अगर हमें बेहतरी के लिए रोजगार जुटाने हैं और बदलाव लाना है तो हमें 100 स्मार्ट शहरों का निर्माण करने की योजना बनानी है। सवाल है कि इन स्मार्ट शहरों में क्या होगा? क्यों इन्हें स्मार्ट शहर कहा जाएगा? एक दैनिक समाचार पत्र ने इसकी जो रूपरेखा शहरी विकास व अन्य मंत्रालयों के सूत्रों के हवाले से प्रस्तुत की थी, उसमें शहरों की पारंपरिक कल्पना से हट कर कुछ भी नहीं था। उन शहरों में चमचमाती सड़कें और उस पर दौड़ती कारों का रेला होगा, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल यानी कि बाजार केंद्र होंगे, चौबीसों घंटे बिजली होगी, पानी के नलके होंगे, टेलीविजन, वाशिंग मशीन, एसी, मोबाइल और ढेरों इलेक्ट्रानिक उपकरण होंगे, 4जी इंटरनेट होगा, मेट्रो ट्रेनें होंगी। यह सब कुछ तो होगा परंतु सवाल है कि क्या केवल इनसे व्यक्ति का जीवन चल सकता है? क्या सड़कें, बिजली, बाजार और इलेक्ट्रानिक उपकरण मनुष्य का पेट भर सकते हैं? सवाल यह भी है कि क्या ये शहर अपनी आवश्यकता के लिए बिजली का उत्पादन करने में समर्थ होंगे? क्या ये शहर अपनी आवश्यकता का भोजन और पानी अपने दम पर जुटा सकेंगे? इन सभी सवालों के जवाब नहीं में है। यानी हमें सुविधाएं तो चाहिएं, लेकिन उसका उत्पादन कहीं और होगा। यह ‘कहीं और’ कहां होगा, यह होगा गांवों में। यह इकलौती बात विकास की इस दौड़ में गांवों के महत्व को परिलक्षित करती है।
रोचक बात यह है कि शहरी जनसंख्या को हमेशा से उपभोक्ता वर्ग ही माना जाता रहा है। बढ़ती शहरी जनसंख्या का अर्थ है बढ़ता उपभोग और बढ़ती मांग। यही कारण है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी बाजार-केंद्रित कंपनियों की नजर इस शहरी जनसंख्या पर रहती है। मैकिन्से एंड कंपनी द्वारा वर्ष 2012 में जारी एक रिपोर्ट – शहरी दुनियाः नगर और उपभोक्ता वर्ग का विकास, में इस पर काफी विस्तार से चर्चा की गई है। हालांकि वह रिपोर्ट कंपनी की मार्केटिंग रणनीति के लिए तैयार की गई है, परंतु इस रिपोर्ट से कई सारी बातों का खुलासा होता है। पहली बात तो यह स्पष्ट हो जाती है कि शहरों को उपभोक्ता ही माना जा रहा है, उत्पादक नहीं। दूसरी बात यह है कि बढ़ते शहरीकरण से केवल केंद्रीकृत अर्थ व्यवस्था को बल मिलता है और तीसरी बात यह है कि शहरों को परजीवी के रूप में ही देखा जाता है।
यह तो सच है ही कि यदि मार्केटिंग कंपनियों को छोड़ दिया जाए तो शहरीकरण को सभी एक समस्या और चुनौती के रूप में देख रहे हैं। आइए देखते हैं कि शहरीकृत विकास से कौन सी चुनौतियां पैदा हो रही हैं और उनके समाधान में गांवों की क्या भूमिका है?
खाद्य सुरक्षा
शहरीकरण की सबसे प्रमुख समस्या है खाद्य सुरक्षा। शहरों में खाद्य सामग्री का उत्पादन नहीं हो सकता। कृषि या खेती गांवों में होती है शहरों में नहीं। वास्तव में शहर और गांव का मुख्य अंतर भी आजीविका के साधन हैं। गांवों में आजीविका का मुख्य साधन खेती है तो शहरों में भारी उद्योग-धंधे। यह एक सच्चाई है कि भोजन किए बिना मनुष्य नहीं रह सकता और भोजन की सामग्री अनाज, दालें, सब्जियां और फल खेतों में ही पैदा होते हैं, कल-कारखानों में नहीं। इसी प्रकार शहरों में मांस तो पैदा किया जा सकता है परंतु दूध नहीं। दूध पाने के लिए एक बार फिर हमें गांवों की ओर ही देखना पड़ता है। गोशालाएं तक भी गांवो से जुड़े शहरों के बाहरी इलाकों में ही चलाई जा सकती हैं। मांसाहार के प्रचलन के बाद भी मनुष्य का प्रमुख खाद्य दूध ही है, मांस नहीं।
यही कारण है कि देश में साठ के दशक में भी खाद्य सुरक्षा एक बड़ी समस्या थी और आज इक्कीसवीं सदी में भी खाद्य सुरक्षा सरकार का सिरदर्द बनी हुई है जबकि इस बीच में एक हरित क्रांति की जा चुकी है और अनाज उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि की जा चुकी है। परंतु जिस तेजी से उत्पादन में वृद्धि हुई उससे दोगुनी तेजी से उसके उपभोक्ता वर्ग की संख्या भी बढ़ी। किसान उपभोक्ता नहीं है, क्योंकि वह अनाज का उत्पादन करता है। परंतु शहरवासी अनाज या सब्जियां नहीं उगाते, केवल उनका उपभोग करते हैं। परिणाम हुआ कि उत्पादन में वृद्धि के बाद भी समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। यदि विकास के केंद्र में शहरों की बजाय गांवों को रखा गया होता तो उद्योग-धंधों की बजाय खेती को केंद्र मान कर विकास की पूरी संरचना बनाई जाती। इससे शहर यानी कि उपभोक्ता वर्ग कम पैदा होता और गांव यानी कि उत्पादन की संख्या बढ़ती। जनता के पैसों से दिये गए अनुदानो से शहरों के उपभोक्ता जीवन को सरल और आकर्षक बनाया गया जिससे गांवों का उत्पादक वर्ग उसी ओर आकृष्ट होने लगा। शहरों के फैलाव और उद्योग-धंधों के विकास के लिए खेतीहर जमीनें ले ली गईं और उन खेतीहर जमीनों से बेदखल हुए किसानों को मजदूर बना कर उनके जीवन को अनुत्पादक बना दिया गया। इसका ही परिणाम खाद्य सुरक्षा और मंहगाई है। इसलिए यदि इन दो समस्याओं से छुटकारा पाना है तो उत्पादक वर्ग को महत्ता देनी होगी। अनुदानों पर जी रहे शहरी उपभोक्ता वर्ग को उत्पादन की ओर प्रेरित करना होगा। उनको दिए जाने वाले अनुदानों को समाप्त करके उन्हें अपने उपभोग की सामग्री स्वयं पैदा करने के लिए विवश करना होगा। तभी गांवों से शहरों की ओर पलायन रूकेगा।
पर्यावरण और स्वास्थ्य
शहरीकरण से दो बड़ी समस्याएं पर्यावरण और स्वास्थ्य की पैदा हुई हैं। शहर मुख्यतः उद्योग केंद्रित होता है और तमाम बड़े उद्योग पर्यावरण के लिए समस्या हैं। साथ ही शहरों की जीवन शैली भी पर्यावरण के लिए खतरा है। जीवन का सर्वोत्तम सिद्धांत जो आज तक विकसित किया गया है, वह यही है कि प्रकृति से आप जितना लें, उतना ही उसे वापस भी दें। इसको ही वेदों में तेन त्यक्तेन भूञ्जीथा कहा गया। परंतु शहरों की मनोवृत्ति केवल और केवल लेने की है, देने की नहीं। अधिकांश बड़े शहरों में पीने का अपना पानी उपलब्ध नहीं है। उनके पीने का पानी दूसरे इलाकों और अधिकांशतः ग्रामीण इलाकों से आता है। परंतु अधिकांश शहरवासी उस पीने के पानी का अत्यधिक दुरूपयोग करते हैं जिसका परिणाम उन ग्रामीण इलाकों को झेलना पड़ता है।
इसी प्रकार शहर के उद्योग-धंधों को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर बिजली की आवश्यकता पड़ती है। बिजली का उत्पादन किसी शहर में नहीं होता। यह होता है कोयले से और नदियों पर बांधों से। दोनों ही उपाय खेती को नष्ट करते हैं। जो नदियां कभी सभ्यता के विकास का केंद्र हुआ करती थीं, और जिनके किनारे बड़ी-बड़ी सभ्याताएं पनपा करती थीं, वे आज सूखने के लिए अभिशप्त हैं और विस्थापन व उजाड़ के लिए जानी जाने लगीं हैं। उनसे जो बिजली निकाली जाती है, वह वहीं के ग्रामीण इलाकों के बजाय दूर के शहरों के लिए होती है। गांवों की नदियों से निकाली गई बिजली से शहर तो चमकाए जा रहे हैं, परंतु गांवों को अंधेरे में रखा जा रहा है।
बिजली और पानी के इस दुरूपयोग ने पर्यावरण के लिए खतरे को काफी बढ़ा दिया है। खाद्य पदार्थों का उत्पादन शहरों से काफी दूर होने के कारण बड़ी संख्या में कोल्ड स्टोरेज की आवश्यकता पड़ती है जो पर्यावरण प्रदूषण का बड़ा कारण हैं। एसी और कोल्ड स्टोरेज ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे बड़े कारण हैं। इसके बावजूद शहरी जीवन को स्वास्थ्यकर नहीं कहा जा सकता। कोल्ड स्टोरेज में रखे खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और पोषक क्षमता नष्ट हो जाती है। दूर गांवों से आने वाले दूध को सुरक्षित रखने के लिए उसे पाशचुराइज करना पड़ता है जिससे उसकी गुणवत्ता पूरी तरह समाप्त हो जाती है। स्वाभाविक ही है कि पोषणविहीन भोजन के कारण शहर बीमारियों का केंद्र बनते जा रहे हैं। इसके अलावा प्रकृतिविमुख शहरी जीवन शैली भी अनेक रोगों को पैदा कर रही है। शहरों में पैदा हुआ प्रदूषण नदियों के माध्यम से गांवों तक पहुंचने लगा है।
इसका समाधान भी गांवों में ही छिपा है। गांवों का प्रकृतिकेंद्रित जीवन स्वाभाविक रूप से प्रदूषणमुक्त होता है। प्रदूषणमुक्त होने से स्वास्थ्य की भी समस्याएं कम होती हैं। ताजी सब्जियां, ताजे फल और पौष्टिक अनाज स्वास्थ्य को स्थिरता प्रदान करते हैं। गांवों की श्रम आधारित जीवन शैली भी एक स्वास्थ्यकर होती है।
आवास और अन्य समस्याएं
शहरीकृत विकास की एक प्रमुख समस्या आवास की है। छोटे से क्षेत्रफल में बड़ी संख्या में लोग रहते हैं। स्वाभाविक ही है कि आवास की समस्या पैदा होगी। आवास से जुड़ी हुई समस्या है स्वच्छता की। भारत में बनाया गया सीवेज तंत्र बुरी तरह असफल रहा है और प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण भी है। यह एक सच्चाई है कि बड़ी संख्या में लोगों को विलासितायुक्त जीवन नहीं मिल सकता। यही कारण है कि जहां कहीं भी शहरों में बड़ी-बड़ी कोठियां हैं, उनके ठीक बगल में उनको आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने वाली झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां भी हैं। झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां आज सभी शहरों की अनिवार्य सच्चाई व बुराई बन चुकी हैं। शहरवासी इनसे घृणा करते हैं, परंतु इनके बिना जीवन भी नहीं चला सकते। उनके कारों को चलाने वाले ड्राइवर, उनके घरों में काम करने वाली महरी, आया, उनकी नालियों और सीवेज की सफाई करने वाले मेहतर, उनके कारखानों में काम करने वाले मजदूर सभी इन्हीं झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में रहते हैं। इन झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में वे सभी समस्याएं होती हैं, जिनसे बचने के लिए गांववासी शहर भाग कर आते हैं।
आवास की समस्या हल करने के लिए बहुमंजिली इमारतों का विकल्प अवश्य निकाला गया है, परंतु उसकी अपनी समस्याएं हैं। कम क्षेत्रफल में अधिक लोगों के रहने से उस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ जाता है, जो प्रकारांतर से पूरे जनजीवन के लिए हानिप्रद होता है।
पांच अक्टूबर, 1945 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने एक पत्र में महात्मा गांधी ने लिखा था, “मैं यह मानता हूँ कि अगर हिन्दुस्तान को कल देहातों में ही रहना होगा, झोपड़ियों में, महलों में नहीं। कई अरब आदमी शहरों और महलों में सुख से और शांति से कभी रह नहीं सकते, न एक-दूसरों का खून करके – मायने हिंसा से, न झूठ से – यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है, उसमें मुझे जरा-सा भी शक नहीं है। उस सत्य और अहिंसा का दर्शन केवल देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं। वह सादगी चर्खा में और चर्खा में जो चीज भरी है उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उल्टी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिन्दुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं। मेरे कहने का निचोड यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए – अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है।”
इसके बाद उन्होंने गांवों की अपनी कल्पना बताते हुए लिखा, “मेरे देहात आज मेरी कल्पना में ही हैं। आखिर में तो हर एक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है। इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा – शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिन्दगी बसर नहीं करेगा, मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे और सारे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे। वहां न हैजा होगा, न मरकी (प्लेग) होगी, न चेचक होंगे। कोई आलस्य में रह नहीं सकता है, न कोई ऐश-आराम में रहेगा। सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। इतनी चीज होते हुए मैं ऐसी बहुत-सी चीज का ख्याल करा सकता हूँ जो बड़े पैमाने पर बनेगी। शायद रेलवे भी होगी, डाकघर, तारघर भी होंगे।”
महात्मा गांधी चाहते थे कि जवाहरलाल उनकी इस बात को समझें और उस पर अमल करें। स्वाधीनता के बाद देश का विकास गांवों को केंद्र मान कर किया जाए। खेती और गोपालन को जोड़ा जाए और उसे अर्थ व्यवस्था की धुरी बनाया जाए। परंतु जवाहरलाल गांधी के एकदम उलटी सोच रखते थे। उन्होंने गांधी के उस पत्र के उत्तर में लिखा, “आमतौर पर माना जाता है कि गांवों में रहने वाले लोग बुध्दिमत्ता और सांस्कृतिक तौर पर पिछड़े हुए होते हैं और एक पिछड़े हुए वातावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती। बल्कि संकुचित विचारों वाले लोगों के झूठे व हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है।
इसके अलावा, हमें अपने कुछ लक्ष्य भी तय करने हैं, मसलन, खाद्य सुरक्षा, कपड़े, आवास, शिक्षा, स्वच्छता, वगैरह। ये वे न्यूनतम लक्ष्य हैं जो किसी भी देश या व्यक्ति के लिए अनिवार्य हैं। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए हमें यह देखना है कि हम कितनी तेजी से उन्हें हासिल कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, यातायात के आधुनिक साधनों व दूसरी आधुनिक गतिविधियों का विकास और उनकी निरंतर प्रगति भी मुझे अपरिहार्य लगते हैं। इसके अलावा, मुझे कोई और रास्ता नहीं दिखता। भारी उद्योग भी आज की आवश्यकता है और क्या यह सब विशुद्ध ग्रामीण परिवेष में संभव है? व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि भारी और हल्के उद्योगों का यथासंभव विकेन्द्रीकरण होना चाहिए और बिजली का नेटवर्क बन जाने के बाद यह संभव भी है। देश में अगर दो तरह की अर्थव्यवस्था काम करेंगी तो या तो दोनों के बीच द्वंद्व होगा या एक, दूसरे पर हावी हो जाएगी।
लाखों-करोड़ों लोगों के लिए महल बनाने का सवाल नहीं है। लेकिन इसका भी कोई कारण नहीं है कि उन सभी को ऐसे सुविधाजनक व आधुनिक घर मिल सकें जहां वे एक अच्छा संस्कारी जीवन जी सकें। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई भारी-भरकम शहरों में बहुत सी बुराइयां घर कर गई हैं। इनकी निंदा की जानी चाहिए। शायद हमें एक सीमा से अधिक शहरों के विकास पर रोक लगानी होगी, लेकिन साथ ही गांव वालों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना होगा कि वे शहरों की संस्कृति में खुद को ढाल सकें।”
महात्मा गांधी के कंधों पर चढ़ कर जवाहरलाल देश के पहले प्रधानमंत्री बने और उन्होंने वही किया जो ऊपर लिखे पत्र में उन्होंने कहा था। विकास के नाम पर गांवों को समाप्त करने का तीव्रतम प्रयास किया गया। उन्हें शहरों के अनुकूल ढलने के लिए विवश किया गया। परंतु साठ वर्षों में हम इसका परिणाम देख चुके हैं। जवाहरलाल ने जो लक्ष्य बताए थे – खाद्य सुरक्षा, कपड़े, आवास, शिक्षा, स्वच्छता आदि उनमें से एक भी पूरा नहीं हो पाया है। उलटे हम उन सभी मामलों में और पिछड़ गए हैं। सवाल है कि क्या मोदी देश के लिए एक और जवाहरलाल साबित होंगे। आखिर वे भी तो स्मार्ट शहरों की ही बात कर रहे हैं, स्मार्ट गांवों की नहीं।
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विकास का तात्पर्य समझे बिना इस बात को ठीक से नहीं समझा सकता है। विकास का अर्थ क्या है? क्या तकनीक का विकास ही विकास है, क्या यांत्रिक सुविधाओं का विकास ही वास्तविक विकास है, क्या लालसाओं की अनंत वृध्दि ही विकास है? क्या बिजली-सड़क-पानी ही विकास के सच्चे मानक हैं? क्या बड़ी-बड़ी इमारतें, फ्लाईओवर व उनपर तेजी से दौड़तीं कारें, अकारण व केवल अपने अहं की तुष्टि के लिए ढेर सारी व्यस्तताएं, भागमभाग व मोबाइल से चिपके रहना ही विकास का सही मापदंड है? क्या बड़े-बड़े कल कारखाने और औद्योगीकरण्ा ही सच्चा विकास है? क्या कोट-टाई-पतलून पहनना ही विकास करना है? यदि इसे विकास मानें तो वास्तव में इसे प्राप्त करने के लिए हमें कार्बन का उत्सर्जन बढाना ही होगा। परंतु अपने देश में इन्हें विकास का मानक कभी भी नहीं माना गया। अपने देश में जिसे विकास माना गया, उसमें न केवल कार्बन का उत्सर्जन नहीं बढता था, बल्कि प्रकृति के साथ एक तादात्म्य भी स्थापित होता था। इन्टर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार आज हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए हमारी खानपान सहित जीवनशैली भी जिम्मेदार है और उसमें परिवर्तन लाए बिना हम इस समस्या का सामना नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए मांसाहार है। एक किलो मक्का के उत्पादन में 900 लीटर पानी लगता है परन्तु भैंस के 1 किलो मांस के उत्पादन में 15500 लीटर पानी की जरूरत होती है। पशुधन को अब मांस के नजरिये से ज्यादा और कृषि, पर्यावरण और आजीविका के नजरिये से कम देखा जाता है। दुनियाभर के अनाज उत्पादन का एक तिहाई का उपयोग मांस के लिये जानवर पालने में होता है। एक व्यक्ति एक हेक्टेयर खेती की जमीन से सब्जियां, फल और अनाज उगाकर 30 लोगों के लिये भोजन की व्यवस्था कर सकता है किन्तु अगर इसी का उपयोग अण्डे, मांस, जानवर के लिये किया जाता है तो केवल 5 से 10 लोगों का ही पेट भर सकेगा।
भारत में विकास का जो प्रारूप विकसित हुआ, उसमें मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक जीव व जड़
प्रकृति की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। मनुष्य के भी केवल भौतिक पक्ष की ही चिंता करने की बजाय उसके सामाजिक, मानसिक और आत्मिक पक्षों की भी चिंता की गई थी। केवल मनुष्य को सुख-सुविधाओं से लैस करने की कभी कोई योजना अपने यहां नहीं बनाई गई। इसलिए अपने देश में एक मुहावरा प्रचलित हुआ – उत्तम खेती, मध्यम बान; निकृष्ट चाकरी भीख निदान। इसका अर्थ बहुत साफ है। नौकरी करने को अपने देश में कभी महत्ता नहीं दी गई। पशु, भूमि और मनुष्य और इसप्रकार पूरी प्रकृति मात्र का पोषण करने वाली खेती को सर्वोत्तम माना गया। खेती की इस भारतीय व्यवस्था में पशु सहायक हुआ करते थे, बोझ नहीं। इसलिए किसान अपने पशु को मांस के लिए कभी भी उपयोग में नहीं लाता था। रोचक बात यह है कि दूधारू पशुओं को व्यवसाय हेतु नहीं पाला जाता था। दूध एक अतिरिक्त उत्पाद था, मुख्य नहीं। मुख्य उत्पाद तो गोबर और गोमूत्र ही माने जाते थे। इसलिए भारत में पशुपालन हो या खेती, दोनों जीवन जीने की कला बने, उद्योग नहीं। समस्या ही तब शुरू होती है जब हम किसी भी चीज को उद्योग का दर्जा दे देते हैं, बड़े पैमाने पर उसका उत्पादन करने और किसी एक स्थान पर उसका संग्रह करने की कोशिश करते हैं। आज तो जीवन के हरेक आयाम को बाजार और उद्योग से जोड़ दिया गया है। दूध का उत्पादन उद्योग हो गया है, मांस का उत्पादन उद्योग हो गया है। यहां तक कि निहायत ही व्यक्तिगत विषय श्रृंगार भी फैशन उद्योग बन गया है और आज खेती को भी उद्योग की श्रेणी में लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। समस्या इस औद्योगीकरण से ही शुरू होती है। किसी भी चीज का उत्पादन बुरा नहीं है, बुरा है उसका काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन करना। उदाहरण के लिए दूध का उत्पादन है। व्यक्तिगत स्तर पर या छोटे-मोटे समूह द्वारा दूध का उत्पादन तो सदियों से हो रहा है, परंतु कभी कोई समस्या नहीं आई। लेकिन आज दूध का उत्पादन डेयरी इंडस्ट्री यानी कि दूध उद्योग बन गया है, परिणामस्वरूप भारत में तो नहीं परंतु अमेरीका जैसे देशों में गायों के विशाल स्तर पर रख-रखाव के कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। यह उत्सर्जन इतना अधिक हो रहा है कि उस पर संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन को रिपोर्ट निकालनी पड़ती है और उस पर अपने देश में बहस होने लगती है। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि उस रिपोर्ट से भी यह साफ पता चलता है कि गायों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन उतना नहीं होता है जितना कि बड़ी-बड़ी गोशालाओं के संचालन के लिए की जा रही चारे की खेती से होता है। इससे साफ होता है कि दूध व गाय कोई समस्या नहीं है, समस्या है दूध व मांस उद्योग।
प्रकृति की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। मनुष्य के भी केवल भौतिक पक्ष की ही चिंता करने की बजाय उसके सामाजिक, मानसिक और आत्मिक पक्षों की भी चिंता की गई थी। केवल मनुष्य को सुख-सुविधाओं से लैस करने की कभी कोई योजना अपने यहां नहीं बनाई गई। इसलिए अपने देश में एक मुहावरा प्रचलित हुआ – उत्तम खेती, मध्यम बान; निकृष्ट चाकरी भीख निदान। इसका अर्थ बहुत साफ है। नौकरी करने को अपने देश में कभी महत्ता नहीं दी गई। पशु, भूमि और मनुष्य और इसप्रकार पूरी प्रकृति मात्र का पोषण करने वाली खेती को सर्वोत्तम माना गया। खेती की इस भारतीय व्यवस्था में पशु सहायक हुआ करते थे, बोझ नहीं। इसलिए किसान अपने पशु को मांस के लिए कभी भी उपयोग में नहीं लाता था। रोचक बात यह है कि दूधारू पशुओं को व्यवसाय हेतु नहीं पाला जाता था। दूध एक अतिरिक्त उत्पाद था, मुख्य नहीं। मुख्य उत्पाद तो गोबर और गोमूत्र ही माने जाते थे। इसलिए भारत में पशुपालन हो या खेती, दोनों जीवन जीने की कला बने, उद्योग नहीं। समस्या ही तब शुरू होती है जब हम किसी भी चीज को उद्योग का दर्जा दे देते हैं, बड़े पैमाने पर उसका उत्पादन करने और किसी एक स्थान पर उसका संग्रह करने की कोशिश करते हैं। आज तो जीवन के हरेक आयाम को बाजार और उद्योग से जोड़ दिया गया है। दूध का उत्पादन उद्योग हो गया है, मांस का उत्पादन उद्योग हो गया है। यहां तक कि निहायत ही व्यक्तिगत विषय श्रृंगार भी फैशन उद्योग बन गया है और आज खेती को भी उद्योग की श्रेणी में लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। समस्या इस औद्योगीकरण से ही शुरू होती है। किसी भी चीज का उत्पादन बुरा नहीं है, बुरा है उसका काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन करना। उदाहरण के लिए दूध का उत्पादन है। व्यक्तिगत स्तर पर या छोटे-मोटे समूह द्वारा दूध का उत्पादन तो सदियों से हो रहा है, परंतु कभी कोई समस्या नहीं आई। लेकिन आज दूध का उत्पादन डेयरी इंडस्ट्री यानी कि दूध उद्योग बन गया है, परिणामस्वरूप भारत में तो नहीं परंतु अमेरीका जैसे देशों में गायों के विशाल स्तर पर रख-रखाव के कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। यह उत्सर्जन इतना अधिक हो रहा है कि उस पर संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन को रिपोर्ट निकालनी पड़ती है और उस पर अपने देश में बहस होने लगती है। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि उस रिपोर्ट से भी यह साफ पता चलता है कि गायों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन उतना नहीं होता है जितना कि बड़ी-बड़ी गोशालाओं के संचालन के लिए की जा रही चारे की खेती से होता है। इससे साफ होता है कि दूध व गाय कोई समस्या नहीं है, समस्या है दूध व मांस उद्योग।
इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत में विकसित जीवन जीने की कला को अपनाने और उसके अनुसार विकास के मापदंडों को तय किए बिना जलवायु परिवर्तन की समस्या नहीं सुलझ सकती। जब हम ग्राम आधारित विकास के प्रारूप की बात करते हैं तो सबसे पहले इसे प्रगतिविरोधी कहा जाता है, फिर इसे अव्यवहारिक ठहराया जाता है और अंत में उसे मूर्खता ठहराकर खारिज कर दिया जाता है। परंतु सोचने की बात यह है कि जो कुछ हम दिल्ली में कर रहे हैं, उसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है? क्या पूरे देश को आप कंकरीट के जंगल में बदल सकते हैं, यदि बदल देंगे तो क्या जीवन संभव होगा? दिल्ली में यदि आप मोबाइल, एसी और कंप्यूटर के बिना नहीं रह सकते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि गावों में भी लोगों को ऐसा ही हो जाना चाहिए। वास्तव में दिल्ली जैसे शहरों को विकास का विकृत स्वरूप माना जाना चाहिए और इससे सीख लेते हुए देश के अन्य शहरों को इससे बचाने की कोशिश की जानी चाहिए।
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