टांग खिंचाई ? हर बात की टांग खिंचाई हो सकती है यहाँ ख़राब से ख़राब बातों को अच्छा साबित करने वाले लोगों की भी भरमार है और अच्छी बात को बेकार बतलाने वाले लोगों की कम्युनिटी भी है तो ऐसे में मैं क्यूँ अपनी बात का पोस्टमार्टम कराऊँ ? क्यों टांग खिंचाई कराऊँ? फायदा भी कुछ नहीं है जिससे कि कुछ गन्दी मानसिकता के प्रदुषण रोक सकूँ? इसलिए मौन हूँ लेकिन अंतर् से नहीं अगर होता तो ऐसी हलचल भी मुझे महसूस न होती ...बस यही फैसला आपके चिल्लाने और मेरे मौन का है ..मेरे चिल्लाने से आपके कान में जूँ रेंगती तो इतने ही से मैं अपनी संतुष्टि ढूंढ लेता ..मगर ऐसा था ही नहीं इसलिए हो गया मैं मौन
जैसे एक खेल का खिलाडी मस्तिष्क और शक्ति के योग से निर्धारित स्थान पर अपनी गेंद को फेंकता है उसी प्रकार आपका लक्ष्य और शक्ति (बुद्धि,बल) का योग आपकी मनोवांछित सद्भिष्ट की पूर्ति का कारण बनता है और उसके दोनों पहलुओं में से कहीं कमी रह जाती है तो फिर केवल खिन्नता ही रह जाती है
वेहद नासमझ और मुर्ख हैं वो लोग जो किसी के भड़काने पर या उकसाने, कान भरने पर उस व्यक्ति के बारे में जो कुछ समझ लेते हैं ऐसे लोग डबल गलती करते हैं 1ली तो यह है की जिस व्यक्ति के साथ तुम स्वयं होकर भी उसे अपने स्तर से समझ नहीं पाये अर्थात् यह भी lack of mind को दर्शाता है अब बात करते हैं दूसरी गलती की वो यह है कि अब आप किसी तीसरे व्यक्ति से उसे समझने की कोशिस में कुछ का कुछ समझ लेते हैं जो यथार्थ से कहीं बहुत दूर है ऐसे समझदारी बजाय सुलझने के और उलझ जाती है। और ऐसे व्यक्ति को आप भी प्रयास मत करिये सुलझाने का क्योंकि उसकी गति उलझने में ही है वो उसी के लायक है । सुलझे हुए मस्तिष्क वालों के लिए तो सर्वप्रथम स्वयं का विवेक होना जरुरी है
दूसरों को क्यों जानें ? क्यों समझें? कहने वालों तुम्हारे कारण ही आज हम न ठीक से अपना समझ पाये और न दूसरों का बात समझ पाये .. बस बहुत हुआ अब थोड़ी मेहनत और ज्यादा कर लेंगे अब उन को भी सुनेंगे जानेंगे और उससे कहीं अपने को जानेंगे और फिर उनकी बातों का प्रतिकार ठीक ठीक होगा ... क्योंकि आपसे बड़ा विशाल धर्म गुण वाला इस धरा पर कोई नही था न है न होगा ..समझो अपने आप को, आ लौट चल तू अपनी ओर वहां तेरा न ठिकाना
अक्सर आप अनुभव करना जो महान आत्मा इस धरा पर कुछ आत्मोन्नति का कार्य कर जाते हैं उन के जीवन काल के लोग उन्हें बहुत कम ही समझ पाते हैं और बाद में उनके जाने के बाद तो उनकी बातों के विरोधी भी अपनी सही छाप लगाने के लिए कूद पड़ते हैं
एकांत में नेत्र बंद किये ध्यानस्थ योगी को तू अकेला और एकांतिक मत समझ ..ये तेरी भूल है क्योंकि यूं इन आँखों से जिस दुनियां को पूरा नहीं देख सकता है उन्हें वो बंद आँखों से तुझसे कहीं बहुत बेहतर देख समझ पाता है उन दिव्य द्रष्टा की भूमि काशी को मेरा ह्रदय अभी अत्यंत अल्प ही समझ पाया है
जैसे बीज के अभाव में वृक्ष का जन्म नहीं हो सकता, ठीक वैसे ही उच्च विचारों के अभाव में उच्च कर्म घटित नहीं हो सकता। शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों कर्मों के पीछे जो कारण है वह विचार ही है। हमारे विचारों का स्तर जितना श्रेष्ठ और पवित्र होगा हमारे कर्म भी उतने ही श्रेष्ठ और पवित्र होंगे।
कोई चोर जब तक चोरी नहीं कर सकता, जब तक कि वह पहले उसका विचार न कर लें। अत: हमारा कोई भी कर्म कार्य करने से पहले विचारों में घटित हो जाता है। विचारों का स्तर हमारे संग पर निर्भर करता है। हमारी संगति जितनी अच्छी होगी हम उतने ही अच्छे विचारों के धनी होंगे।
जब तक हमारे विचार शुद्ध नहीं होंगे तब तक हमारे कर्म भी शुद्ध नहीं हो सकते। इसलिए विचारों को शुद्ध किये बिना कर्म की शुद्धि का प्रयास करना व्यर्थ है। जिसके विचार पवित्र हों उससे बुरा कर्म कभी हो ही नहीं सकता है।
जैसे एक खेल का खिलाडी मस्तिष्क और शक्ति के योग से निर्धारित स्थान पर अपनी गेंद को फेंकता है उसी प्रकार आपका लक्ष्य और शक्ति (बुद्धि,बल) का योग आपकी मनोवांछित सद्भिष्ट की पूर्ति का कारण बनता है और उसके दोनों पहलुओं में से कहीं कमी रह जाती है तो फिर केवल खिन्नता ही रह जाती है
वेहद नासमझ और मुर्ख हैं वो लोग जो किसी के भड़काने पर या उकसाने, कान भरने पर उस व्यक्ति के बारे में जो कुछ समझ लेते हैं ऐसे लोग डबल गलती करते हैं 1ली तो यह है की जिस व्यक्ति के साथ तुम स्वयं होकर भी उसे अपने स्तर से समझ नहीं पाये अर्थात् यह भी lack of mind को दर्शाता है अब बात करते हैं दूसरी गलती की वो यह है कि अब आप किसी तीसरे व्यक्ति से उसे समझने की कोशिस में कुछ का कुछ समझ लेते हैं जो यथार्थ से कहीं बहुत दूर है ऐसे समझदारी बजाय सुलझने के और उलझ जाती है। और ऐसे व्यक्ति को आप भी प्रयास मत करिये सुलझाने का क्योंकि उसकी गति उलझने में ही है वो उसी के लायक है । सुलझे हुए मस्तिष्क वालों के लिए तो सर्वप्रथम स्वयं का विवेक होना जरुरी है
दूसरों को क्यों जानें ? क्यों समझें? कहने वालों तुम्हारे कारण ही आज हम न ठीक से अपना समझ पाये और न दूसरों का बात समझ पाये .. बस बहुत हुआ अब थोड़ी मेहनत और ज्यादा कर लेंगे अब उन को भी सुनेंगे जानेंगे और उससे कहीं अपने को जानेंगे और फिर उनकी बातों का प्रतिकार ठीक ठीक होगा ... क्योंकि आपसे बड़ा विशाल धर्म गुण वाला इस धरा पर कोई नही था न है न होगा ..समझो अपने आप को, आ लौट चल तू अपनी ओर वहां तेरा न ठिकाना
अक्सर आप अनुभव करना जो महान आत्मा इस धरा पर कुछ आत्मोन्नति का कार्य कर जाते हैं उन के जीवन काल के लोग उन्हें बहुत कम ही समझ पाते हैं और बाद में उनके जाने के बाद तो उनकी बातों के विरोधी भी अपनी सही छाप लगाने के लिए कूद पड़ते हैं
एकांत में नेत्र बंद किये ध्यानस्थ योगी को तू अकेला और एकांतिक मत समझ ..ये तेरी भूल है क्योंकि यूं इन आँखों से जिस दुनियां को पूरा नहीं देख सकता है उन्हें वो बंद आँखों से तुझसे कहीं बहुत बेहतर देख समझ पाता है उन दिव्य द्रष्टा की भूमि काशी को मेरा ह्रदय अभी अत्यंत अल्प ही समझ पाया है
जैसे बीज के अभाव में वृक्ष का जन्म नहीं हो सकता, ठीक वैसे ही उच्च विचारों के अभाव में उच्च कर्म घटित नहीं हो सकता। शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों कर्मों के पीछे जो कारण है वह विचार ही है। हमारे विचारों का स्तर जितना श्रेष्ठ और पवित्र होगा हमारे कर्म भी उतने ही श्रेष्ठ और पवित्र होंगे।
कोई चोर जब तक चोरी नहीं कर सकता, जब तक कि वह पहले उसका विचार न कर लें। अत: हमारा कोई भी कर्म कार्य करने से पहले विचारों में घटित हो जाता है। विचारों का स्तर हमारे संग पर निर्भर करता है। हमारी संगति जितनी अच्छी होगी हम उतने ही अच्छे विचारों के धनी होंगे।
जब तक हमारे विचार शुद्ध नहीं होंगे तब तक हमारे कर्म भी शुद्ध नहीं हो सकते। इसलिए विचारों को शुद्ध किये बिना कर्म की शुद्धि का प्रयास करना व्यर्थ है। जिसके विचार पवित्र हों उससे बुरा कर्म कभी हो ही नहीं सकता है।
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