केंद्र और राज्य
सरकार से विज्ञापन ना मिलने पर राजस्थान पत्रिका वाले श्रीमान गुलाब कोठारी जी ने
लिखा, ''हम तो हमेशा की तरह अपने
पाठकों के बूते अपना कुछ सामान बेचकर भी अगले ढाई साल गुजार देंगे।'' बहुत अच्छी बात। अपना सामान बेच बेच कर भी
पत्रकारिता को जिंदा रखने वाला इस युग मेँ कोई विरला ही हो सकता है। उनके शब्द
काफी क्रांतिकारी हैं। ऐसा कहना मिसाल है और करना बेमिसाल होगा। पत्रकारिता मेँ नए
युग की शुरुआत होगी। ऐसे शब्द और जज्बा किसी योगी और फकीर के पास ही होता है। उनके
शब्दों को पढ़ मुझे भी हौसला हुआ। मानसिक रूप से उनके चरणों को प्रणाम किया और उनकी
सोच को अभिनंदन। शब्दों से प्रेरित हो तय किया कि अपना कुछ ना कुछ बेच कर बंद किया
अखबार फिर शुरू करूंगा। मैं तो अभी इसकी तैयारी ही कर रहा था कि क्रांतिकारी
शब्दों के रचयिता के अखबार मेँ प्रलाप दिखा।
प्रलाप अर्थात
रुदन। विज्ञापन ना मिलने का प्रलाप। सरकारों की कृपा ना बरसने का प्रलाप। समझ नहीं
आया कि ऐसे ज्ञानी, ध्यानी, धार्मिक, आध्यात्मिक, स्थितप्रज्ञ
व्यक्ति के अखबार मेँ ऐसा प्रलाप! वेद, उपनिषद, बड़े बड़े
शास्त्रों, ग्रन्थों पर टीका लिखने
वालों के अखबार मेँ किसी की दया ना मिलने पर ऐसा प्रलाप! पाठकों को मोह, माया, लोभ, क्रोध आदि विकारों से दूर
करने के प्रवचन कर मोक्ष के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वालों के अखबार मेँ
सरकारी विज्ञापनों के लिये ऐसी हाय तौबा। इतनी पीड़ा। दिमाग भन्ना गया। विश्वास ही
नहीं हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है!
हर हाल मेँ सम
रहने के उपदेश देने वाले इत्ती से बात पर रोना पीटना कैसे कर सकते हैं! परंतु लिखे
शब्द तो इतिहास बन जाते हैं। शब्द भी उसमें थे, जो कभी झूठा लिखता ही नहीं। एक एक शब्द सच्चा। मतलब वह
प्रलाप ही था। पहले तो सामान बेच कर बंद अखबार को शुरू करने का विचार त्यागा। फिर
उधर भागा, जिधर पिछले सप्ताह के
अखबार रखे थे। भागा इसलिये कि कहीं बीवी ने बेच ना दिये हों। मिल गए। देखा,
पढ़ा। इस मुद्दे पर बड़े बड़े नेताओं से उनके विचार पूछ कर प्रकाशित
किये जा रहे हैं। जिस से पूछोगे वह निश्चित रूप से हां मेँ हां ही मिलाएगा। यही कहेगा, यह संविधान प्रदत अधिकारों का हनन है, विज्ञापन बंद करना दुर्भाग्यपूर्ण है। कोई
निंदा करेगा। कोई इसके लिये आवाज उठाने का वादा करेगा। कोई ये क्यों कहेगा कि
विज्ञापन नहीं मिले तो ठीक हुआ, सरकारी धन बचा।
परंतु सवाल ये कि पत्रकारिता क्या केवल सरकारी विज्ञापन पर आधारित है?
विज्ञापन नहीं
मिले तो पत्रकारिता का दी एंड। विभिन्न क्षेत्रों मेँ अपना रुतबा, गौरव, सम्मान स्थापित करने वाला आज सरकारी
सहायता के इतने मोहताज हो गए कि विज्ञापन बंद हुए तो प्रलाप करने लगे! पत्रकारिता
की उतनी समझ तो नहीं जितनी उनको है, लेकिन इतना तो एक साधारण से साधारण पत्रकार भी समझ जाएगा कि विज्ञापन के लिये
रोज रोज प्रलाप करना तो पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह पत्रकारिता की धार को कुन्द
करने वाला है। पत्रकारिता के तेज को कम करेगा। अखबार और उसके मालिक, दोनों की चमक फीकी पड़ जाएगी। आभा कम होगी।
पत्रकारिता मेँ दम है तो करो सरकारों के काम काज मेँ रही कमियों का भंडा फोड़।
टिकाओ उनके घुटने। करो उनको मजबूर नीति बदलने को। किन्तु इधर तो उलटा हो रहा है।
पत्रकारिता के
घुटने टिके हुए नजर आ रहे हैं। घुटने टेक के विज्ञापन ले भी लिये तो कौनसी उपलब्धि
होग! पता नहीं बड़े बड़ों की ये कैसी पत्रकारिता है। इतना प्रलाप तो गंगानगर से
प्रकाशित अखबारों के मालिक नहीं करते, जितना ये कर रहे हैं। विज्ञापन तो कभी ना कभी शुरू हो ही जाएंगे, परंतु क्या तब भी इनकी पत्रकारिता के तेवर यही
रहेंगे! संभव नहीं। किसी की दया लेने पर नजर झुकती ही है। हमारे जैसा कोई कर भी
क्या सकता है। बड़ों की बड़ी बात। समर्थ को
दोष नहीं। शायर मजबूर की लाइनें पढ़ो-
कहना है इतना कुछ
कह नहीं सकते
फितरत है अपनी
चुप रह नहीं सकते
झूठ पे लानत हर
कोई फेंके
सच कहते हैं सच
सह नहीं सकते।
दिल्ली! सत्ता का
प्रतीक!ताकत का अहसास! लोकतंत्र की दुहाई! संविधान के रास्ते चलने के वादे को ढोती
दिल्ली! लोकतंत्र के हर पाये की स्वतंत्रता का सुकून छिपाये दिल्ली! बिहार-बंगाल
में जंगल राज हो सकता है, दिल्ली में नहीं।
यूपी में सत्ता जाति में सिमटी दिखायी दे सकती है, लेकिन दिल्ली में नहीं। विकास की अनूठी पहचान बना चुका
पंजाब आतंक से लेकर ड्रग्स में डूब जाता है, लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हो सकता। तमिलनाडु तमाम विकास के
दावे करते हुये भी अम्मा भोजन के भरोसे जीता है, लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं होता। महाराष्ट्र की सियासत कभी
लुंगी को पुंगी बनाने की धमकी देती है तो कभी यूपी-बिहार के लोगों को घुसने से
रोकने पर नहीं कतराती और सत्ता खामोशी से तमाशा देखती है। लेकिन दिल्ली में ऐसा
नहीं हो सकता। राजस्थान-हरियाणा-यूपी में सत्ता के भरोसे दामादों को सहूलियत दी जा
सकती है लेकिन दिल्ली में ये संभव नहीं है।
दिल्ली ने तो
आपातकाल के दौर में सत्ता के राजकुमार से भी दो दो हाथ किये और दिल्ली में तो
नौकरशाही भी मंडल–कमंडल के दौर में
टकराए। अदालतों ने भी ग्रीन दिल्ली से लेकर टूजी तक में ना सिर्फ अपने फैसलों से
सत्ता को हकबकाया। बल्कि जेल की सीखचों के पीछे कारपोरेट-नेता-मंत्री तक को
पहुंचाया। यूं हर दौर में दिल्ली की ताकत लुटियन्स की दिल्ली में सिमटी दिखी। साउथ
ब्लाक से लेकर आईआईसी तक के चेहरे सत्ता का मुखौटा कुछ यूं लगाते कि लड़ाई राजपथ
की हो या जनपथ की, बात भ्रष्टाचार
की हो या घोटालों की, सबकुछ संसद के
भीतर बाहर समझौतों में ही सिमट जाता। लेकिन इस दौर में एक आस मीडिया ने जगाई।
जब—जब देश में ये बहस हुई कि मीडिया सत्ता की
चाकरी कर रही है, तब किसी
एक्टिविस्ट की तर्ज पर दिल्ली में ही एक मीडिया संस्थान ने इंदिरा की सत्ता से दो—दो हाथ किये। इमरजेन्सी के दौर में संघर्ष करते
हुये सत्ता पलटने में खासी भूमिका निभायी। इंडियन होने के बावजूद इंदिरा इज इंडिया
कहने वालों से वह मीडिया संस्थान टकराया। जब बोफोर्स घोटाले की आग सत्ता के खिलाफ
सत्ता के भीतर से निकली तो दक्षिण भारत से निकलने वाले एक अखबार ने सत्ता की हवा
सच छाप कर निकाल दी। हिन्दुत्व के दायरे में सबसे बेहतरीन हिंदू शब्द के तेवर
अखबार की रिपोर्टिंग ने दिखला दिये और जब देश में सत्ता का दामन हवाला रैकेट में
फंसा तो एक संस्थान ने बेहिचक ऐसी रिपोर्ट छापी कि सत्ता का ऊपरी आवरण ही ढहढहाकर
गिर गया । तो दिल्ली में पत्रकारिता का अपना सुकून है। क्योंकि यहां लोकतंत्र भी
जागता है तो मीडिया के हमले सत्ता को भी लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते हैं और सत्ता भी
अपने—अपने तरीके से मीडिया पर
हमले कर लोकतंत्रिक व्यवस्था को बरकरार रखने के लिये एक सियासी वातावरण खुद ब खुद
तैयार करती चली जाती है।
लेकिन इस बार
हालात बदले हैं, तरीका बदला है,
लोकतंत्र की परिभाषा भी बदली बदली सी लग रही
है। क्यों……..क्योंकि खबर को
छूने से हर कोई कतरा रहा है। हर कोई जान रहा है कि खबर सत्ता की चूलें हिला सकती
है लेकिन हवा में तैरती सत्ता की मदहोशी ने पहली बार खुमारी कम खौफ ज्यादा पैदा कर
दिया है। तो इंदिरा की सत्ता को एक वक्त चुनौती देने वाला मीडिया संस्थान भी खामोश
है। एक वक्त बोफोर्स घोटाले से सत्ता की कमीशनखोरी से देश में सियासत गर्म करने
वाला अखबार भी खामोश रहना चाहता है।हवाला के जरीये लाखों की हेराफेरी करने नेताओं
के नाम तक छापने वाला और कागज में दर्ज हस्ताक्षर और छोटे—छोटे इंगित करते नामों की पूरी व्याख्या करने वाला मीडिया
संस्थान भी इस बार खामोश है। कहीं रिपोर्टर तो कही संपादक तो कही मालिक ही सिमटे
है। लेकिन खबर सबको पता है। खबर छापने का दंभ भरने वाले दिल्ली के तमाम ताकतवर
मीडिया संस्थानों की हवा पहली बार दस्तावेजों को देखकर ही हवा—हवाई क्यों हो रही है?
तो क्या दिल्ली
बदल चुकी है? लोकतंत्र की
परिभाषा भी अब दिल्ली की अलग नहीं रही। या फिर पहली बार सत्ता ने हर संस्थान को
सत्ता का हिस्सा बनाकर लोकतंत्र का अनूठा पाठ शुरु कर दिया है। जहां सहूलियत है,
जहां खौफ है, जहां बदलाव है, जहां मुनाफा है, जहां सत्ता ना
बदल पाने की सोच है, जहां विकल्पहीन
हालात हैं, जहां धारा के खिलाफ चलने
पर बगावती होने का तमगा लगने वाली स्थिति है।
यानी पत्रकारिता
कुछ इस तरह गायब की जा रही है, जहां रिपोर्टर को
भी लगने लगे कि वह सत्ता के सामने या सत्ता के पीछ खड़ा है। संपादक भी मैनेजर नहीं
बल्कि वैचारिक तौर पर लकीर के इस या उस पार खड़ा होने का सुकून भी पाल रहा है और
हवा में घुलते राष्ट्रवाद को राजपथ पर चलते हुये ही देख-समझ पा रहा है। तो क्या
पहली बार मीडिया के लिये खबर छापना या ना छापना पत्रकारिता या धंधा नहीं
राष्ट्रवाद है।
राष्ट्रवाद पहली
बार अदालत के दायरे में नहीं लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था चुनावी राजनीति
में जा सिमटा है। जो जीते उसी का राष्ट्रवाद सबसे बेहतरीन, जिसका अपना संविधान है और इस संविधान के दायरे में एक सा
खुलापन है, जहां बोलने की आजादी है।
जहां कुछ भी खाने-पीने की आजादी है। जहां चीन-अमेरिका को लेकर तर्क करने की आजादी
है। जहां आतंक पर चर्चा की पूरी गुंजाइश है। जहां विदेशी निवेश को स्वदेशी मानने
की पूरी छूट है। जहां भ्रष्टाचार,घूसखोरी, कमीशनखोरी, नीतियों के लागू ना होने के हालात पर आरोप लगाने की छूट है
और संविधान से मिली इस स्वतंत्रता को भोगने के लिये सिर्फ बिना कहे ये समझने की
जरुरत है कि देश से बढ़कर कुछ भी नहीं और देश का मतलब ही सत्ता है और सत्ता पर कोई
आंच पांच बरस तक नहीं आनी चाहिये, इसकी जिम्मेदारी
नागरिकों की है। क्योंकि पहले की सत्ता में देश के नाम पर धंधा करने वाले मौजूदा
दौर में तो समझ चुके हैं कि उनका मुनाफा, उनकी सहूलियत, उनकी सुविधा का
खास ख्याल रखा जा रहा है।
सवाल है कि कैसे
लोकतंत्र का यह मिजाज अनंतकाल के लिये हो जाये? बस यही समझ नहीं आ रहा है क्योंकि जो खबर दिल्ली के बाजार
में है, जो खबर हर कोई जान रहा है,
जिस खबर को देखकर हर पत्रकार की बांछे खिल जाती
हैं, जिस खबर के छपने से
पत्रकारीय साख मजबूत हो जाती है, फिर भी उस खबर को
कोई क्यों खुद से अलग कर रहा है? इस दिलचस्प कहानी
के भीतर इतने चरित्र हैं, जिन्हें कुरेदना
दिल्ली को दौलताबाद ले जाने से कम नहीं है। आइये फिर भी मीडिया संस्थानों की
अट्टलिकाओ में घुस कर देखा जाये मुश्किल है कहां। क्योंकि हर मीडिया संस्थान के
भीतर खबरों को लेकर नायाब तरीके की उथल-पुथल लगातार चल रही है और खामोशी से हर कोई
खबरों से ज्यादा बदलते देश की तासीर को समझ कर खामोश है कि जो खबरों के झंडाबरदार
इस दौर में बने पड़े हैं दरअसल वह रामलीला के चरित्रों को जीते हुये अपनी अपनी
भूमिका को ही सच मान रहे हैं।
“आपको जिसके खिलाफ
लिखना है लिख लें, लेकिन इन दो को
छोड़ना होगा” क्यों, तब तो बहुत ही मोटी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी।”
ये तो बेहद महीन लकीर खींचने की बात है। बाकी
तो आपको हर पर कलम चलाने की छूट है। अब आप लोग जो समझें, लेकिन हम झुकते नहीं हैं और हमारी पत्रकारीय धार का लोहा
दुनिया मानती है। तो सोचिये धार भी बरकरार रहे और समझौता होते हुये भी ना लगे कि
हमने कुछ छुपाया। ठीक है।”
“नहीं हम ऐसी
खबरों के पीछे नहीं भाग सकते जिसे छापना मुश्किल हो, रिपोर्टरों को भी ऐसी खबरों के पीछे मत भगाइये, नहीं तो वह खबर ले कर आयेंगे, दस्तावेज जुगाड कर लायेंगे, उन दस्तावेजो को लेकर आप उन्हें लंबे वक्त तक
जांच कर रहे हैं, कहकर भटका भी
नहीं सकते हैं। तो इस रास्ते पर चलें ही नहीं।” अगर कोई भूले भटके ऐसी खबर ले भी आया जो हमारे अखबार के
खांचे में सही नहीं बैठती है तो” ” ……तो क्या आप सीनियर हैं। आप संपादक है। अब ये हुनर तो आपके पास होना ही चाहिये।”
खबरों को आने से
मत रोकिये, जो आ रही है आने दें।
लेकिन कोई भी ऐसी खबर जो देश की हवा बिगाड दे उसे ना छापें। ना ही डिस्कस करें।”लेकिन ऐसी खबरों का मतलब होगा क्या। देश की हवा
का मतलब क्या है? पाकिस्तान से
युद्ध का माहौल या आतंकवाद को लेकर कोई गलत पहल। “ना ना ….देश की राजनीति
को समझिये। इस दौर में देश संकट से भी गुजर रहा है और विकास की नई परिभाषा गढ़ने
के लिये मचल भी रहा है। तो हमें देश के साथ खड़ा होना होगा, जो देश के हक में निर्णय ले रहा है उसके हक में।”तब तो विपक्ष की राजनीति का कोई मतलब ही नहीं
होगा और उनके कहे को कोई मतलब ही नहीं बचेगा।” सही!आपकी खबर ही ये तय कर देगी कि जो सही है आप वहीं खडे
हैं।”तो फिर गलत या सही-गलत के
बीच फंसने की जरुरत ही क्या है?
अखबारी जगत के
तीन मित्रो की तीन कहानियां। ये शॉर्टकट कहानी है। क्योंकि संपादकों के बीच मौजूदा
दौर में कहे जाने वाले शब्द और अनकहे शब्दों के बीच रहकर आपको सही गलत का फैसला
करना होगा। तो अपने अपने संस्थानों को लेकर पत्रकार मित्रों के बीच संपादकों की इस
बैठक को कितना भी लंबा खींचें।
इसी बीच मुझे एक
दिन एक पुराने मित्र ने कॉफी पीने का ऐसा आंमत्रण दिया कि मैं चौक गया। यार दो तीन
घंटे। कॉफी पीते हुये बात करेंगे। वह तो ठीक है। लेकिन शाम के वक्त दो तीन घंटे।
बंधु शॉर्टकट में बतला देना।आखिर में तय यही हुआ कि जहां मुझे लगेगा कि मै बोर हो
रहा हूं तो मैं चल दूंगा। शाम छह बजे फिल्म सिटी के सीसीडी पहुंचा। मित्र इंतजार
कर रहे थे। बिना भूमिका उसने नब्बे के दशक में हवाला रैकेट के दौर के दस्तावेजों
और उस दौर की अखबार–मैग्जिन की
रिपोर्टिंग दिखाते हुये पूछा कि क्या इस तरह के दस्तावेज अब कोई मायने रखते हैं।
बिलकुल मायने रखते हैं। मायने से मेरा मतलब है कि अगर किसी दस्तावेज पर इसी तरह
देश के तमाम राजनेताओ के नाम दर्ज हो तो क्या आज की तारीख में कोई मीडिया संस्थान
छाप पायेगा? ये क्या मतलब
हुआ। अरे यार कोई भी दस्तावेज जांचना चाहिये। गलत भी हो सकता है।
मौजूदा दौर में
जब सब कुछ सत्ता में जा सिमटा है तो फिर एक भी गलत खबर या कहें बिना जांचे परखे
किसी दस्तावेज को सही कैसे कोई मान लेगा? और तुम खुद ही कह रहे हो कि राजनेताओं को कठघरे में खड़े करने वाले दस्तावेज?
जो भी सवाल मेरे जहन में उठे मैंने झटके में कह
दिये। लेकिन मेरे ही सवालों को जबाब देकर मित्र ने फिर मुझे कहा…..यार खबर गलत होगी तो हम यहां क्यों बैठे होते?
मैं चर्चा क्यों कर रहा होता? जरा कल्पना करो सिस्टम चल कैसे रहा है? आप संस्थानों को टटोलेंगे। आप अधिकारियों से
पूछेंगे। आप खबरों की कड़ियों को पकडेंगे। तथ्यों को उनके साथ जोडेंगे और अगर सब
सही लगे तब किसी संपादक का क्यों रुख होना चाहिये? तुम ही बताओ कि अगर तुम होते तो क्या करते?
जाहिर है लंबी
बहस के बाद ये ऐसा सवाल था जिसका जबाब तुरंत मैं क्या दूं, मेरे जहन में तो मौजूदा दौर के सारे हालात उभरने लगे।
मौजूदा हालातों से टकराते उस दौर के हालात भी टकराने लगे, जब सत्ता में एक खामोश पीएम हुआ करते थे। दिल्ली में
पत्रकारिता का सुकून ये तो है कि आप सत्ता की चाकरी करने वालों से लेकर सत्ता से
टकराते पत्रकारों को बखूबी जान समझ लेते हैं। एक दौर में राडिया। एक दौर में
भक्ति। एक दौर में धंधा। एक दौर में संघी। तो क्या इस या उस दौर में पत्रकारिता
उलझ चुकी है? या उलझी
पत्रकारिता को पहली बार पत्रकार ही सत्ता की गोद में बैठ कर सुलझाने लगे हैं?
लेकिन सवाल तो खबर का है और सवाल मुझसे मेरा
मित्र क्यों पूछ रहा है? मैंने थाह लेने
की कोशिश की, क्यों ये सवाल तो
कोई सवाल हुआ नहीं,मुझे अजीब सा लग
रहा था ये कौन से हालात हैं?
मैंने जोर से
उसकी बात काटते हुये कहा , यार तुम ये सब
मुझे कह रहे हो जबकि तुम खुद जिस जगह काम करते हो……वहां के संपादक, वहां का प्रबंधन तो खबरों पर मिट जाने वाले हैं और तुम तो भाग्यशाली हो कि ऐसी
जगह काम करते हो जहां खबरों को लेकर कोई समझौता नहीं होता ।
गुरु …सही कह रहे हो, लेकिन जरा सोचो हम कर क्या करें। मैंने भी भरोसा दिया,
रास्ता निकलेगा और हम मिलकर रास्ता निकालेगें।
हम दो चार दिन में फिर मिलते हैं। तुम मुझे भी वो दस्तावेज दिखाओ,मैं भी देखता हूं।
…..अरे यार तुम्हारे
ये न्यूज चैनल कितने भी बड़े हो जायें..कितना भी कमा लें लेकिन एक चीज समझ लो देश
की सुबह आज भी अखबारों से होती है।
अरे ठीक है यार
रात तो चैनलों से होती है। तो तय रहा अगली मुलाकात में
……लेकिन ये लिखते
लिखते सोच रहा हूं अब अगली मुलाकात…..तो आप भी इंतजार कीजिए…
सरकार की नीतियों
पर उंगली उठाना बहुत आसान होता है लेकिन इन सबके बीच काम करना उतना ही मुश्किल हो
जाता है। मैं यह नहीं कह रहा कि मोदी सरकार सब कुछ अच्छा कर रही है लेकिन इतना तो
कह सकता हूं कि पूर्व की तुलना में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। और जो नहीं हो रहा
है उसे करवाने का काम एक जिम्मेदार व्यक्ति होने के नाते मेरा और आपका है। लेकिन
इसके लिए लानी होगी सकारात्मक सोच, जिसका आधार
भारतीयता हो। मेरे सिर्फ चार सवाल हैं, और जो व्यक्ति पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हो कि वह आपके कुनबे का वैचारिक
प्रतिनिधित्व करता है… आए और इन सवालों
के जवाब दे…
क्या जब कोई नेता
कुछ गलत और असंवैधानिक काम करता है तो अन्य नेता उसके विरोध में आ ही जाते हैं।
हालांकि तब भी नेताओं का एक छोटा सा वर्ग गलत का समर्थन करता है क्योंकि वह स्वयं
गलत होता है और उसे पता होता है कि अगर वह चुप रहा और उसके ‘साथी’ के साथ कुछ हुआ
तो उसका निपटना भी तय है।
मुझे गर्व होता
है कि मैं उस पेशे से जुड़ा हूं जहां ऐसे लोग हैं जो राष्ट्र को सर्वोपरि मानते
हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है और वह लोकतंत्र, भारत का लोकतंत्र है। आखिर क्यों हम ‘भारतीय पत्रकार’ नहीं हो सकते?
अगर आप पूर्वाग्रही होकर बात करना चाहते हैं तो वाद
बेकार है, साथ ही
आपसे विवाद करने का भी मेरा कोई मंतव्य नहीं क्योंकि मैं आपका सम्मान करता हूं, भले
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