। इन्हीं यौनिक कुंठाओं का परिणाम है बच्चियों और महिलाओं के प्रति बढ़ता अपराध। यौन कुंठा ने अपराध का प्रतिकार करने पर बर्बरता को जन्म दिया। यही वही बर्बरता है जिसको आज छोटी-छोटी बच्चियां भोग रही हैं, महिलाएं भोग रही हैं।
बच्चियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। चाहे वह देश की राजधानी दिल्ली हो, कोलकाता हो, मुंबई हो, लखनऊ, भोपाल, पटना, रांची, चंडीगढ़ या फिर देश के किसी दूरस्थ इलाके में बसा कोई गांव ही हो। बच्चियों..और बच्चियों ही क्यों, पूरी स्त्री जाति ही सुरक्षित नहीं है। अब तो गांवों में भी 60-65 साल की महिलाएं तक सुरक्षित नहीं हैं। उनके साथ भी बलात्कार हो रहे हैं। ऐसे में बच्चियों का मामला कोई अलग थोड़े ही न है। समाज का इतना पतन हो चुका है कि साल-साल भर की बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। मानसिकता इतनी गंदी हो गई है कि लोग शव के साथ सामूहिक दुराचार कर रहे हैं।
दिनोंदिन बढ़ते यौन शोषण के आंकड़े इस बात के भी गवाह हैं कि हमारी सरकारें सिर्फ बयान जारी करके चुप बैठ जाने के मामले में ही चुस्त-दुरुस्त हैं, अपराध नियंत्रण पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं महसूस करती हैं। यदि स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध को नहीं रोका गया, तो समाज में स्त्रियों की अस्मिता कहीं भी सुरक्षित नहीं रहेगी। न घर में, न बाहर।
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